श्रद्धा, सेवा और समरसता वाली मानवता की थाली
‘गुरु का लंगर’ केवल भोजन परोसने की परंपरा नहीं, बल्कि यह सेवा, समर्पण और समानता का जीवंत प्रतीक है। सिख गुरुओं द्वारा स्थापित यह परंपरा जाति, धर्म, लिंग या वर्ग के भेदभाव से परे सभी को एक पंक्ति में बैठाकर एक जैसा भोजन कराना सिखाती है। यह मानवता की थाली है, जिसमें श्रद्धा, सेवा और समरसता का स्वाद समाया हुआ है।
प्रो. सुखदेव सिंह
‘लंगर’ शब्द सामान्यतः गुरुद्वारों और सिख धर्म के अनुष्ठानों से जुड़ा होता है, हालांकि यह शब्द मूल रूप में फारसी भाषा से आया है, जहां इसका अर्थ कुछ हद तक पंजाबी भाषा में प्रचलित आधुनिक अर्थ से मेल खाता है, लेकिन इसमें महत्वपूर्ण अंतर भी हैं। ऐसा कहा जाता है कि ‘लंगर’ की परंपरा एशिया के कुछ क्षेत्रों में 11वीं-12वीं शताब्दी से चली आ रही है। इसकी औपचारिक शुरुआत 13वीं शताब्दी में बाबा शेख फ़रीद द्वारा की गई मानी जाती है। इसका उल्लेख 1623 ई. में संकलित ग्रंथ ‘जवाहर अल-फरीदी’ में मिलता है।
चिश्ती, नक्शबंदी, कादरी और सुहरावर्दी जैसे सूफी पीरों या मुर्शिदों ने अपने शिविरों में मुरीदों, अनुयायियों और अन्य यात्रियों के लिए रात बिताने और भोजन करने की व्यवस्था स्थापित की थी। इस प्रकार की व्यवस्था को अरब जगत में ‘रिबात’ तथा ईरान और भारत में ‘खानकाह’ कहा जाता था। फारसी शब्द ‘लंगर’ का अर्थ इसी परंपरा से जुड़ा हुआ है। अहमद उजघानी की पुस्तक ‘ओवैसी का इतिहास’ में पूरे मध्य एशिया में लंगरों की उपस्थिति का विवरण मिलता है।
इन खानकाहों में भोजन स्थानीय लोगों के दान या शासकों द्वारा दी गई जागीरों अथवा अनुदानों पर निर्भर करता था। इसी प्रकार, नाथ जोगियों ने भी अपने शिविरों में भंडारगृह स्थापित किए हुए थे। पूर्वी दुनिया में योगियों और तपस्वियों को कच्चा अनाज या पका हुआ भोजन दान करने की परंपरा भी लंबे समय से चली आ रही है। दरअसल, घूमते-फिरते सूफियों या योगियों के लिए आश्रय और भोजन का एकमात्र स्थान किसी दरवेश या मुर्शिद की खानकाह या किसी नाथ का टिल्ला या मठ होता था। इतिहासकार कपूर सिंह इस लंगर परंपरा को आर्य परंपरा से जोड़ते हैं।
पंजाबी भाषा में ‘लंगर’ का अर्थ अलग है, और यह अर्थ पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में प्रथम सिख गुरु, गुरु नानक देव जी द्वारा अपने पिता से व्यापार हेतु प्राप्त धन से भूखे संतों को भोजन कराने की घटना से जुड़ा है। यहीं से ‘लंगर’ शब्द का अर्थ व्यापक हुआ। गुरु नानक देव जी के अनुयायियों द्वारा भूखों को भोजन कराना (लंगर) सामाजिक न्याय के साथ-साथ आध्यात्मिक कर्तव्य भी बन गया। उनके बाद सिखों के दूसरे गुरु, गुरु अंगद देव जी, ने खडूर साहिब में ‘लंगर’ को एक नियमित परंपरा के रूप में स्थापित किया। इसमें धर्म, जाति, लिंग और आर्थिक स्थिति के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होता था और सभी एक पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे। इसे सुदृढ़ करते हुए सिखों के तीसरे गुरु गुरु अमरदास जी ने इस परंपरा को और आगे बढ़ाया। जब मुगल सम्राट अकबर उनसे मिलने आए, तब उन्हें भी सभी लोगों के साथ पंक्ति में बैठकर लंगर खाना पड़ा था।
दसवें गुरु गुरु गोबिंद सिंह जी ने समानता, समावेशिता और सेवा के अभ्यास के रूप में ‘गुरु का लंगर’ परंपरा को सशक्त किया। उन्होंने विभिन्न जातियों और क्षेत्रों से पंज प्यारे बनाए और एक ही कटोरे में अमृत पिलाया और फिर स्वयं उनसे अमृत ग्रहण किया। इस तरह गुरु नानक देव जी द्वारा भूखे संतों को भोजन कराने से शुरू हुई यह परंपरा आज मानवता, सामाजिक न्याय और आध्यात्मिक संतुलन की मिसाल बन चुकी है।
आज सिख समुदाय की ‘लंगर’ परंपरा विशिष्ट और अद्वितीय है। गुरुद्वारों में हर रोज तीन बार लंगर परोसा जाता है। यह लंगर संगत द्वारा संगत के लिए तैयार किया जाता है। इसमें भाग लेने वाला हर व्यक्ति संगत का हिस्सा होता है। ‘गुरु का लंगर’ किसी व्यक्ति विशेष से जुड़ा नहीं होता, न ही यह किसी धनी व्यक्ति के दान या शासकीय अनुदान पर निर्भर होता है। इसे सामूहिक सेवा का कार्य माना जाता है। कोई भी व्यक्ति, चाहे उसका धर्म, जाति, लिंग या आर्थिक स्थिति कुछ भी हो, सेवा, धन, वस्त्र, खाद्यान्न या श्रमदान के रूप में योगदान कर सकता है। दान का लेखा-जोखा रखा जाता है, लेकिन किसी दानकर्ता के नाम को लंगर से जोड़ा नहीं जाता। इसकी पहचान एक सामुदायिक परंपरा के रूप में होती है, जो किसी भी प्रकार के ऊंच-नीच को नहीं दर्शाती।
फारसी ‘लंगर’ परंपरा मूलतः सूफियों या योगियों के विश्राम स्थल से संबंधित रही है, जहां ज़रूरतमंद लोग भी शामिल हो सकते थे, लेकिन इसमें सार्वजनिक समावेशिता नहीं थी। सिख परंपरा में ‘गुरु का लंगर’ पूर्णतः शाकाहारी होता है। यह भोजन गुरु ग्रंथ साहिब के नाम पर परोसा जाता है। लंगर में स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है। लोग इसे श्रद्धा और सेवा का प्रतीक मानते हैं।
‘गुरु का लंगर’ का अर्थ है— गुरु के नाम पर समर्पित भोजन, जो समुदाय द्वारा तैयार, परोसा और ग्रहण किया जाता है। यह गुरु और संगत के बीच की एकता को प्रकट करता है। सभी दान और सेवाएं गुरु और समुदाय के नाम पर की जाती हैं। ‘गुरु का लंगर’ एक अनोखी परंपरा है, जो भेदभाव से रहित है।
‘गुरु का लंगर’ प्राकृतिक आपदा, युद्ध या महामारी के समय राहत पहुंचाने का कार्य भी करता है। यह लोगों को मानसिक और सामाजिक संबल देता है। यह जीवन के दुख और सुख को स्वीकार करने की शक्ति भी प्रदान करता है।
लोगों की, लोगों द्वारा और लोगों के लिए की गई यह परंपरा भौगोलिक सीमाओं से परे एक सांस्कृतिक धरोहर है, जो निःसंदेह यूनेस्को की विश्व सांस्कृतिक विरासत सूची में शामिल किए जाने योग्य है।