संविधान, कानून और जनता
गोपाल प्रधान
वर्ष 2018 में रोहित डे की किताब ‘ए पीपुल’स कांस्टीच्यूशन : द एवरीडे लाइफ़ आफ़ ला इन द इंडियन रिपब्लिक’ का प्रकाशन हुआ। किताब की शुरुआत 1950 के अंतिम महीने में जलालाबाद के सब्जी विक्रेता मुहम्मद यासिन से होती है जो नगरपालिका की ओर से सब्जी बेचने का केवल एक लाइसेंस जारी करने की खबर से परेशान थे। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगायी कि उनका धंधा जारी रखने की अनुमति दी जाए। अधिकार संपन्न नागरिक के बतौर देश की सर्वोच्च अदालत जाने वालों में वह पहला भारतीय था। 15 अगस्त, 1947 की आधी रात को भारत आजाद हुआ। तीन साल बाद प्रांतीय सदनों द्वारा नामित संविधान सभा ने नया संविधान अपनाया जिसमें भारत को संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया। उस दौर के स्वाधीन हुए देशों में भारत का संविधान सबसे अधिक समय तक कायम रहा और सार्वजनिक जीवन को अब भी निर्देशित करता है।
संविधान के बारे में आधिकारिक धारणा के विपरीत बहुतेरे लोग उसे मृगछलना समझते हैं। आलोचकों ने यह भी कहा कि इसमें संशोधन की प्रक्रिया आसान होने से इस दस्तावेज में बहुत स्थिरता नहीं है। संसद में दो-तिहाई के बहुमत से इसे संशोधित किया जा सकता था। कहा गया कि अगर शासन के हितों के मुताबिक इसे आसानी से बदल दिया जा सकता है तो फिर यह शासन की कार्यवाही पर रोक कैसे लगाएगा। आलोचना या प्रशस्ति की जगह इस किताब में माना गया है कि भारतीय गणतंत्र में दैनन्दिन जीवन को संविधान ने बहुत गहराई से बदल दिया है। लोकतांत्रिक प्रणाली में अदालतों की लोकप्रियता की एक वजह राहत संबंधी ये प्रावधान तो थे ही, मुकदमों के जल्दी निपटारे ने भी उनके प्रति भरोसा पैदा किया। 1950 में सुप्रीम कोर्ट ने 600 से अधिक याचिकाओं पर सुनवाई की। 1962 तक इन सुनवाइयों की संख्या 3833 हो चुकी थी। इसी अवधि में अमेरिका में सुनवाई की संख्या 960 मात्र रही थी। अमेरिका की आजादी के पचास साल बाद तक वहां की सुप्रीम कोर्ट ने कुल 40 ही मुकदमे सुने थे।
भारत में दायर मुकदमों में विविधता भी अधिक रही है। इनसे पता चलता है कि रोजमर्रा के जीवन में राज्य किस हद तक दखल देता था और किस हद के बाद नागरिक इस दखलंदाजी के प्रतिवादस्वरूप अदालत की शरण में चले जाते थे। इन मुकदमों में वाद विवाद की मार्फत लोकतंत्र की धारणात्मक शब्दावली ने प्रत्यक्ष रूप ग्रहण किया। राज्य और नागरिक के इस मुखामुखम से संवैधानिक अंत:क्रिया का जन्म हुआ। यह संवैधानिक अदालत और उसकी बहसें नागरिकता का अभिलेखागार बन गयीं।
साभार : गोपाल प्रधान डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम