सीवर में दर्दनाक मौतें
यह बेहद कष्टकारी व अमानवीय है कि 21वीं सदी में भी कुछ लोग हाथ से मैला साफ करने के व्यवसाय में लगे हैं। जहां सीवर में उतरते ही मौत उनका इंतजार कर रही होती है। लेकिन कोर्ट और सरकारों की सख्ती जमीन पर नजर नहीं आती। सरकार व स्थानीय निकाय यूं तो सीवर साफ करने के लिये कर्मचारी नहीं रखते, लेकिन ठेकेदारों के जरिये ये काम बदस्तूर जारी है। फलत: सीवर में उतरने से मरने वालों को न तो मुआवजा मिल पाता है और न ही किसी की जवाबदेही तय हो पाती है। यह दुखद ही कि छह मई को बठिंडा में एक ट्रीटमेंट प्लांट की सफाई लिए उतरे तीन लोग फिर जिंदा नहीं लौट पाए। एक सप्ताह बाद, रोहतक के माजरा गांव में एक व्यक्ति और उसके दो बेटे एक -दूसरे को जहरीले मैनहोल से बचाने की कोशिश में एक के बाद एक मर गए। पंद्रह मई को फरीदाबाद में एक मकान मालिक ने नियुक्त सफाईकर्मी को बचाने के लिए सैफ्टिक टैंक में छलांग लगा दी। दोनों की ही जहरीली गैस से दम घुटने से मौत हो गई। निश्चित रूप से ये अलग-अलग दुर्घटनाएं नहीं हैं बल्कि ये व्यवस्था की विद्रूपता के चलते हुई हत्याएं हैं। जिसके कारक तंत्र की उदासीनता, अवैधता और जातीय विवशता में निहित हैं। विडंबना ही है कि रोजगार के रूप में हाथ से सफाई के रोजगार पर प्रतिबंध, सफाईकर्मियों के पुनर्वास अधिनियम 2013 तथा खतरनाक सफाई पर प्रतिबंध लगाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद मौतों का सिलसिला थमा नहीं है। ऐसे मामलों में सुरक्षा प्रोटोकॉल की अनदेखी की जाती है। सुरक्षा उपकरण नदारद रहते हैं। अकसर इसकी जवाबदेही से बचा जाता है। बठिंडा में लोगों के विरोध के बाद एक निजी ठेकेदार के खिलाफ देर से प्राथमिकी दर्ज जरूर की गई, लेकिन फरीदाबाद और रोहतक में मामला दर्ज होने की कोई खबर नहीं है।
दरअसल, अक्सर सरकारी तंत्र ठेकेदारों को दोषी ठहराकर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेता है। आखिर इन ठेकेदारों को काम पर कौन रखता है। निस्संदेह, सरकारी तंत्र भी इस आपराधिक लापरवाही के लिए जिम्मेदार है। आखिर सफाईकर्मियों से जुड़े सुरक्षा मानकों की निगरानी की जवाबदेही तय क्यों नहीं होती? नगर पालिकाएं और राज्य एजेंसियां आउटसोर्सिंग की दुहाई देकर अपने कानूनी और नैतिक कर्तव्यों से बच नहीं सकती। दुर्भाग्य से इन हादसों का स्याह पक्ष जातीय विद्रूपता भी है। अधिकांश सफाई कर्मचारी समाज में हाशिये पर पड़े समुदायों से आते हैं। सफाई जैसा महत्वपूर्ण काम करने के बावजूद उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है। सीवर सफाई के लिये मशीनें खरीदने के दावों के बावजूद हाथ से सफाई का क्रम नहीं टूटता। कई जगह मशीनों के खरीदने पर करोड़ों का परिव्यय दिखाया गया, लेकिन जमीनी हकीकत नहीं बदली। मशीनें तो धूल फांक रही हैं और इंसानों को नरक में धकेला जा रहा है। निर्विवाद रूप से हमारे समाज पर मैनुअल स्कैवेंजिंग एक काला धब्बा है। न्यायपालिका सख्ती से इसे रोकने को कहती है, सत्ताधीश आदेश की औपचारिकता पूरी करते हैं, लेकिन फिर भी सीवर की जहरीली गैस में लोगों के मरने का सिलसिला थमा नहीं है। किसी सफाईकर्मी के मरने पर कुछ समय तो हो-हल्ला होता है, मगर फिर मामला ठंडे बस्ते में चला जाता है। वक्त की दरकार है कि नगर निकायों को इन हादसों के लिये सीधे जवाबदेह बनाया जाए। सीवर की सफाई से जुड़ी मौत के लिये स्वत: कानूनी कार्रवाई, तत्काल मुआवजा और विभागीय कार्रवाई की जाए। मानवीय श्रम की जगह तकनीक के उपयोग से बहुमूल्य जीवन को बचाया जाना चाहिए। ये काम सिर्फ कागजों तक सीमित न रहे। बदलाव व्यवहार में भी नजर आए। हमारे कानून को ठीक से लागू न कर पाने से किसी की दर्दनाक मौत नहीं होनी चाहिए। सीवर कर्मियों की मौत पर रोते-बिलखते और असहाय परिवारों का अंतहीन दर्द अब खत्म होना ही चाहिए। दुर्भाग्य से परिवार के कमाने वाले व्यक्ति के मर जाने के बाद उसके परिवार व बच्चों की परवरिश की कोई व्यवस्था नहीं होती। उन्हें मुआवजा देने से भी ठेकेदार बच जाते हैं। ऐसे परिवारों के पुनर्वास को भी गंभीरता से लिया जाना चाहिए।