समुद्र का स्वच्छक और रेशमी धागे का जादूगर
मुसेल एक द्वि-आवरणधारी समुद्री घोंघा है, जो मुख्यतः उत्तरी गोलार्ध के तटीय क्षेत्रों में पाया जाता है। यह समुद्री पारिस्थितिकी को संतुलित रखने, जल को साफ करने, पोषण प्रदान करने और अतीत में वस्त्र निर्माण में उपयोग किए जाने वाला उपयोगी जलचर है।
के.पी. सिंह
मुसेल एक द्वि आवरणधारी समुद्री घोंघा है। मुसेल शब्द लैटिन भाषा के मस्कुलस से बना है। मस्कुलस का अर्थ होता है छोटा चूहा। लेकिन चूहे से इस जीव का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। मुसेल उत्तरी गोलार्ध के उप उष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण सागरों के अधिकांश तटों पर पाया जाता है। यह भाटे की सीमा में चट्टानों और कीचड़ में पड़े पत्थरों पर भी मिलता है। उत्तरी गोलार्ध के काला सागर से भूमध्य सागर, उत्तर-अमेरिका के दोनों तटों और जापान के सागर तटों पर इनकी संख्या बहुत अधिक है। मुसेल आर्कटिक सागर में नहीं मिलता। मुसेल सागर तटों से लेकर 30 फुट तक की गहराई वाले भागों में बहुत बड़ी संख्या में मिलता है। सागर में इतनी बड़ी संख्या में कम घोंघे ही मिलते हैं। मुसेल बहुत बड़े-बड़े झुंडों में रहने वाला जलचर है। एक किलोमीटर लंबी पट्टी में इसके दो-दो करोड़ के झुंड देखे गए हैं। मुसेल कम खारे पानी में भी रह सकता है।
इसकी लंबाई प्रायः 5 सेंटीमीटर से लेकर 12 सेंटीमीटर तक होती है। कुछ मुसेल 5 सेंटीमीटर से भी छोटे होते हैं। मुसेल की अधिकतम लंबाई 22.5 सेंटीमीटर तक हो सकती है। इससे लंबे मुसेल अभी तक नहीं देखे गए। मुसेल का रंग नीला अथवा बैंगनी होता है। कभी-कभी कत्थई रंग के मुसेल भी देखने को मिल जाते हैं। इसका प्रमुख भोजन प्लैंकटन में पाए जाने वाले पौधे एवं मृत जीवों के सड़े-गले मांस के अति सूक्ष्मकण है। इसके साथ ही यह डाइएटम जैसे छोटे-छोटे तैरने वाले सूक्ष्मजीव भी खाता है। मुसेल में नर और मादा अलग-अलग होते हैं तथा बाह्य निषेचन करते हैं। मादा मुसेल एक बार में प्रायः पचास लाख से लेकर एक करोड़ बीस लाख तक अंडे देती है। बड़ी जातियों की कुछ मादाएं एक बार में 2.5 करोड़ तक अंडे दे सकती हैं। इसके अंडे 1/12 मिली मीटर व्यास के होते हैं एवं छोटी-छोटी गुलाबी लड़ियों के रूप में होते हैं। ये लड़ियां सागर तल तक पहुंचते-पहुंचते टूट जाती हैं, जिससे अंडे बिखर जाते हैं। इसी समय नर मुसेल करोड़ों की संख्या में शुक्राणु छोड़ता है, जिससे अंडों का निषेचन हो जाता है।
मुसेल के निषेचित अंडों का बड़ी तीव्र गति से विकास होता है और मात्र पांच घंटों में इनसे भ्रूण निकल आता है। नवजात भ्रूण के सीलिया होते हैं, जिनकी सहायता से यह स्वतंत्र रूप से तैरता है। दूसरे दिन के अंत तक इसके पीले रंग का आवरण निकलना आरंभ हो जाता है। इस समय भी यह आवरण से बाहर निकले हुए, सीलिया द्वारा तैरता रहता है। एक माह का होते-होते इसका आवरण पूरा निकल आता है तथा सीलिया समाप्त हो जाते हैं। अब यह तैरना छोड़ कर तल में चला जाता है और प्रायः यह वयस्क होने के पहले काफी घूमता-फिरता भी है। सागर तल पर स्थायी निवास बनाते समय मुसेल की लंबाई आधे मिलीमीटर से लेकर एक मिलीमीटर तक होती है। पांच मिली मीटर का होने पर यह तैरना अथवा घूमना-फिरना कम कर देता है। इसके बाद वयस्क होने पर यह पूरी तरह एक स्थान पर बस जाता है। दो से तीन वर्षों के मध्य इसका आकार 5 सेंटीमीटर तक हो जाता है तथा यह वयस्क एवं प्रजनन के योग्य हो जाता है।
मुसेल के अनेक शत्रु हैं। आरंभ में इसे प्लेंटकन के जीव खाने वाले प्राणियों का भोजन बनना पड़ता है। इसके साथ ही सागर तल के जीव इसका शिकार करते हैं। वयस्क होने पर बत्तख, घोमरा एवं आएस्टर कैचर जैसे पक्षी तथा कुत्ता, ह्वेल, वालरस जैसे समुद्री जीव और प्लेस तथा फ्लाउन्डर जैसी मछलियां इसे अपना आहार बनाती हैं। समुद्री जीवों में मुसेल की सबसे बड़ी शत्रु है तारा मछली। यह अपनी एक भुजा मुसेल के आवरण के भीतर डालकर उसके मुलायम शरीर को चूस लेती है। मुसेल बड़ा उपयोगी जलचर है। यह समुद्र के भीतर चट्टानों या इसी प्रकार के ठोस आधारों से चिपकने के लिए एक विशेष प्रकार के धागे के गुच्छे तैयार करता है। यह धागा सोने जैसा चमकीला और बहुत मजबूत होता है। प्राचीनकाल में इससे बहुमूल्य कपड़े तैयार किए जाते थे, जिनका उपयोग अति सम्पन्न लोग करते थे। हेनरी आठ और फ्रांस के सम्राट की भेंट के समय आयोजित समारोह में सम्मिलित होने वाले अधिकांश ‘नोबल्स’ ने मुसेल के बनाए गए धागों से बने कपड़े पहने थे। लोगों ने इन्हें सोने के कपड़े समझा था। आज भी इन वस्त्रों को इंगलैंड और फ्रांस के संग्रहालयों में देखा जा सकता है।
मुसेल सागर के भीतर सड़ा गला मांस खाकर एक सफाई कर्मचारी का कार्य करता है। यह पानी को डिस्टिल वाटर की तरह साफ कर देता है। मुसेल का उपयोग बहुत बड़ी संख्या में खाने के लिए भी किया जाता है। इ.रि.सें.