संभव है ट्रम्प-पुतिन-मोदी शिखर सम्मेलन
राष्ट्रपति ट्रम्प और ज़ेलेंस्की मीटिंग में उभरी तल्खी के बाद दुनिया के सभी देश अमेरिका से पटरी बैठाने को तैयार हैं। हालांकि चीन तनकर खड़ा है। ट्रंप भी जानते हैं कि असल मुकाबला पुतिन से नहीं बल्कि जिनपिंग से है। वहीं मोदी-ट्रंप बैठक के बाद भारत के लिए ये समीकरण अनुकूल हैं। चीन-पाक धुरी तोड़ने को पाकिस्तान से संबंध बहाली भी सही नीति होगी।
ज्योति मल्होत्रा
एक सप्ताह पहले डोनाल्ड ट्रम्प और वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की के बीच हुई तीखी नोक-झोंक अब इतिहास बन चुकी है। ओवल ऑफ़िस की उस सुबह दुनिया बदल गई और विश्व ने ताकत का अपरिष्कृत उपयोग होते देखा। अगर यूरोप – और यूक्रेनियन भी– शक्ति के ऐसे प्रयोग में शालीनता और शिष्टाचार की कमी को लेकर भड़क रहे हैं, तो शायद वे सही हैं। लेकिन इतना तो वे भी जानते हैं : यदि आप कुछ अंडे नहीं तोड़ सकते, तो ऑमलेट बनाना सरल नहीं।
हैरानी जिस बात की है वह यह कि यूरोपीय और ब्रिटेन को झटका इस कदर लगा है। ब्रिटिश और फ्रांसीसी, जोकि सुरक्षा परिषद के वीटो पॉवर संपन्न स्थाई सदस्य हैं – इनके अलावा यूरोप महाद्वीप के वे तमाम अन्य देश जो विश्व मंच पर खुद को स्थापित करने की बेतहाशा कोशिश में हैं - अमेरिकी डॉलर की पीठ पर सवार होने के कारण, अमेरिकियों के सामने नतमस्तक रहे, कम से कम द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से। यूरोप का सबसे उघड़ा रहस्य यह है कि यूरोपीय लोगों के अंदर अनाकर्षक अमेरिकियों के प्रति व्याप्त घृणा बमुश्किल छिपी है– उन्हें तो सिर्फ उनका पैसा चाहिए। सुएज़ के पार, गर्मियों में पेरिस के बेकरी वाले सबसे महंगे बगेट (ब्रेड) बनाकर रखते हैं - जब फ्रांस की राजधानी पेरिस आने वाले अमेरिकी पर्यटकों की भारी भीड़ के कारण हर चीज़ खत्म हो जाती है, ठीक वैसे ही, जब उन सभी को हेमिंग्वे की किताब ‘ए मूवेबल फीस्ट’ के एक या अन्य संस्करण की तलाश भी रहती है।
ट्रम्प एंड कंपनी - जेडी वेंस, एलन मस्क और अन्य की एक बात है कि उनके पास वह करने के वास्ते कोई वक्त नहीं है, जिसे जाने-माने पत्रकार शेखर गुप्ता ‘तानपुरा-सेटिंग’ कहते हैं। इसका मतलब है कि यूरोप, जिसे औपचारिक संवाद और व्यवहार में तमाम तरह का तामझाम और अलंकार बहुत पसंद है, जिसको ‘इग्लाइट’ और ‘लिबर्टे’ और यहां तक कि ‘फ्रैटरनाइट’ जैसे कलिष्ट शब्दों में पिरोया जाता है - हालांकि, यहां आपको उत्तरी अफ्रीका में फ्रांस के कुछ दशक पहले के इतिहास पर नज़र डालनी चाहिए, खासकर अल्जीरिया में, जहां के श्वेत फ्रांसीसी भी ‘पाइड नोयर’ या ‘ब्लैक फीट’ पुकारे जाते थे, क्योंकि वे मुख्यभूमि के फ्रांसीसियों जितने गोरे नहीं थे - यह सब आत्मा को इतना झकझोरने और उद्वेलित करने वाला है, क्योंकि वे जानते हैं कि आखिरकार उनके रखे अनाप-शाप दाम अटलांटिक पार से आए अमेरिकी ही चुका सकते हैं।
खैर, ट्रम्प और वेंस ने अभी-अभी घोषणा की है कि इस सारी ‘तानपुरा-सेटिंग’ का समय समाप्त हो चुका है। या फिर आप अपना ‘तानपुरा सेट करना’ जारी रख सकते हैं, लेकिन हमारे समय या हमारे पैसे की एवज पर नहीं। इसलिए यूक्रेन का अंतिम यूक्रेनी तक लड़ने का निर्णय मुबारक हो, लेकिन अमेरिकी पैसे पर नहीं। कम से कम अफगानिस्तान ने अमेरिका और यूरोप को एक बात सिखाई है - किसी और की लड़ाई लड़ने का मतलब यह नहीं है कि आपके फौजी इसमें मरें। शायद इसीलिए उन्होंने अपना अपराध बोध कम करने को अपनी थैली की डोरी ढीली की थी।
ट्रम्प ने उस सुबह ओवल ऑफिस में यूरोप के पाखंड को उजागर किया। तीन साल से यूरोप और कनाडा व्लादिमीर पुतिन से लड़ने के लिए ज़ेलेंस्की को उकसाते आए है, सिवाय इसके कि अफ़गानिस्तान के उलट, वहां वे अपने फौजी मरवाने को तैयार नहीं हैं। दुनिया को इस दिशा में आगे बढ़ने में एक हफ़्ते से भी कम समय लगा। सिर्फ़ ज़ेलेंस्की ही नहीं, हर कोई ट्रम्प के नेतृत्व वाली ‘नई साहसी दुनिया’ के लिए तैयारी कर रहा है, क्योंकि वे जानते हैं कि उनके पास कोई और विकल्प नहीं है। हाल-फिलहाल केवल चीनी ही तनकर सामने खड़े हैं। इसके क्या मायने हैं, आप जानते हैं। ट्रंप भी मानते हैं कि उनका असली मुकाबला पुतिन से नहीं बल्कि शी जिनपिंग से है। किसी और के पास नहीं, केवल चीनियों के पास ही अमेरिकियों का सामना करने लायक ताकत और कूवत है। शायद इसीलिए ट्रंप ‘रूसी भालू’ को गले लगाना चाहते हैं – यह करके वे उसे चीनी नेता की ड्रैगन जैसी पकड़ से दूर रखना चाह रहे हैं। यह अविश्वसनीय है कि ट्रंप ने इस मूल सच्चाई को इतनी जल्दी बूझ लिया, लेकिन वाशिंगटन डीसी के बाकी लोगों के भेजे में सालों तक यह बात नहीं आई। अच्छा, तो फिर ट्रंप युग में भारतीय विदेश नीति को लेकर कोई क्या-क्या सोचे? स्पष्टतः, मोदी सरकार ने ट्रंप से जल्द मिलने को जाकर ठीक किया, भले ही यह उसी समय हुआ जब अमेरिकी राष्ट्रपति भारतीयों को असम्मानजनक तरीके से निर्वासित कर रहे थे। इसलिए मोदी ने कड़वी गोली जल्द निगल ली, क्योंकि उन्हें पता था कि उन्हें यह करना पड़ेगा - अमेरिकी राष्ट्रपति के सामने जल्दी पड़ना और अपनी बात कहना।
वाशिंगटन डीसी में मोदी की उपस्थिति से उनके पुराने नारे ः ‘अबकी बार, ट्रंप सरकार’ की याद भी ताजा हो गई, जोकि बाइडेन के लिए ज़ेलेंस्की के समर्थन के एकदम उलट था। बाकी चीजें विदेश मंत्री एस जयशंकर चतुराई से साध रहे हैं। इसीलिए उन्होंने घोषणा कर दी कि भारत ‘डी-डॉलराइजेशन’ के साथ नहीं है, हालांकि रूस के कज़ान में चीन के नेतृत्व वाले ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भारत ने ठीक यही करने में सहमति जताई थी, सालाना बजट पेश करने से पूर्व ही, लग्जरी मोटरसाइकिलों के लिए टैरिफ घटा दिया, क्योंकि अपने पिछले कार्यकाल में ट्रंप यही करवाना चाहते थे।
संक्षेप में, ट्रंप को खुश करने की कोशिश की जा रही है या कम से कम उन्हें शांत करने, उन्हें यह दिखाने की कि हमारा इरादा उनका नुकसान करने का नहीं है। आप जानते हैं कि वह एक अप्रत्याशित मिजाज़ वाले बंदे हैं- मैक्सिको और कनाडा पर जो शुल्क लगाने की उन्होंने हाल ही में घोषणा की थी, फिलहाल उस पर अमल टाल दिया है– सो उनको राज़ी रखने में भलाई है। यह दिखावा न करें कि आप गुटनिरपेक्ष हैं, जोकि आप वास्तव में नहीं हैं, और न ही उनके साथ अपनी दोस्ती बहुत गहरी होने के बारे में सार्वजनिक रूप से दम भरें, जैसा कि असुरक्षित ‘दोस्तों’ की आम आदत होती है। जहां तक आगामी अमेरिका-रूस संबंध मधुर होने की बात है, भारत के सामने पासा फेंका जा चुका है और बाज़ी खेलकर जीतनी होगी। यदि मोदी दांव अच्छे ढंग से खेल लेते हैं, तो पश्चिमी और पूर्वी, दोनों जगह भारत की स्थिति बेहतर बना पाएंगे। ट्रम्प-पुतिन-मोदी वाला एक शिखर सम्मेलन अब संभावना से बाहर नहीं है।
सार यह कि मोदी सरकार को सत्ता के इस्तेमाल के बारे में कुछ नुक्ते सीखने चाहिए - मसलन, अपने दुश्मनों के साथ दोस्ती करना, अपने दोस्तों के साथ मित्रता निभाने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। यदि मोदी चाहते हैं कि भारत एक क्षेत्रीय शक्ति बने, तो उन्हें पाकिस्तान को लेकर अपने पूर्वाग्रहों को आड़े नहीं आने देना चाहिए। यह जनता का जनता से संपर्क बहाल करने की इच्छा से कहीं अधिक अहम है - हालांकि जीवन में एक बार आने वाले खुशी के मौके जैसे कि विवाह या समारोह में पाकिस्तान से दोस्त-रिश्तेदारों का दिल्ली आना अद्भुत रहेगा- और इसके लिए दरकार है प्रधानमंत्री मोदी अपने वैश्विक-दृष्टिकोण में मौलिक रणनीतिक बदलाव लाएं। भारत कभी भी मजबूत नहीं होगा यदि उसे दोनों ओर से चीन-पाकिस्तान की धुरी का सामना करना पड़े। अपने बनिस्बत कमजोर, पश्चिमी पड़ोसी के साथ दोस्ती करके - जिसके साथ आपकी बहुत सी समानताएं भी हैं – क्यों न उन दोनों के बीच दूरी पैदा करें? लेकिन यह करने की बजाय, भारत ने चीन के साथ रिश्ते बहाल कर लिए और पाकिस्तान को ब्लैकलिस्ट कर रखा है।
विराट कोहली, जिनके बारे में प्रधानमंत्री अक्सर ट्वीट करते रहते हैं, ने कुछ दिन पहले एक पाकिस्तानी बल्लेबाज, जिसके खिलाफ वे खेल रहे थे, उसके जूते के फीते बांधने के लिए झुककर राह दिखाई है, -यह उनके, उनकी खेल भावना और दुनिया में उनके रुतबे के सौम्य आत्मविश्वास का द्योतक है।
क्या प्रधानमंत्री, जिनकी विदेश नीति निपुणता सराहनीय होनी चाहिये, उससे कुछ सबक लेंगे जो विराट ने किया है?
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।