सरकारी जवाबदेही व सामाजिक जागरूकता जरूरी
प्लास्टिक कचरा आज पर्यावरणीय संकट का एक बड़ा कारण बन चुका है, जो हमारे जल, वायु और भूमि को प्रभावित कर रहा है। सरकार ने इस पर नियंत्रण के लिए कुछ कानूनी कदम उठाए हैं, लेकिन सामाजिक जागरूकता और उत्तरदायित्व की पहल अभी भी जरूरी है।
पंकज चतुर्वेदी
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के स्थानीय निकायों से ठोस कूड़े के निष्पादन में कोताही पर सवाल उठाया है, जबकि यह समस्या पूरे देश में फैली हुई है। हर दिन छोटे गांवों से लेकर महानगरों तक ठोस कूड़े का पहाड़ बढ़ रहा है, जो धरती, पानी और हवा को प्रदूषित करता है। कूड़े का एक बड़ा हिस्सा प्लास्टिक का है, जो अब हमारे तंत्र और स्वास्थ्य के लिए गंभीर संकट बन चुका है। यह वैश्विक स्तर पर एक बड़ी चुनौती बन गई है। यह प्लास्टिक अति सूक्ष्म रूप में हमारे समूचे तंत्र की रक्त शिराओं से लेकर सांस तक के लिए संकट बन चुकी है।
विशाखापत्तनम से बस्तर जाने वाले रास्ते पर स्थित कोरापुट एक छोटा-सा कस्बा है, जो चारों ओर पहाड़ों और हरियाली से घिरा हुआ है। लेकिन जैसे ही शहर की सीमा समाप्त होती है, ऊंचाई के घाट पर प्लास्टिक की पन्नियां, पानी की बोतलें और नमकीन-चिप्स के पैकेजिंग उड़ते हुए दिखाई देते हैं। बरसात के दौरान ये कूड़ा धीरे-धीरे जमीन और खेतों में समाहित हो जाता है, जिससे पर्यावरण और इंसान की जीवनरेखा पर नकारात्मक असर पड़ता है।
कोरापुट तो सिर्फ एक उदाहरण है, शहरी, कस्बे और गांवों के नाम बदलते रहें, लेकिन सड़कों के किनारे नैसर्गिक हरियाली और पहाड़ अब धीरे-धीरे प्लास्टिक कचरे से ढकते जा रहे हैं। दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप कुछ समाधान ला सकता है, लेकिन मोदीनगर या पलवल जैसे स्थानों पर कोई प्रभावी तंत्र नहीं है, जो इस समस्या की गंभीरता को समझे और उस पर कार्रवाई करे।
वर्ष 2014 में शुरू हुआ स्वच्छता अभियान शौचालय और कचरे के प्रति आम लोगों को जागरूक करने में सफल रहा, लेकिन आंकड़ों पर गौर करें तो यह स्पष्ट होता है कि कचरे का उत्पादन तो कम हुआ नहीं, बल्कि उसका निपटान भी प्रभावी तरीके से नहीं हो पा रहा है। हमने कोई ऐसा ठोस कदम या विधान विकसित नहीं किया है, जिससे कचरा कम हो और उसका नियमित, कारगर निपटान हो। जनवरी, 2019 में केंद्र सरकार ने ‘सिंगल-यूज़ प्लास्टिक’ पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन हाल ही में संसद में पेश किए गए आंकड़े भयावह हैं। देश में हर साल 41.36 लाख टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न हो रहा है और तमिलनाडु सबसे अधिक प्लास्टिक कचरा उत्पन्न करने वाला राज्य है।
तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में प्लास्टिक कचरे की पुनर्चक्रण क्षमता 11.5 लाख टन प्रति वर्ष है, लेकिन इसका केवल 33 प्रतिशत ही वास्तविक रूप से उपयोग हो सका। इसका मतलब है कि अधिकांश कचरा यूं ही पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में समाहित हो गया। दिल्ली में इस दौरान 4.03 लाख टन प्लास्टिक कचरा पैदा हुआ, जबकि तेलंगाना दूसरे स्थान पर रहा, जहां 5.28 लाख टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न हुआ। यह स्थिति तब है जब राज्य सरकार ने प्लास्टिक कचरे पर पाबंदी लगा रखी है, लेकिन आंकड़े यह दर्शाते हैं कि यह पाबंदी केवल कागजों तक सीमित है और वास्तविकता में कुछ भी प्रभावी कदम नहीं उठाए गए।
संसद में यह भी बताया गया कि देशभर में प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन इकाइयों (पीडब्ल्यूएमयू) की संख्या केवल 978 है। स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के दूसरे चरण में यह प्रावधान है कि प्रत्येक ब्लॉक में पीडब्ल्यूएमयू स्थापित किए जाएं, और इसके लिए केंद्र सरकार 16 लाख रुपये की राशि मुहैया कराएगी। हालांकि, प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 के तहत कचरे के संग्रहण और परिवहन के लिए स्थानीय निकायों और ग्राम पंचायतों को जिम्मेदारी दी गई है, लेकिन इनके पास न तो पर्याप्त कर्मचारी हैं और न ही बजट। परिणामस्वरूप, छोटे कस्बों की बात तो छोड़ें, नगर निगम स्तर पर भी इस दिशा में प्रभावी कार्य नहीं हो पा रहा है।
यह उल्लेखनीय है कि प्लास्टिक उत्पादन मुख्य रूप से कच्चे तेल, गैस या कोयले से होता है, और कुल प्लास्टिक का लगभग 40 प्रतिशत एक बार इस्तेमाल करने के बाद फेंक दिया जाता है। पानी की बोतलें, खाने की चीजों के रैपर, पॉलिथीन बैग जैसे उत्पाद हमारे पास कुछ घंटों के लिए होते हैं, लेकिन फिर ये सैकड़ों वर्षों तक पर्यावरण में बने रहते हैं। यह लावारिस प्लास्टिक समुद्र, सूर्य की किरणों, हवा और लहरों के संपर्क में आकर छोटे टुकड़ों में टूट जाता है, जो एक इंच के पांचवें हिस्से से भी छोटे होते हैं। ये माइक्रोप्लास्टिक कण अब इंसान के फेफड़ों से लेकर मछली, फल-सब्जियों में मिल रहे हैं। माइक्रोप्लास्टिक और भी महीन टुकड़ों में विखंडित होकर ‘प्लास्टिक माइक्रोफाइबर’ बनाते हैं, जो पेयजल और सांस लेने वाली हवा के जरिए इंसान को गंभीर बीमारियां, जैसे कैंसर दे सकते हैं।
असल में कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने खुद किया है। कुछ साल पहले तक स्याही वाले पेन होते थे, जिनमें केवल रिफिल बदला जाता था, लेकिन आजकल ऐसे पेन का प्रचलन है जिन्हें खत्म होने पर फेंक दिया जाता है। बढ़ती साक्षरता दर के साथ इन पेनों का इस्तेमाल और कचरा बढ़ता गया। इसी तरह, शेविंग किट में अब 'यूज एंड थ्रो' रेजर का चलन बढ़ गया है। वहीं दूध और पीने का पानी भी कचरा बढ़ाने वाली बोतलों में मिल रहा है। मेकअप का सामान, डिस्पोजेबल बर्तन, पाॅलीथीन की थैलियां और पैकिंग की अनावश्यक मात्रा, ये सब ऐसे तरीके हैं, जिनसे हम कचरे को बढ़ाते जा रहे हैं।
कानून तो यह भी है कि बड़ी कंपनियां अपने उत्पादों की पैकेजिंग में इस्तेमाल प्लास्टिक का त्वरित निपटारा करें लेकिन शायद ही यह हो रहा है। पानी की छोटी बोतलों पर रोक के लिए प्रधानमंत्री के निर्देश का सही तरीके से पालन हुआ नहीं। देश की मजबूत वित्तीय व्यवस्था के लिए यदि व्यवसाय और पैकेजिंग उद्योग अनिवार्य है तो उससे अधिक जरूरी है साफ हवा और पानी। इसके लिए समाज को जागरूक होना पड़ेगा।