सहनशीलता व विवेक से ही टलेगा टकराव
यदि हम किसी व्यक्ति के कहे शब्दों को अपनी प्रतिष्ठा का विषय न बनायें तो हम हर किसी टकराव को टाल सकते हैं। दरअसल, किसी के कहे शब्दों के निहितार्थ पर विचार करने की जरूरत है।
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
आज जाने क्या हुआ है कि जरा जरा-सी बात पर हमारा समाज उबाल खा जाता है और अशांत हो कर झगड़ों में उलझ जाता है। यह स्थिति किसी भी समाज के लिये चिंता की बात होनी चाहिए। यह विवेकहीनता इन दिनों युवा समाज में तो ज्यादा ही देखी जा रही है। सच यह है कि जितना हम पढ़-लिखकर सभ्य बनते जा रहे हैं, उतने ही असहिष्णु और विवेकहीन भी हो रहे हैं। इस विषय पर गंभीर मंथन की जरूरत है कि क्यों हमारे समाज में यह अधैर्य लगातार बढ़ता ही जा रहा है।
दरअसल, सदियों पहले दी गई मस्त और फक्कड़ कबीर की सीख को जाने क्यों हम सबने भुला दिया है :-
जो तोको कांटा बुए, ताहि बोई तू फूल।
तोको फूल के फूल हैं, वाको हैं तिरसूल।
एक बार की बात है कि भगवान बुद्ध जब प्रवचन कर रहे थे, तब उनके एक विरोधी ने उन्हें गालियां देते हुए अपशब्द कहे। बुद्ध तो शांत रहे, लेकिन उनके शिष्य उस दुश्मन को मारने उठे। बुद्ध ने पूछा कि तुम्हें गुस्सा क्यों आया? तो शिष्य बोले कि यह आपको गाली दे रहा है। इस पर भगवान बुद्ध बोले, ‘मैंने तो इसकी गालियां ली ही नहीं, तो वे सब इसी के पास हैं न?’
महात्मा बुद्ध के कथन में गहरे निहितार्थ हैं। उनके शब्दों में जीवन की राह है और तमाम टकरावों को टालने का मंत्र निहित है। और, हम हैं कि जरा-सी बात पर क्रोध में भर कर लड़ाई-झगड़े पर उतर आते हैं। यदि हम महात्मा बुद्ध के वचनों का अंगीकार कर लें तो तमाम लड़ाई-झगड़े खुद ही खत्म हो जाएंगे। आज इस संदर्भ में बड़ी प्यारी बोधकथा आपको दे रहा हूं, जो आपको अवश्य ही रुचिकर भी लगेगी।
‘एक बार किसी नगर के बहुत बड़े सेठ अपनी दुकान पर बैठे थे। दोपहर का समय था, इसलिए कोई ग्राहक भी नहीं थे, तो सेठ जी थोड़ा सुस्ताने लगे। इतने में ही एक संत भिक्षुक उनसे भिक्षा लेने के लिए दुकान पर आ पहुंचे और सेठ जी को आवाज लगाई—‘भिक्षां देहि सेठ जी’। सेठ जी ने अनमने भाव से देखा कि इस समय कौन आया है? जब उठकर देखा तो पाया कि एक संत याचना कर रहा था। सेठ जी बहुत ही दयालु थे, इसलिए वे तुरंत उठे और दान देने के लिए एक कटोरी चावल बोरी में से निकाले और भिक्षा मांग रहे संत के पास जाकर उन को चावल दे दिया।
दान पाकर संत ने सेठ जी को बहुत-बहुत आशीर्वाद और शुभकामनाएं दी। तब सेठजी ने संत से हाथ जोड़कर बड़े ही विनम्र भाव से कहा, ‘गुरुजन! आपको मेरा प्रणाम। मैं आपसे अपने मन में उठी एक शंका का समाधान पूछना चाहता हूं।’
तब संत ने कहा कि सेठ जी! अवश्य पूछो।
इस पर सेठ जी ने कहा, ‘हे साधु महाराज! लोग आपस में लड़ते क्यों है?’ संत ने सेठजी के इतना पूछते ही शांत स्वभाव और वाणी में कहा, ‘सेठ! मैं तुम्हारे पास भिक्षा लेने के लिए आया हूं। तुम्हारे इस प्रकार के ऊलजलूल और मूर्खतापूर्ण सवालों के उत्तर देने नहीं आया हूं।’
संत के मुख से अपने लिए इतना सुनते ही सेठ जी को क्रोध आ गया और वे मन में सोचने लगे कि यह कैसा घमंडी और असभ्य संत है? मुझे मूर्ख कह रहा है? यह संत तो बड़ा ही कृतघ्न है। एक तो मैंने इसको दान दिया और यह पागल मुझे ही इस प्रकार की बात बोल रहा है? इसकी इतनी हिम्मत? और ये सोच कर सेठजी को बहुत ही क्रोध आ गया और सेठ जी बहुत देर तक उस संत को खरी खोटी सुनाते रहे और जब अपने मन की पूरी भड़ास निकाल चुके, तब जाकर कुछ शांत हुए।
सेठ जी के शांत होने पर संत ने बड़े ही शांत और स्थिर भाव से कहा, ‘देखा सेठ जी! मैंने आप को जैसे ही मूर्ख कहा, वैसे ही आपको बेहद क्रोध आ गया और आप क्रोध से भर कर जोर-जोर से बोलने और चिल्लाने लगे।
सच मानिए सेठ जी! यदि हम किसी व्यक्ति के कहे शब्दों को अपनी प्रतिष्ठा का विषय न बनायें तो हम हर किसी टकराव को टाल सकते हैं। दरअसल, किसी के कहे शब्दों के निहितार्थ पर विचार करने की जरूरत है। हमें यह भी विचार करना चाहिए कि किसी के कहे शब्दों से हमारा वास्तव में क्या अहित हो सकता है। मानव समाज में केवल विवेकहीनता ही सारे झगड़े-फसाद का मूल होता है। यदि सभी लोग विवेकी हो जाएं, तो अपने क्रोध पर सहज ही काबू रख सकेंगे। यदि हम हर परिस्थिति में प्रसन्न रहना सीख जाएं, तो दुनिया में झगड़े ही कभी न होंगे। हमें अपने मन को नियंत्रण करना चाहिए।’ इतना कहकर संत ने सेठ जी को आशीर्वाद के साथ जीवन का सच्चा मंत्र भी दे दिया।
मित्रो! यह बोधकथा आज के समाज के लिए सचमुच संजीवनी ही है।
‘सहनशक्ति आ जाय तो, क्रोध का होता अन्त।
हर प्राणी तब शांत हो, जीए जैसे संत।’