वोट की राजनीति न हो राष्ट्रीय मुद्दों पर
शौर्य के लिए जहां हमारी सेना प्रशंसा की अधिकारी है, वहीं देश के नेतृत्व को भी उसके हिस्से का यश मिलना चाहिए। पर जिस तरह से सरकार इस यश को भुनाने की कोशिश कर रही है, उससे सवाल उठने स्वाभाविक हैं।
विश्वनाथ सचदेव
ऑपरेशन सिंदूर अभी समाप्त नहीं हुआ, स्थगित हुआ है। स्थगित होने का नया मतलब है, यह समझना यदि मुश्किल नहीं है तो आसान भी नहीं है। फिर भी, पहलगाम में हुई अमानुषिक आतंकवादी कार्रवाई के विरोध में जिस तरह सारा देश एक होकर उठ खड़ा हुआ और जिस तरह विपक्ष ने सरकार को पूरा समर्थन दिया, उससे राष्ट्र की एकता और ताकत का अहसास तो हो ही जाता है। जहां तक राष्ट्र की सुरक्षा का सवाल है, यह एकता भरोसा देने वाली है। यह मुद्दा राजनीति का कतई नहीं है। पहले भी जब-जब ऐसी स्थितियां आई हैं, सारे देश ने एक होकर दुश्मन का मुकाबला किया है, उसे धूल चटायी है। आगे भी यदि कभी स्थितियां बनती हैं तो निश्चित रूप से देश एक होकर खड़ा होगा, इसमें संदेह नहीं करना चाहिए।
लेकिन, राजनीति की एक विवशता यह भी है कि राजनीतिक स्वार्थ अक्सर राष्ट्रीय हितों पर हावी हो जाते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि इस स्थिति से बचने के प्रति सजग रहा जाये। यहीं गड़बड़ हो रही है। जहां समूचा विपक्ष ऑपरेशन सिंदूर की सफलता के लिए राष्ट्र की एकता को रेखांकित कर रहा है, वहीं सरकार इसका राजनीतिक लाभ उठाने के लालच से बच नहीं पा रही। हालांकि आतंकवाद के विरुद्ध जारी की गयी यह लड़ाई अभी पूरी नहीं हुई है, ऑपरेशन सिंदूर सिर्फ स्थगित हुआ है, पर इसे सफलता घोषित करके उसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश भी स्पष्ट दिखाई दे रही है। ऐसा नहीं होना चाहिए था, पर हुआ है तो इसके बारे में बात भी होगी। और बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी...
इस बारे में कुछ और कहने से पहले इस बात को स्वीकार किया जाना ज़रूरी है कि पहलगाम के काण्ड की सज़ा देने के लिए हमारी सेना ने पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों के ठिकानों को जिस तरह से ध्वस्त किया है, उसकी सिर्फ प्रशंसा ही की जा सकती है। ऐसा नहीं है कि इसके अलावा और कुछ किया ही नहीं जा सकता था, अथवा किया ही नहीं जाना चाहिए था, पर जो कुछ हुआ उसकी महत्ता को स्वीकार करना ही चाहिए। इस शौर्य के लिए जहां हमारी सेना प्रशंसा की अधिकारी है, वहीं देश के नेतृत्व को भी उसके हिस्से का यश मिलना चाहिए। पर जिस तरह से सरकार इस यश को भुनाने की कोशिश कर रही है, उससे सवाल उठने स्वाभाविक हैं।
सरकार की इस कार्रवाई की शुरुआत तो ‘ऑपरेशन’ के नामकरण के साथ ही हो गयी थी। निश्चित रूप से, किसी भी राजनीतिक दल में राजनीतिक लाभ उठाने की लालसा तो होती ही है, पर भाजपा में ऐसा हर लाभ प्रधानमंत्री के खाते में जमा करने की प्रवृत्ति एक प्रतियोगिता का रूप ले चुकी है। शायद इसीलिए, इस बात को प्रचारित करना ज़रूरी समझा गया कि कार्रवाई के नाम के साथ सिंदूर जोड़ने का आइडिया स्वयं प्रधानमंत्री का था। हो सकता है यह सही भी हो, पर सामान्यता ऐसी सैनिक कार्रवाइयों का नामकरण सेना के सम्बंधित विभाग ही करते हैं। यहां सच्चाई कुछ भी हो, भाजपा ने सिंदूर के साथ जुड़ी भावनाओं का राजनीतिक लाभ उठाने में कोई देरी नहीं की।
अपनी रगों में खून की जगह ‘गर्म सिंदूर’ बहने की बात कहकर जैसे प्रधानमंत्री ने अपने समर्थकों को आगे बढ़ने का एक रास्ता दिखा दिया था। देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रधानमंत्री की जय-जयकार के लिए सभाओं और ‘रोड शो’ का आयोजन हो रहा है। प्रधानमंत्री अच्छी तरह समझते हैं कि ‘चुटकी भर सिंदूर’ की कीमत कितनी होती है। इसीलिए उन्होंने रगों में सिंदूर बहने वाली बात कही थी। वे यहीं तक नहीं रुके। देश भर में उनके भक्तों ने ऑपरेशन सिंदूर की सफलता का जश्न मनाने की योजना बना ली। देश की महिलाओं को ‘सिंदूर’ बांटने की योजना भी बन गयी, ऐसा कहा जाता है। इस आशय का समाचार जब मीडिया में आया तो इसकी आलोचना भी खूब हुई। भाजपा ने शायद सोचा था कि पिछले चुनाव में जिस तरह प्रधानमंत्री ने कांग्रेस द्वारा ‘आपका मंगलसूत्र छीनकर दूसरों को देने की बात’ कहकर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की थी, वैसा ही लाभ सिंदूर वाली बात से भी लिया जा सकेगा। पर इस बार दांव कुछ उल्टा पड़ता दिखा। फिर भाजपा की ओर से सिंदूर बांटने की किसी भी योजना से इनकार वाला समाचार आया। पर चर्चा इस बात की है कि इस इनकार के लिए भाजपा को पूरे ढाई दिन क्यों लगे? भाजपा का आईटी सेल अचानक इतना धीमा कैसे हो गया? जिस समाचार पत्र ने यह समाचार छापा था उसने भी खेद प्रकट करने में पूरा समय लिया। आखिर क्यों?
इस क्यों का उत्तर कोई नहीं दे रहा। अब न भाजपा यह मानने को तैयार है कि उसके ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का यह सिंदूर बांटने वाला हिस्सा राजनीतिक भूल थी, और न ही विपक्ष भाजपा को नीचा दिखाने वाला यह मौका सहज ही गंवाना चाहता है।
बिहार का चुनाव अभी पांच-छह महीने दूर है। भाजपा यह उम्मीद कर सकती है कि तब तक उसकी यह सिंदूर बांटने वाली चूक मतदाता भूल जायेगा। पर यह सवाल अपनी जगह है कि हमारे राजनेता अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए जनता की भावनाओं के साथ कब तक खेलते रहेंगे? और सवाल यह भी है कब तक जनता इस खिलवाड़ का शिकार बनती रहेगी? होना तो यह चाहिए था कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई के रूप में ही समझा-स्वीकारा जाता, पर इसे माताओं-बहनों के माथे के सिंदूर की गरिमा और पवित्रता से जोड़कर सांस्कृतिक-धार्मिक प्रतीकवाद का हिस्सा बना दिया गया। हर संभव मुद्दे का राजनीतिक लाभ उठाने की भूख ने हमारी राजनीति को सरकारें बनाने-बिगाड़ने तक सीमित कर दिया है!
पहलगाम में आतंकवाद के नंगे नाच के माध्यम से देश में अलगाव की आग को हवा देने की कोशिश की गयी थी। इस कोशिश को निरर्थक बनाने का एक अभियान था हमारा ऑपरेशन सिंदूर। वह कितना सफल रहा और कहां हमारी कमियां रह गयीं, इसकी तहकीकात होनी ही चाहिए। हमारे रक्षा प्रमुख (सीएसडी) ने कहा है, ‘युद्ध में नुकसान होते ही हैं, क्या नुकसान हुआ से महत्वपूर्ण यह जानना है कि नुकसान क्यों हुआ, उससे कैसे बचा जा सकता है।’ उनकी इस बात की गंभीरता को समझा जाना ज़रूरी है। उनकी कही बात यह भी स्पष्ट कर देती है कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में कुछ नुकसान तो हमारा हुआ ही है। इसे छिपाने की कोई आवश्यकता नहीं है।
हां, आवश्यकता इस बात की ज़रूर है कि मंगलसूत्र या सुहाग के सिंदूर जैसे मुद्दों को राजनीतिक हितों की पूर्ति का माध्यम न बनाया जाये। इन प्रतीकों की सांस्कृतिक और धार्मिक महत्ता के साथ कोई खिलवाड़ नहीं होना चाहिए। इन्हें राजनीति का हथियार बनाकर यदि कुछ प्राप्त किया जाता है तो उसकी कीमत बहुत भारी होगी।
प्रधानमंत्री ने सही कहा है कि पहलगाम में आतंकियों ने भारत का खून ही नहीं बहाया, हमारी संस्कृति पर भी हमला किया है। पर ऑपरेशन सिंदूर को घर-घर सिंदूर पहुंचाने की कवायद में बदलना भी अपने आप में संस्कृति पर हमला है। अच्छा है भाजपा ने इस खबर को ‘फेक’ कह दिया है, पर यह सवाल तो हवा में है ही कि सिंदूर जैसी चीज़ के साथ जुड़ी भावनाओं और पवित्रता को राजनीति से जोड़ने की कोशिश ही क्यों होती है? राजनीति से जुड़े सभी पक्षों को हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को आदर देना होगा। शुचिता के लिए कोई स्थान तो होना चाहिए हमारी राजनीति में!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।