समाज, सत्य और लघुकथा की गूंज
अशोक भाटिया
बीसवीं सदी में ‘भारतीय लघुकथा-कोश’ और ‘विश्व लघुकथा-कोश’ जैसे सम्पादन-कार्यों द्वारा लघुकथा को एक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और वैश्विक दृष्टि देने का गंभीर प्रयास करने वाले, ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ आदि अनेक सम्मानों से सम्मानित पत्रकार-कथाकार बलराम ने लघुकथा-सृजन में भी अपनी छाप छोड़ी है। इनके ‘मृगजल’ संग्रह में नयी लघुकथाएं शामिल कर ‘मसीहा की आंखें’ नाम से 43 रचनाओं का नया संग्रह आया है।
‘माध्यम’ और ‘रफा-दफा’ ग्रामीण समाज के विकट यथार्थ की सजग अभिव्यक्ति के उदाहरण हैं। गांवों में आज भी शोषक शक्तियों का बोलबाला है। ‘रोशनी और रोशनी’ धार्मिक संकीर्णता से मानवीय उदारता की ओर ले जाती है। ‘मसीहा की आंखें’ वर्तमान राजनीतिक परिवेश और बेहतर समाज के स्वप्न –दोनों के महीन तारों से बुनी गई रचना है। बहुचर्चित रचना ‘बहू का सवाल’ पारिवारिक धरातल पर पितृ-सत्ता और ज्योतिष पर तल्ख़ टिप्पणी है। ‘आदमी की घोषणा’ संकीर्ण मनोवृत्ति पर चोट करती हुई लघुकथा में प्रबंधन की जरूरत को रेखांकित करती है। इसमें वर्णित आश्रमकी झलक देखें– ‘न मंदिर लगता, न मस्जिद, न गिरिजाघर, न गुरुद्वारा।’ बलराम ने कुछ पौराणिक संदर्भों का आधुनिकीकरण कर अपने समय के सत्य को व्यंग्य की बुनावट के साथ उजागर किया है। ‘दशरथ के वचन’, ‘महाभारत’, ‘गुरु-भक्ति’, ‘हेर-फेर’ ऐसी प्रमुख लघुकथाएं हैं।
इनसे भिन्न आस्वाद वाली रचनाओं में ‘रुकी हुई हंसिनी’ में पत्र-शैली में कर्म और सृजन-पथ की उपादेयता और ‘रुकना मत अनुराधा’ में इसी शैली में दिल की बात को संयम कलात्मक स्पर्श के साथ कहा गया है। ‘उम्मीद’, ‘फंदे ही फंदे’ भी इसी धरातल की रचनाएं हैं। इधर कुछ वर्षों से बलराम कथेतर गद्य पर काम करते आ रहे हैं, जिसकी झलक पुस्तक के अंत में ‘हिंदी में लघुकथा’ नाम से लिखी डायरी के रूप में मिलती है। इस प्रकार रचनात्मक दृष्टि से भी इतिहास लिखा जा सकता है। डायरी का निष्कर्ष लघुकथा-लेखकों को सोचने का एक आधार देता है- ‘लघुकथा को एक साथ वामन और विराट होना होगा।’
पुस्तक : मसीहा की आंखें लेखक : बलराम प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 142 मूल्य : रु. 199.