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शोर की सुनामी और बहरा सिस्टम

04:00 AM Mar 21, 2025 IST
शोर की सुनामी और बहरा सिस्टम
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केदार शर्मा

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तेज आवाज़ आदिम युग से ही मनुष्य को कर्णप्रिय रही है, संगीत के मर्मज्ञ इसमें अपवाद हो सकते हैं। सो उनकी बात न ही करें तो अच्छा है। सुरसाधकों की सभा में भले ही उनके स्वरों के आरोह-अवरोह को पूछा जाता हो परंतु सड़क पर तो भरपूर आवाज में बजते डी.जे. के ड्रमपीटू लोक संगीत को ही पूजा जाता है। जिनके बोल भले ही कम समझ में आते हैं परंतु कान के पर्दे जरूर थर-थर थर्राते हैं।
भला हो विज्ञान के आविष्कारों का, जिन्होंने आवाज को शक्तिशाली बनाने के इस यंत्र को विकसित कर उसे सर्वसुलभ बना दिया है। डी.जे. साउंड सिस्टम ने जबसे अपना झंडा फहराया है, तब से नृत्य और गीत-संगीत का एक नया युग आया है। चमचमाती झालरदार यूनिफार्म पहने बैंड-बाजे वालों को इसने एक ओर खदेड़ कर चलन से पहले ही बाहर कर दिया है। वर्तमान में शादी, उत्सव, तीज-त्योहार, कथा-कीर्तन और प्रवचन सब डी.जे. साउंड सिस्टम के बिना अधूरे हैं।
भारत के गांवों-शहरों के जन-जन को इस सिस्टम का ऋणी होना चाहिए कि इसके आते ही संगीत के संदर्भ में बूढ़े भारत में नई जवानी आई है। जब अपने भरपूर वॉल्यूम में बजता भारी-भरकम स्पीकर पास से गुजरता है तो आदमी तो क्या मकानों के खिड़की-दरवाजे तक पस्त होकर थरथराने लगते हैं। संगीत की ऐसी सुनामी यदि बीच सड़क पर हो तो दोनों ओर के वाहन स्तंभित हो जाते हैं। अधबीच में फंसे बंदी पौं-पौं बचाते रहते हैं। अफवाह है कि डी.जे. साउंड सिस्टम से त्योहारों का मूल उद्देश्य गौण होता जा रहा है और नृत्य का नौरंग बढ़ता जा रहा है। गणेशोत्सव के बाद गणपति की विदाई हो, नवरात्र पर डांडिया तथा जन्माष्टमी पर भजन-कीर्तन हो या रामनवमी पर शोभायात्रा, हर जगह लॉरी के पीछे लदे बड़े-बड़े स्पीकरों की चिंघाड़ ड्रमपीटू संगीत पर नृत्य का कनफोड़ू अवसर लेकर ही आते हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं कि 85 डेसीबल से ज्यादा आवाज कानों के लिए हानिकारक है। पर डार्विन के विकासवाद पर भरोसा रखो जिसने कहा था कि उन्हीं जीवों का अस्तित्व कायम रहेगा जिन्होंने परिस्थितियों से संघर्ष कर अपने आप को अनुकूल बना लिया है। यही नियम कानों के संबंध में है। आज नहीं तो कल इन कानों को ही इस आवाज के अनुकूलित होना पड़ेगा। जो कान मजबूत होंगे वे ही बचे रहेंगे। इसलिए भाइयो! कानों को अनुकूलित करने पर पूरा ध्यान दो, न कि डी.जे. साउंड की वॉल्यूम कम करवाने पर। आम आदमी के कानों की सलामती के चक्कर में तो पुलिस महकमा और सरकारों के सिस्टम तक बहरे हो चुके हैं।

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