संकल्प
अशोक जैन
घर में हड़कंप-सा मच गया। छुटके ने अपनी बढ़ती उम्र को देखते हुए अपने लिए लड़की चुन ली थी। मां उसके पक्ष में थी, पर खामोश।
‘कौन लड़की देगा इसे? प्रूफ रीडिंग से घर नहीं चलता।’ बड़के ने अपने क्रोध को उगला।
‘अरे, बिकना ही है तो मेरी तरह बिक...!’ मंझले ने अपनी बात रखी तो बड़का उफन गया।
‘तुम तो रहने ही दो! किसी ने कहा तुम्हें बोलने को...!’
मां खामोश रही। छुटके ने अपना निर्णय सुना दिया था। बड़का विरोध स्वरूप उठकर चला गया। छुटका उठा, मां के पांव छुए और बोला, ‘अभी जा रहा हूं, मां। शाम को लौटूंगा, तैयार रहना। क्वार्टर पर चलेंगे और अगले सप्ताह शादी का प्रोग्राम तय करना है।’
कमरे से बाहर निकलते ही भरी आंखों से भाभी को नमस्कार करते हुए बोला, ‘आप तो समझती हैं न मुझे। जब मैंने तय कर लिया है तो करूंगा अवश्य। मेरा जीवन मेरे कठोर परिश्रम का सुपरिणाम हो, आशीष दें।’
द्वार खोलते ही हवा का एक तेज़ झोंका मां को सिहरा गया। वह संभली, मजबूती से खड़ी हुई और छुटके को छोड़ने दरवाजे तक आई।
‘शाम को तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगी...।’