सद्भाव व मानवीय मूल्यों के संवर्धन का महोत्सव
भले ही राजनीतिक चश्मे से आलोचना की जाए लेकिन करोड़ों लोगों के आवागमन, संगम में स्नान, सुरक्षा का दायित्व निभाना आसान काम नहीं है। भीड़ का अनुशासन, सहयोग, सद्भाव व सेवाभाव मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा है। आध्यात्मिक महत्व से बढ़कर इस जनोत्सव का समरसता व सामंजस्य दृष्टि से महत्व है।
क्षमा शर्मा
पैंतालीस दिन के आयोजन के बाद कुंभ समाप्त हो गया। सरकार ने सोचा था कि इसमें पैंतालीस करोड़ लोगों के आने की सम्भावना है, मगर दावा है कि आये छियासठ करोड़, इक्कीस लाख। यानी कि बीस करोड़ से ज्यादा। चैनल्स पर लगातार जिस तरह से कुंभ के दृश्य दिखाए गए, उससे हैरत होती थी। सिर पर भारी-भारी सामान लादे लोग, पैदल चलते। कोई अपने बूढ़े पिता को गोद में उठाए, कोई स्त्री अपनी सास को पीठ पर लादे, दो लड़के अपनी मां या घर की किसी वृद्ध महिला को सहारा देते। खुले आसमान के नीचे सोते। एक तरफ से दस से पंद्रह किलो मीटर तक चलना, लेकिन किसी तरह का उत्पात नहीं, कोई लूटपाट नहीं, कोई नफरत नहीं, कोई दंगा-फसाद भी नहीं। क्या डेढ़ महीने से अधिक के इतने बड़े आयोजन के बावजूद, इतनी अनुशासित भीड़ किसी ने देखी है। यूरोप की आबादी से भी यह भीड़ बस कुछ कम है। अमेरिका की कुल आबादी चौंतीस करोड़ है और पूरे यूरोप की चौहत्तर करोड़। यदि किसी दूसरे देश में इतनी भीड़ इकट्ठी हो, लगातार आ रही हो, तो वहां क्या होगा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
कुंभ को लेकर विपक्ष की जो भूमिका रही, उस पर आश्चर्य होता है। आप भाजपा सरकार का विरोध कर सकते हैं, उसकी आलोचना कर सकते हैं, मगर जो लोग इतनी लम्बी-लम्बी यात्राओं के बाद प्रयागराज आए, उनकी आलोचना करने और मजाक उड़ाने का क्या अर्थ है। किसी की भावनाओं को अपने-अपने राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए। क्या उन लोगों के वोट विपक्ष को नहीं चाहिए। देश के दूर-दराज के इलाकों से ही नहीं, विदेशों से भी बहुत से लोग आए। एक से एक बड़े लोग आए। बड़े-बड़े नेता आए। उद्योगपति आए। अम्बानी सपरिवार आए। अडानी ने तो वहां बड़े स्तर पर खाने-पीने का प्रबंध किया। कैटरीना कैफ, रवीना टंडन, विक्की कौशल, अनुपम खेर, ममता कुलकर्णी, मिलिंद सोमन, राजकुमार राव, अक्षय कुमार जैसे अनेक अभिनेता, अभिनेत्रियां भी आए। क्या ये सब मजाक उड़ाने लायक हैं। और क्यों। आप कौन होते हैं किसी का मजाक उड़ाने वाले। किसने ये अधिकार दिया। इतनी संवेदनहीनता की तो उम्मीद नहीं की जा सकती। सच तो ये है कि जब आप किसी का मजाक उड़ाते हैं, तो अपना मजाक उड़वाने की तैयारी कर रहे होते हैं।
कई परिचित कुंभ में गए थे। बहुराष्ट्रीय निगम में काम करने वाली एक लड़की भी गई थी। बाकी जहां रहती हूं, वहां से भी बहुत से लोग गए थे। सभी ने एक सुर में कहा कि वहां इंतजाम बहुत अच्छे थे। कोई बीमार पड़ा तो उसे तत्काल इलाज की सुविधा मिली। खास तौर से पुलिस की भूमिका बेहद सराहनीय थी। उसी लड़की ने कहा कि वह जिनके साथ गई थी, उनसे बिछुड़ गई। घबराहट में रोने लगी। तभी एक पुलिस वाला उसके पास आया। सारी बात जानकर उसने कहा- रोओ मत। अभी मैं तुम्हें मिलवाता हूं। फिर उसने लड़की से उन लोगों के नम्बर लिए जिन्हें लड़की मिला रही थी और मिल नहीं रहे थे। उसने काफी प्रयास के बाद उन लोगों से सम्पर्क साधा और लड़की को मिलवाया।
इसी तरह गुड़गांव की एक महिला को पुलिस ने रोते देखा । पूछने पर पता चला कि वह गुड़गांव से आई है, साथ वालों से बिछड़ गई है। उसे पता नहीं कि अकेली कैसे लौटना है। पुलिस ने उसे ढांढस बंधाया। कहा कि अगर उसके साथ के लोग नहीं मिले, तो वे उसे गुड़गांव तक छोड़कर आएंगे। कुंभ के समापन के दिन पुलिस ने बताया कि इस दौरान तीस हजार बिछड़े लोगों को मिलवाया गया। तीस हजार कोई मामूली संख्या नहीं है। पुलिस के अच्छे कामों की शायद ही कभी सराहना की जाती है। बल्कि बुद्धिजीवी वर्ग अक्सर बाल की खाल निकालने को तत्पर रहते हैं। क्योंकि किसी की तारीफ करने के मुकाबले आलोचना करना बड़ा आसान है। इतनी बड़ी भीड़ का प्रबंधन कैसे किया गया होगा। सरकार और ब्यूरोक्रेसी ने अपने को झोंक दिया होगा। कुंभ के बाद न जाने कितने दिन इन लोगों को अपनी थकान उतारने में लगेंगे। पर इनकी चिंता भला किसी को क्यों हो ।
लेकिन हम इन सब बातों को याद नहीं रखेंगे। सिवाय तरह-तरह से आलोचना करने के। यह बात अलग है कि जब हमारे घर में शादी-ब्याह होता है, तो हम मात्र सौ-पचास लोगों का इंतजाम करने में सारी ताकत झोंक देते हैं। सिर के बल खड़े हो जाते हैं, फिर भी आने वाले खुश नहीं होते। यही हाल किसी सभा-सेमिनार का होता है। तो हम तो सौ-पचास का इंतजाम करने में घबरा जाते हैं, मगर आलोचक बनते वक्त परम निंदक बन जाते हैं।
प्रयागराज में कुंभ के दौरान जो हादसा हुआ, लोगों की जान गई, या कि नई दिल्ली स्टेशन की भगदड़ में लोगों की जान गई वह बहुत दर्दनाक है। ऐसा नहीं होना चाहिए था। किसी परिवार के लिए अपने परिजन की जो कीमत होती है, वह वही जानता है। लेकिन इसमें कुंभ का क्या दोष। वहां आने वाले श्रद्धालुओं को क्यों हम अपने चश्मे से देख रहे हैं। या वे इस देश के नागरिक नहीं। फिर उन्हें यहां आने के लिए शायद ही किसी तरह की सरकारी सहायता दी गई है। जिस से जो साधन बना, वह उसके जरिए यहां पहुंचा। हमें उनकी हिम्मत की दाद देनी चाहिए।
इसके अलावा जो लोग नहीं गए, वे भी किसी आक्षेप के दोषी नहीं हैं, न ही मजाक उड़ाने लायक हैं। अपनी मर्जी है, जो जाना चाहे वह जाए, जो नहीं जाना चाहता उस पर कोई जबर्दस्ती नहीं। एक धर्मिक नेता ने कहा कि जो लोग कुंभ नहीं आ रहे हैं, वे देश से प्रेम नहीं करते। यह बात भी गलत है। ऐसी खबरें आईं कि प्रयागराज में बहुत से मुसलमानों ने लोगों की भरपूर सहायता की। मस्जिदों के दरवाजे खोल दिए गए। मुसलमानों द्वारा संचालित स्कूलों, कालेजों में भी लोगों के खाने-पीने, रहने आदि की व्यवस्था की गई। यह बात काबिले तारीफ है। और यही अपने देश की विशेषता भी है। राजनीति आपस में चाहे जितनी आग लगाए, लोग हैं कि दूसरे की मदद के लिए निकल ही आते हैं। एक मित्र ने अपनी बेटी की कुंभ यात्रा के बारे में फेसबुक पर लिखा। बताया कि कोई वाहन नहीं मिल रहा था तो एक रिक्शे वाले ने उन्हें पूरे दिन घुमाया। जब उस लड़की ने पैसे देने चाहे तो उसने कहा कि कुंभ के दिनों में वह लोगों की मुफ्त सेवा कर रहा है। पैसे नहीं ले रहा। नाम पूछने पर पता चला –आफताब।
पहले अगर दो लोग बिछुड़ जाएं और बहुत दिनों बाद मिलें तो कहा जाता था कि हम कुंभ में बिछुड़ गए थे, अब मिले। यही नहीं इम्तिहान के बारे में भी मजाक में कहा जाता था कि इम्तिहान कौन-सा कुंभ का मेला है कि बारह साल बाद आएंगे। ये तो हर साल आते हैं। खुशी की बात है कि इस बार बिछड़ने की ऐसी खबरें शायद ही आएं।
ये घटनाएं हमें बहुत कुछ सिखाती हैं और सोचने को प्रेरित करती हैं।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।