सुधार का मार्ग खोलती सुप्रीम कोर्ट की पहल
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम प्रणाली के तहत न्यायिक नियुक्तियों में उम्मीदवारों की इंटरव्यू प्रक्रिया का चरण अनिवार्य किया है। यह फैसला गुणवत्ता और पारदर्शिता यकीनी बनाने की दिशा में है। वहीं व्यवस्था में स्वत: सुधार करके संतुलन कायम करने का भी संकेत है।
के.एस. तोमर
सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक सुधार की दिशा में ऐतिहासिक पहल की है। जिसका मकसद न केवल न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया में गुणवत्ता और पारदर्शिता यकीनी बनाना है, बल्कि राजनीतिक हस्तक्षेप और भाई-भतीजावाद सीमित करने का भी प्रयास है। हाईकोर्ट्स द्वारा वरिष्ठ अधिवक्ताओं की नियुक्ति हेतु भेजे गए नामों पर विचार करते समय अब सुप्रीम कोर्ट में इंटरव्यू प्रक्रिया को अनिवार्य किया गया है, जो लीक से हटकर नया कदम है।
परंपरा रही कि उच्च न्यायालयों द्वारा भेजी गई अनुशंसाएं सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम द्वारा प्रायः बिना व्यक्तिगत मूल्यांकन के स्वीकृत कर ली जाती थीं। परंतु अब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों ने यह परंपरा तोड़ते हुए व्यक्तिगत इंटरव्यू अनिवार्य किया है, जो अनुशंसित अधिवक्ताओं की न्यायिक नियुक्तियों से पूर्व एक अतिरिक्त मूल्यांकन की परत जोड़ेगा। यह फैसला न्यायपालिका की चयन प्रक्रिया में परिपक्वता का संकेत है, वहीं उस आलोचना का उत्तर भी है जो कॉलेजियम प्रणाली की पारदर्शिता व जवाबदेही की कथित कमी को लेकर होती रही है।
वर्ष 1993 के दूसरे न्यायाधीश केस और 1998 के तीसरे न्यायाधीश केस के फैसलों के तहत स्थापित कॉलेजियम प्रणाली ने न्यायपालिका को कार्यपालिका से स्वतंत्रता तो दिलाई, परंतु इसके भीतर पारदर्शिता व जवाबदेही की संरचनात्मक कमी के आरोप सामने आते रहे। आलोचकों के मुताबिक, इस प्रक्रिया में अक्सर व्यक्तिगत संबंधों और सिफारिशों को महत्व दिया जाता है, जिससे योग्यता से समझौता होता है। अब जब इंटरव्यू प्रक्रिया को जोड़ा गया है, तो यह केवल दस्तावेजों और बंद कमरों में होने वाली चर्चा तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि उम्मीदवारों के व्यक्तित्व, विचारशीलता और न्यायिक मूल्यों का प्रत्यक्ष मूल्यांकन संभव होगा।
इंटरव्यू एक ऐसा सशक्त उपकरण है जो केवल विधिक ज्ञान ही नहीं बल्कि उम्मीदवार की नैतिकता , तर्कशक्ति , संवेदनशीलता और न्यायिक दृष्टिकोण का भी मूल्यांकन कर सकता है। अमेरिकी सीनेट न्यायिक समिति द्वारा जजों के साक्षात्कार या ब्रिटेन के ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन की प्रक्रिया की तरह यह कदम भारत को वैश्विक मानकों की दिशा में आगे ले जाता है। पारंपरिक प्रक्रिया में सीवी और सिफारिश-पत्रों के जरिये उम्मीदवारों का आकलन किया जाता था, जो अक्सर वास्तविक क्षमताएं उजागर करने में विफल रहते थे। इंटरव्यू के जरिये प्रत्याशियों की तात्कालिक सोच, नैतिक निर्णय लेने की क्षमता और जटिल कानूनी या नैतिक परिदृश्यों में व्यवहार की क्षमता की जांच संभव हो सकेगी।
वर्ष 2018 में सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा सार्वजनिक रूप से अदालत के आंतरिक कामकाज पर सवाल उठाना दर्शाता है कि सिस्टम के भीतर भी असंतोष व्याप्त था। इंटरव्यू की शुरुआत न केवल जनता के विश्वास बहाली में मदद करेगी, बल्कि यह दर्शाएगी कि न्यायपालिका सुधार की दिशा में स्वेच्छा से कदम उठा रही है।
हालांकि, इंटरव्यू प्रणाली पूर्णत: दोषरहित नहीं। इसकी स्वाभाविक सीमा विषयपरकता है। यदि कोई मानकीकृत मूल्यांकन मापदंड नहीं बनाए गए, तो पैनल के व्यक्तिगत पूर्वाग्रह, सवाल पूछने की शैली या प्रत्याशियों की वक्तृत्व क्षमता जैसे कारक निर्णय को प्रभावित कर सकते हैं। इसका समाधान है कि सुप्रीम कोर्ट एक स्पष्ट मूल्यांकन ढांचा तैयार करे।
भारत के 25 उच्च न्यायालयों में 1,100 से अधिक स्वीकृत न्यायिक पद हैं, जिनमें से बड़ी संख्या में नियुक्तियां लंबित हैं। यदि प्रत्येक अनुशंसित अधिवक्ता का इंटरव्यू सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा किया जाएगा, तो इससे समय, संसाधनों और मानवीय क्षमता पर भारी दबाव पड़ेगा। वर्ष 2023 के अंत तक उच्च न्यायालयों में करीब 30 प्रतिशत पद रिक्त थे, और देश में करीब 4 करोड़ मामले लंबित थे। ऐसे में इंटरव्यू प्रक्रिया इस तरह डिज़ाइन करनी होगी कि यह नियुक्ति प्रक्रिया को और अधिक विलंबित न करे।
इस नए सुधार को न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति संतुलन के निरंतर संघर्ष के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए। साल 2014 में सरकार द्वारा न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका की भूमिका बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) का गठन किया गया था, जिसे 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया। अब जब न्यायपालिका स्वयं सुधार ला रही है, तो यह न केवल अपनी स्वायत्तता की रक्षा का प्रयास है, बल्कि बाहरी हस्तक्षेप की संभावना कम करने की रणनीति भी हो सकती है। भारत की उच्च न्यायपालिका में महिलाओं, अनुसूचित जाति/ जनजाति, ओबीसी और धार्मिक अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व आज भी न्यूनतम है। साल 2022 में उच्च न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों की संख्या मात्र 13 प्रतिशत थी। यदि इंटरव्यू प्रक्रिया को समावेशिता की दृष्टि से अपनाया गया, तो यह हाशिये पर खड़े प्रतिभावान अधिवक्ताओं को न्यायिक मंच तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा न्यायिक नियुक्तियों में इंटरव्यू को शामिल करना प्रशंसनीय पहल है, जो न्यायिक प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी, उत्तरदायी और योग्यता आधारित बनाने की दिशा में अग्रसर है। यह न्यायपालिका के आत्म-सुधार की इच्छा और लोकतंत्र में उसकी नैतिक भूमिका को परिभाषित करता है। हालांकि इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि इसे कैसे लागू किया जाता है।
लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।