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समरस भारतीय समाज बनाने की उम्मीद

04:00 AM Apr 30, 2025 IST
समरस भारतीय समाज बनाने की उम्मीद
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आतंकियों से बदला लेना ज़रूरी है, पर उतना ही ज़रूरी यह भी है कि हम समाज के उन तत्वों की पहचान करके उन्हें परास्त करने का संकल्प लें जो एक भारतीय के रूप में हमारी पहचान को धुंधला बनाने की कोशिश में लगे हैं। ऐसा न करने या न कर पाने का मतलब है आतंकियों के इरादों को पूरा करने में मदद करना।

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विश्वनाथ सचदेव

जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में जो कुछ हुआ है, उसने जहां एक ओर सारे देश को हिला कर रख दिया है, वहीं दूसरी ओर सारी मनुष्यता को भी शर्मसार कर दिया है। जिस नृशंसता और क्रूरता के साथ बैसरन में आतंकवादियों ने निरपराध सैलानियों का खून बहाया है उससे भारत ही नहीं, दुनियाभर के शांति-प्रिय लोग व्यथित हैं। यह व्यथा तब तक नहीं मिटेगी, जब तक मनुष्यता के खिलाफ अपराध करने वालों को उनके किये की समुचित सज़ा नहीं मिल जाती। हत्या-काण्ड के सात दिन बाद तक अपराधियों का न पकड़ा जाना ज़रूर कुछ निराश करता है, पर इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि अपराधी शीघ्र ही अपने किये की सज़ा पायेंगे। उन्हें सज़ा मिलनी ही चाहिए।
पिछले एक अर्से से कश्मीर की घाटी अपेक्षाकृत शांत थी। उम्मीद की जा रही थी कि स्थिति लगातार बेहतर होगी, पर इस हत्या-काण्ड ने ऐसी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। फिर भी, इस हत्या-काण्ड पर दुनियाभर में जिस तरह की प्रतिक्रिया हुई है, वह आश्वस्त करने वाली है। सवाल यह उठता है कि जिस तरह से इस सारे काण्ड को रचा गया है उससे आतंकवादियों के मंसूबों के बारे में हम कितना कुछ समझ रहे हैं। जिस तरह नाम पूछ कर, कलमा पढ़वा कर और कपड़े उतरवा कर निरीह सैलानियों को मारा गया है, उससे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि आतंकवादी कुछ लोगों को, या बहुत सारे लोगों को, मार कर सिर्फ आतंक ही फैलाना नहीं चाहते थे, उनका असली उद्देश्य भारतीय समाज को बांटने का था।
कश्मीर में, और शेष भारत में, इस हत्या-काण्ड पर जिस तरह की प्रतिक्रिया हुई है, वह आश्वस्त करने वाली है। कुल मिलाकर कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और असम से लेकर गुजरात तक, सारा भारत एक आवाज़ में आतंकवाद के खात्मे की आवाज़ उठा रहा है। लेकिन, ऐसे तत्व भी हैं समाज में जो इन आशंकाओं को बल दे रहे हैं कि कहीं हम उन आतंकवादियों के षड्यंत्र का शिकार न बन जायें जिनका मुख्य उद्देश्य हमें धर्म के नाम पर बांटना ही है। लेकिन जब तक हमारे बीच एक भी हुसैनशाह अथवा ‘नज़ाकत चाचा’ ज़िंदा है, तब तक एक समरस भारतीय समाज बनाने की हमारी आशा भी ज़िंदा रहेगी।
जी हां, आदिल हुसैनशाह और नज़ाकत उन कश्मीरियों के नाम हैं जिन्होंने जान पर खेल कर यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कि इंसानियत और उम्मीद अभी ज़िंदा है। कश्मीर में नृशंस हत्याकाण्ड शुरू होने के कुछ ही मिनट पहले नज़ाकत उन सैलानियों के बच्चों के साथ खेल रहा था जिन्हें वह पहलगाम घुमाने लाया था। खेल-खेल में जब सैलानियों के तीन-चार साल के बच्चे ने अपने परिवार के ‘गाइड’ को नज़ाकत नाम से पुकारा तो बच्चे के पिता ने टोकते हुए कहा था, ‘नज़ाकत नहीं, नज़ाकत चाचा कहो बेटा’। और इस नज़ाकत चाचा ने उस परिवार को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा दी थी। कश्मीरी घोड़ेवाले आदिल हुसैन शाह तो बलिदान ही हो गया अपने ‘मेहमानों’ को बचाते-बचाते। ये दोनों नाम कश्मीरियत नहीं, इंसानियत के लिए बलिदान होने वाली तमन्ना का परिचय देने वाले हैं। आज सारा देश इस तमन्ना को सलाम कर रहा है।
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने वहां की विधानसभा में इस हत्या-काण्ड की भर्त्सना करते हुए जब यह कहा कि उनके पास माफी मांगने के लिए शब्द नहीं हैं तो उनका गला भर आया था। उन्हें इस बात की पीड़ा थी कि वे उन सैलानियों को बचा नहीं पाये जिन्हें उन्होंने ‘कश्मीर घूमने की दावत’ दी थी। सीधे-सादे शब्दों में भावुक कर देने वाला यह ‘माफीनामा’ कुल मिलाकर उस हिंदुस्तानी की आवाज़ थी जो एक भारतीय समाज की परिकल्पना में विश्वास करता है। आदिल या नज़ाकत या उमर उस भावना का नाम है जिसके धागे में पिरोया हमारा देश मनुष्यता की एक माला बना हुआ है। इस भावना पर किसी भी प्रकार का अविश्वास करके मैं उम्मीद की उस किरण की चमक को ज़रा-सा भी कम नहीं करना चाहता जो हमें भारतीय होने पर गर्व करना सिखाती है।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज भी देश में कुछ ऐसे तत्व हैं जो भारत के नागरिक को हिंदू-मुसलमान की नज़र से देखते हैं। यदि हम आज कश्मीर में जो हुआ उसके मूल उद्देश्य को समझने में विफल रहते हैं तो यह बांटने वाली नापाक ताकतों के इशारों पर नाचने जैसी बात ही होगी। आखिर पहलगाम में खून बहाने वाले आतंकी चाहते क्या थे? क्या कुछ लोगों को मारना ही उनका उद्देश्य था? जी नहीं, कश्मीर में आतंक फैलाने के इरादे से आये थे आतंकी और उनका उद्देश्य हमारे भारतीय समाज को बांट कर कमज़ोर बनाना था। इसलिए, यदि आज हम आतंकवादियों के इरादों के शिकार हो जाते हैं, इस तरह की घटनाओं को हिंदू-मुसलमान की दृष्टि से देखने लगते हैं तो आतंकियों के इरादों के पूरा होने के मददगार ही सिद्ध होंगे हम। आतंकवादी, पाकिस्तान में बैठे उनके आका और पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जैसे तत्व इस तरह की घटनाओं को अंजाम देकर यही चाहते हैं कि पंथ-निरपेक्षता में विश्वास करने वाला भारतीय समाज बंट जाये, कमज़ोर हो जाये। पंथ-निरपेक्षता और धार्मिक विविधता हमारी ताकत है। आतंकियों के इरादों को न समझ कर, अथवा गलत समझ कर, हम अपनी नासमझी का नहीं, अपनी नादानी का ही परिचय देंगे। और यह नादानी किसी अपराध से कम नहीं होगी।
हमें इस बात का भी ध्यान रखना है कि धर्म के नाम पर समाज को बांटने वाली ताकतें कमज़ोर भले ही हों, अभी ज़िंदा हैं। इन ताकतों को पहचानना, और उन्हें विफल बनाना, हमारे अस्तित्व की शर्त है। हमें इस शर्त पर खरा उतरना ही होगा। मैं हिंदू हूं या मुसलमान, या किसी और धर्म को मानने वाला, इससे इस बात पर कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि मूलत: मैं मनुष्य हूं। यहां मैं गीतकार गोपालदास नीरज की उस कविता को याद करना चाहता हूं, जिनमें उन्होंने कहा था, ‘अब तो कोई मज़हब ऐसा भी चलाया जाये, जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाये।’
आदिल और नज़ाकत इसी इंसान के नाम हैं। हमें अपने भीतर के इस इंसान को ज़िंदा रखना होगा। इसके लिए सतत जागरूकता और सतत प्रयास की आवश्यकता है। बांटने वाली ताकतें कमज़ोर भले ही हों, पर शैतानियत का पुतला होती हैं। इस शैतानियत को हरा कर ही हम इंसानियत को ज़िंदा रख सकते हैं। इंसानियत का तकाज़ा है कि हम बांटने वाली ताकतों के हाथों का खिलौना न बनें। नाम पूछ कर गोली चला देने वाला मनुष्यता का अपराधी है, नाम पूछकर सामाजिक बहिष्कार करने वाली मानसिकता भी उतनी ही अपराधी है। आतंकियों से बदला लेना ज़रूरी है, पर उतना ही ज़रूरी यह भी है कि हम समाज के उन तत्वों की पहचान करके उन्हें परास्त करने का संकल्प लें जो एक भारतीय के रूप में हमारी पहचान को धुंधला बनाने की कोशिश में लगे हैं। ऐसा न करने या न कर पाने का मतलब है आतंकियों के इरादों को पूरा करने में मदद करना। आतंकियों के इन इरादों को हरा कर ही हम जीत सकते हैं।

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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