साप्ताहिक पैठ भी जरूरी है समाज के लिए
घरेलू जरूरतों का सस्ता सामान बेचने को लेकर साप्ताहिक पैठ या हाट बाजार देश के बड़े हिस्से में लोकप्रिय हैं। तय दिन इनमें ग्राहकों की भीड़ रहती है। टैक्स चुकाने वाले ये ठिये कई वजहों से स्थानीय बाशिंदों व दुकानदारों के निशाने पर हैं। इन्हें बंद करने की मुहिम चली है जबकि निम्न आय वर्ग के बहुतेरे लोगों की रोजी-रोटी इनसे चलती है।
पंकज चतुर्वेदी
दिल्ली से सटे गाजियाबाद में इन दिनों सत्ताधारी विधायक की अगुआई में बड़ा आंदोलन चल रहा है। हुआ यूं कि जिले के अलग-अलग इलाकों में लगने वाले साप्ताहिक हाट बाजार या पैठ पर नगर निगम ने रोक लगा दी। इसमें से एक स्थान भारतीय सेना का है जो इसे खाली चाहता है, जबकि बाकी बाजार व्यस्ततम सड़कों पर लगते थे। गौर करने वाली बात है कि उत्तर प्रदेश के सबसे ज्यादा जनसंख्या घनत्व वाले गाजियाबाद की सड़कों पर हर समय जाम रहता है। चर्चा यह भी है कि कई महंगे बाजारों के व्यापारी इन पैठ से खुद का नुकसान महसूस करते हैं। इन बाजारों से करीब दो लाख लोगों की रोजी-रोटी जुड़ी है और 90 प्रतिशत दुकानदार देवबंद, सहारनपुर, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, हापुड़, दिल्ली व सीलमपुर आदि क्षेत्रों से आते हैं। जिन इलाकों में बाजार भरता है वहां के बाशिंदों की शिकायत है कि पैठ वाले दिन वे अपने घरों में बंधक बन जाते हैं।
अकेले गाजियाबाद ही नहीं, देश के अलग-अलग हिस्सों से इन बाजारों को बंद करने की मांग उठती रहती है। कारण लगभग एक जैसे होते हैं - बाजार के कारण यातायात ठप्प हो जाता है तथा लोग अपने घरों में बंधक हो जाते हैं, यहां गिरहकटी होती है, या फिर इनसे गंदगी फैलती है। हालांकि असलियत दूसरी होती है। ऐसे बाजारों को बंद करने के पीछे स्थानीय व्यापारियों के कारण अलग होते हैं, जैसे कि बाजार से कम कीमत पर सामान मिलने के चलते हर सप्ताह घर का सामान खरीदने वाले लोग उनकी दुकानों पर न जाकर हाट बाजार का इंतजार करते हैं। इनमें मिलने वाली सस्ती चीजों और मोलभाव की आदत के कारण ग्राहक अक्सर उनकी दुकान पर भी दाम करने या एमआरपी जैसे मसलों पर बहस करते हैं।
हाट बाजार केवल विनिमय का स्थान ही नहीं होता। मसलन, बस्तर तभी चर्चा में आता है जब वहां कुछ खून-खराबा होता है लेकिन बस्तर के पास और भी बहुत कुछ है। उसमें सबसे महत्वपूर्ण है अपनी परंपराओं, जीवनशैली और सभ्यता को सहेज कर रखने की जीवट और कला। बस्तर के जंगलों में आदिवासियों के छोटे-छोटे लगभग साढ़े तीन हजार गांव हैं। पांच-छह गांवों के मध्य एक हाट होता है, जहां लोग जरूरत की वस्तुएं खरीद-बेच सकते हैं। यहांं लगने वाले हाटों में लोकल संस्कृति, खान पान और रहन-सहन के तौर तरीकों को जानने का मौका मिलता है। इन बाजारों में रोजमर्रा की चीजें, कपड़े, स्थानीय आभूषण, चींटी की चटनी, सल्फी और पारंपरिक मुर्गा लड़ाई देख सकते हैं। झारखंड में भी ऐसे बाजार खासे लोकप्रिय हैं। यह हाट बाजार उनके मनोरंजन का साधन होता है, बाहरी दुनिया को देखने का माध्यम और अपनी संस्कृति के संरक्षण का मैदान भी। बस्तर के आदिवासियों का जीवन अभी कुछ दशक पहले तक पूरी तरह जंगलों पर ही निर्भर था, महुआ, इमली, बोंडा, चिरोंजी की गुठली जैसे उत्पाद लेकर वे साप्ताहिक बाजार में जाते, वहां से नमक जैसी जरूरी चीजें उसके बदले में ले लेते।
दिल्ली राजधानी क्षेत्र की हर कालोनी में ऐसे साप्ताहिक बाजार आज भी लोगों की जीवन रेखा बने हैं। कहां बस्तर के घने जंगल के बीच का बाजार और कहां दिल्ली में अट्टालिकाओं में वातानुकूलित मॉल के ठीक सामने लगने वाले बाजार में कंधे छीलती भीड़। स्थान भले ही अलग हो, लेकिन बेचने-खरीदने वाले का अर्थशास्त्र और मनोवृत्ति एक ही है। दिल्ली के डीडीए फ्लैट कालकाजी के साप्ताहिक बाजार हो या फिर वसंत विहार का बुध बाजार या करोलबाग व विकासपुरी में मंगल बाजार या फिर सुदूर भोपाल या बीकानेर या सहरसा के साप्ताहिक हाट, ये सामाजिक समरसता का अनूठा उदाहरण होते हैं। दैनिक मजदूरी करने वाला हो, अफसर की बीवी हो या दुकानदार, सभी आपको यहां मिल जाएंगे।
ये बाजार रोजगार की तलाश में अपने घर-गांव से पलायन कर आए निम्न आय वर्ग के लोगों की जीवनरेखा होते हैं। आम बाजार से सस्ता सामान, चर्चित ब्रांड से मिलता-जुलता, छोटे पैकेट, घर के पास देर रात तक सजा बाजार। स्थानीय निकाय इन पैठ वालों से नियमित वसूली करते हैं लेकिन यहां शौचालय, स्वास्थ्य, सुरक्षा जैसी कोई सुविधा नहीं होती। हाट बाजार के पीछे केवल वे ही नहीं होते जो अपना सामान बेचते हैं, और भी कई लोगों की रोजी रोटी इनसे चलती है। बाजार लगाने की जिम्मेदारी नगर निगम से लेकर पंचायत तक की होती है। पैठ का टैक्स वसूला जाता है। कई जगह निकाय इसे ठेके पर देते हैं व कारिंदे दुकानदारों से एक शाम की वसूली करते हैं। फट्टे या टेबल, तिरपाल, और बैटरी वाली लाईट सप्लाई वालों का बड़ा वर्ग हाट बाजार पर निर्भर होता है। कई लोग ढुलाई वाहन मुहैया कराते हैं।
इसके अलावा इन बाजार के जरिये पैसा ऐसी जेबों तक भी घूमता है जिसका कोई हिसाब-किताब नहीं होता। अनुमान है कि दिल्ली शहर, गाजियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद, गु़डगांव में लगने वाले करीब 300 हाट बाजारों में 35-40 हजार दुकानदार हैं। पूरे देश में यह संख्या लाखों में होगी, इसके बावजूद न तो इन्हें कोई स्वास्थ्य सुविधा मिली है, न ही बैंक कर्ज या बीमा सुविधा। ऐसे दुकानदारों का पूरा सप्ताह एक बाजार से दूसरे बाजार में ठिया सजाने, ग्राहक बुलाने में व्यतीत होता है, थोड़ा भी समय मिला तो उन्हें थोक के व्यापारी से माल लेना होता है। पटरी बाजारों ने नए बसते शहर देखे, चमकते मॉल का आगमन देखा, घरों में खुलती दुकानें देखीं, कई तरह के विरोध सहे, लेकिन सप्ताह के किसी तयशुदा दिन सड़क किनारे, भारी ट्रैफिक के बीच चिल्ल-पों वाले बाजार की रौनक कभी कम नहीं हुई।