शत्रुता-मित्रता का आधार है स्थाई हित
भारत-पाक टकराव रोकने में मध्यस्थता के अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के दावों के साथ हाल की कई घटनाएं सबक देने वाली हैं। पहला ,राजनीति में दोस्ती नहीं, हित स्थाई होते हैं। वहीं शासक समर्थ है तो नीतिगत फैसलों पर सवाल नहीं उठते। ट्रंप अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की दिशा बदल रहे हैं। इसी तरह विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अफ़गान समकक्ष मुत्ताकी से फ़ोन पर बात की। तालिबान कैसे साधा, यह गाथा दिलचस्प है।
ज्योति मल्होत्रा
कुछेक दिन पहले हुए भारत-पाकिस्तान टकराव में अमेरिका द्वारा मध्यस्थता के दावों पर भारत के विदेश मंत्रालय की और से छह बिंदुओं वाला खंडन पत्र जारी करने के कुछ घंटों बाद ही,डोनाल्ड ट्रम्प ने छठवीं बार जोर देकर कहा कि बीच-बचाव उन्होंने ही करवाया है : ‘...और वैसे तो मैं बताना नहीं चाहता था कि मध्यस्थता मैंने की है, लेकिन पिछले सप्ताह पाकिस्तान और भारत के बीच समस्या को सुलझाने में निश्चित रूप से मैंने मदद की है, जो अधिक से अधिक शत्रुतापूर्ण होती जा रही थी’। उक्त कथन ट्रम्प ने गुरुवार को कतर स्थित अमेरिका के अल-उदीद एयरबेस पर सैनिकों को संबोधित करते व्यक्त किया, जो उनके खाड़ी दौरे का अंतिम पड़ाव था। आखिर में यह भी कह गए ः‘मैं आपको बता रहा हूं,मैं ही वह व्यक्ति हूं जिसने परमाणु युद्ध को टाला’।
अब या तो आप अविश्वास में अपनी आंखें गोल-गोल घुमाएं या फिर अमेरिकी राष्ट्रपति की बातों पर यकीन कर लें,जिसका मतलब बकौल उनके यह है कि उन हालात में एक शक्तिशाली तीसरे पक्ष की आवश्यकता थी – अर्थात वे स्वयं– जिसका प्रभाव भारत और पाकिस्तान, दोनों पर हो, ताकि वहां के लोगों को एक-दूसरे पर फिर से हमला करने और उनके बीच ‘1,000 साल से चले आ रहे युद्ध’ को जारी रखने से रोका जा सके।
लेकिन कहानी में तीन और सबक हैं। पहले का संकेत तब मिला, जब विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बीते गुरुवार शाम अफ़गानिस्तान में अपने समकक्ष यानि तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी से फ़ोन पर बात की। कोई नहीं जानता कि किसने किसको फ़ोन किया, लेकिन विदेश मंत्रालय ने यह ज़रूर बताया कि जयशंकर ने पहलगाम नरसंहार को लेकर मुत्ताकी द्वारा की गई निंदा की सराहना की है।
पहली (अंतिम तीन में से) सीख यह नहीं कि जयशंकर और मुत्ताकी ने वास्तव में एक-दूसरे से बात की– यहां गौरतलब है दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के एक नेता ने एक ऐसे व्यक्ति से बात की जिसकी सरकार को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता तक नहीं, वह तो केवल एक शासन का प्रतिनिधि है - या फिर उन्होंने जानबूझकर यह खुले तौर पर किया।
यहां सबक यह कि भारत ने इस बात की कोई परवाह नहीं की कि उसी तालिबान से बात करने के लिए आलोचना की जाएगी या नहीं, जिसने 15 अगस्त, 2021 को दूसरी बार सत्ता में आने से पहले, और उसके बाद से, हरेक नियम का सब तरह से उल्लंघन किया। सच तो यह कि जयशंकर ने तो इस मामले में ट्रंप का ही अनुसरण किया। वो यह कि अगर आपके अंदर सत्ता में टिके रहने की क्षमता है, तो आपके अपने विचारों में बदलावों के साथ-साथ देश की स्थापित नीतियों की दिशा बदलने की आपकी मूर्खता को भी माफ़ कर दिया जाएगा।
जरा ट्रंप को देखें। वह अपने देश के कट्टर दुश्मन व्लादिमीर पुतिन के साथ अच्छा व्यवहार कर रहे हैं; बीते हफ़्ते की शुरुआत में उन्होंने रियाद में अल-कायदा के सबसे नए सहयोगी से हाथ मिलाया, जिसका शासन इन दिनों सीरिया पर है; और कट्टरपंथी इस्लामवादी मुस्लिम ब्रदरहुड समूह के गढ़ कतर में,उन्होंने सभी संकेतों को नज़रअंदाज़ कर दिया क्योंकि अल-थानी के शेखों ने उनकी भव्य अगवानी की, इसमें अमेरिकी राष्ट्रपति के इस्तेमाल के लिए उपहार में दिया 400 मिलियन डॉलर का विमान भी शामिल है।
यहां तक कि जब कतर के व्यापारियों को संबोंधित करते हुए अपना यह ऐतराज जताया कि एप्पल के सीईओ टिम कुक भारत में आईफोन बनाने जा रहे हैं (‘मैंने उनसे कहा, मेरे दोस्त, मैं आपके साथ बहुत अच्छा व्यवहार कर रहा हूं... लेकिन अब सुना है कि आप भारत में आईफोन बनाने ज रहे हैं। मैं नहीं चाहता कि आप भारत में उत्पादन करें...’), तो भारत ने इस पर प्रतिक्रिया न देकर सरासर नज़रअंदाज़ किया। इसकी बजाय, भारतीयों ने एप्पल के अधिकारियों का रुख किया, जिन्होंने आश्वासन दिया है कि कुक वास्तव में भारत में कारखाना स्थापित करने की अपनी योजना को जारी रखेंगे।
पुराने दौर में, अगर अमेरिकी राष्ट्रपति जैसा कोई शक्तिशाली व्यक्ति ऐसी बातें कह देता तो भारत परेशान हो जाता। लेकिन चीन और अमेरिका जैसी कहीं ज़्यादा शक्तिशाली अर्थव्यवस्थाओं के सामने,भारत अपनी स्थिति को संभालना सीख रहा है, वे दोनों अपने-अपने टैरिफ़ को कम करने के लिए आपस में सौदेबाजी कर रहे हैं – और इस निर्णय का असर भारत के निर्यात पर पड़ना लाजिमी है। तथ्य यह कि, गत सप्ताह, भारत ने राजनीति की सबसे पुरानी कहावत से फिर से सीखा है–‘न तो कोई स्थायी दोस्त होता है न ही दुश्मन, यह केवल अपने हित हैं, जो स्थायी होते हैं’। बीते दिन के अख़बार की तरह, जो अगले दिन रद्दी बन जाता है, पिछले हफ़्ते के पक्के दोस्त आज दूर के रिश्तेदार हो सकते हैं। इसलिए ‘अब की बार ट्रम्प सरकार’ किसी और ही सदी का नारा था। आज की सुरक्षा आपके पाले में एप्पल जैसों के आने से बनेगी, क्योंकि वह कंपनी इतनी शक्तिशाली है कि ट्रम्प के पास टिम कुक को अपने पक्ष में रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं। जहां तक ट्रम्प द्वारा भारत और पाकिस्तान के बीच ‘मध्यस्थता’ का श्रेय लेने की बात है, वैसे तो अब न्यूयॉर्क टाइम्स भी मान रहा है कि हमलों में भारत ने पाकिस्तानी ठिकानों को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया है। जहां तक पाकिस्तान द्वारा इस संघर्ष में अपनी ‘जीत’ का जश्न मनाने का प्रश्न है, तो शायद न तो ट्रम्प ने और न ही पाकिस्तानियों ने नज़रअंदाज़ किया है कि 11 पाकिस्तानी ठिकानों को भारतीय मिसाइलों ने बींध दिया। इसी वजह से पाकिस्तानियों ने अमेरिकी राष्ट्रपति का रुख किया और उनसे लड़ाई बंद करवाने की गुहार लगाई। या, हो सकता है, ट्रम्प ने खुद से इस पर गौर किया हो– हालांकि अब वे किसी और चीज़ में व्यस्त हो चुके हैं, फिलहाल नए जन्मे पोते का जश्न मना रहे हैं।
तीसरी सीख यह है कि सत्ता में अपने तीन महीनों में, ट्रम्प ने आधी दुनिया को सफलतापूर्वक नाराज़ कर डाला है। तथ्य है कि चीन को जलाकर राख करने के अपने वादे-इरादे से वे मुकर गए हैं क्योंकि उनकी अपनी अमेरिकी कंपनियों का विशाल कारोबार चीन में है, जिनसे वे काफी मुनाफ़ा कमाते हैं, अवश्य ही उन्होंने यह समझाया होगा कि चीन पर उच्च टैरिफ केवल अमेरिकी ग्राहकों को ही नुकसान पहुंचाएगा - यह दर्शाता है कि जब आप शक्तिशाली हों, तो हल्की बातें भी चल निकलती हैं।
जहां तक जयशंकर-मुत्ताकी बातचीत का प्रश्न है, वास्तव में यह संवाद ऑपरेशन सिंदूर के अंत के करीब हुआ है या कहें कि ऐसे मौके पर जब पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के बीच पिछले कुछ समय से खंजर खिंचे हुए हैं, जो किसी से छिपा नहीं है। वास्तव में, भारत पिछले कुछ समय से तालिबान को डोरे डालने की कोशिशें कर रहा है, लगभग उसी समय से जब उसने 2021 में भारत की स्वतंत्रता दिवस की वर्षगांठ के दिन काबुल पर कब्ज़ा कर लिया था। एक साल बाद काबुल की अपनी यात्रा पर, यह स्पष्ट दिखा कि तालिबान के किसी समय अपने उस्ताद और संरक्षक यानि पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान के साथ रिश्ते बिगड़ चुके हैं। यह कहानी कि आईएसआई ने तालिबान पर किस प्रकार पकड़ बनाई और उसका तब तक पोषण किया, जब तक पश्चिमी मुल्कों ने 9/11 के बाद अफगानिस्तान पर कब्जा नहीं कर लिया था, यह कि कैसे आईएसआई ने 20 साल तक इसका खूब फायदा उठाया और उसके बाद तालिबान को अमेरिकियों और उसके नाटो सहयोगियों से देश वापस छीनने में मदद की – यह किस्सा फिर किसी वक्त के लिए।
गत सप्ताह के बड़े खेल में, जबकि सतलुज के पानी की भांति ट्रंप अपना बहाव नित बदल रहे हैं और शेष दुनिया उसके मुताबिक खुद को पुनर्व्यवस्थित करने में जुटी है – भारत ने तालिबान को कैसे अपनी तरफ किया, यह गाथा शायद ज्यादा दिलचस्प है।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।