वेदों का सार, आत्मा का आधार
गायत्री जयंती, ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को मनाया जाने वाला पर्व है, जिसे माता गायत्री के जन्मोत्सव के रूप में सनातन धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है। यह दिन गायत्री मंत्र की महिमा और ज्ञान की देवी के रूप में माता गायत्री की आराधना का पर्व माना जाता है।
चेतनादित्य आलोक
हिंदू पंचांग के अनुसार प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देश भर में गायत्री जयंती मनाई जाती है। सनातन धर्म के मानने वाले इस दिन को माता गायत्री के जन्मोत्सव के रूप में मनाते हैं। हालांकि, भारत के दक्षिणी राज्यों में ‘गायत्री जयंती’ का आयोजन ‘सावन पूर्णिमा’ के दिन उत्सव के रूप में किया जाता है। दक्षिण भारत के इस आयोजन में स्वच्छता एवं पवित्रता का पूरा ध्यान रखा जाता है। गायत्री जयंती के दिन गंगा नदी में स्नान करने का विशेष महत्व होता है। यदि गंगा नदी में स्नान करना संभव न हो तो जल के पात्र में थोड़ा-सा गंगा जल मिलाकर स्नान करना चाहिए। गायत्री जयंती के दिन माता गायत्री की विशेष पूजा-अर्चना करने का विधान है, जिसके बाद गायत्री मंत्र का जाप करना उत्तम होता है।
धरती पर अवतरण
माना जाता है कि सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी पर गायत्री मंत्र प्रकट हुआ। माता गायत्री की कृपा से ब्रह्मा जी ने गायत्री मंत्र की व्याख्या अपने चारों मुखों से चार वेदों के रूप में की। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, आरंभ में गायत्री सिर्फ देवताओं तक ही सीमित थीं। इसलिए सिर्फ वे ही इनका उपयोग कर सकते थे, लेकिन जिस प्रकार, भगीरथ अपने अत्यंत कठोर तप के बल पर मां गंगा को स्वर्ग से धरती पर लाए थे, उसी प्रकार, महर्षि विश्वामित्र ने भी अपनी अत्यंत कठोर साधना के प्रताप से माता गायत्री की महिमा अर्थात् गायत्री मंत्र को सर्वसाधारण के लिए सुलभ बनाने का कार्य किया था।
ज्ञान से भरा स्वरूप
माता गायत्री का स्वरूप ज्ञान से भरा हुआ है। शास्त्रों में इनके पांच सिर दर्शाए गए हैं, जिनमें से चार सिर चार वेदों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि इनका पांचवां सिर सर्वशक्तिमान ईश्वर का प्रतिनिधित्व करता है। ‘शारदा तिलक’ में गायत्री के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है- ‘गायत्री पंचमुखा हैं। यह कमल पर विराजमान होकर रत्न-हार-आभूषण धारण करती हैं। इनके दस हाथ हैं, जिनमें शंख, चक्र, कमलयुग्म, वरद, अभय, अंकुश, उज्ज्वल पात्र और रुद्राक्ष की माला आदि है। पृथ्वी पर जो मेरु नामक पर्वत है, उसकी चोटी पर इनका निवास स्थान है। सुबह, दोपहर और शाम को इनका ध्यान करना चाहिए। रुद्राक्ष की माला से ही इनका जाप करना चाहिए।’
शक्ति की परिचायिका
ऋग्वेद के अनुसार, प्रातःकाल में माता गायत्री सूर्यमण्डल के मध्य में विराजमान रहती हैं। उस समय इनके शरीर का रंग लाल रहता है और ये अपने दो हाथों में अक्षसूत्र और कमण्डल धारण किए हुए रहती हैं। माता गायत्री के इस स्वरूप का वाहन हंस होता है। माता गायत्री का यह स्वरूप ब्रह्मशक्ति गायत्री के नाम से शास्त्र प्रसिद्ध है। वहीं, यजुर्वेद के अनुसार, मध्याह्न काल में माता का युवा स्वरूप होता है। तब इनकी चार भुजाएं और तीन नेत्र होते हैं। ये अपने चारों हाथों में क्रमशः शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए रहती हैं। उस समय इनका वाहन गरुड़ होता है। माता गायत्री का यह स्वरूप ‘वैष्णवी शक्ति’ का परिचायक है। शास्त्रों में इस स्वरूप को ‘सावित्री’ के नाम से विभूषित किया गया है। इसी प्रकार, सामवेद के अनुसार, सायंकाल में गायत्री की अवस्था वृद्धा मानी गई है। माता गायत्री के इस स्वरूप का वाहन वृषभ होता है तथा इनके शरीर का वर्ण शुक्ल होता है। ये अपने चारों हाथों में क्रमशः त्रिशूल, डमरू, पाश और पात्र धारण करती हैं। स्पष्ट है कि माता का यह स्वरूप ‘रुद्र शक्ति’ का परिचायक होता है।
‘ज्ञान-गंगा’ हैं गायत्री
सृष्टि में मौजूद ‘ज्ञान’ के चार भेद अथवा क्षेत्र होते हैं- ऋक्, यजुः, साम और अथर्व। इनमें ऋक् कल्याण, यजुः पौरुष, साम क्रीड़ा तथा अथर्व अर्थ का प्रतीक बताया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो ऋक्, यजुः, साम और अथर्व क्रमशः कल्याण, पौरुष, क्रीड़ा एवं अर्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह शास्त्र सम्मत है कि संपूर्ण सृष्टि में पाए जाने वाले सभी प्राणियों की समस्त ज्ञान-धारा तथा समष्टि की समस्त चेतना ज्ञान के इन्हीं चारों क्षेत्रों में परिभ्रमण करती रहती हैं। उपर्युक्त चारों प्रकार के ज्ञान को ही शास्त्रों में वेदों के रूप में अभिहित किया गया है। शास्त्र बताते हैं कि हमारे चारों वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि के आरंभ में उत्पन्न की गयी उस महान चैतन्य शक्ति के स्फुरण से प्रकट हुए थे, जिन्हें ऋषि, महर्षि और ज्ञानीजन ‘गायत्री’ के नाम से संबोधित करते हैं। तात्पर्य यह कि ब्रह्मा जी के मुख से ‘गायत्री मंत्र’ निःसृत हुआ और गायत्री मंत्र से वेदों की उत्पत्ति हुई। इसीलिए इनकी पूजा-अर्चना और आराधना करने से मनुष्य को सभी प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति होती है। वास्तव में इन्ही विशेषताओं के कारण शास्त्रों में इन्हें ‘ज्ञान-गंगा’ की उपाधि से भी विभूषित किया गया है।
गायत्री मंत्र की महिमा
ज्ञान के चतुर्थ भेद ‘अथर्व’ का प्रतिनिधित्व करने वाले ‘अथर्ववेद’ में माता गायत्री की स्तुति करते हुए उन्हें आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन एवं ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली ‘देवी’ बताया गया है। हमारे शास्त्रों, ऋषि-मुनियों एवं महापुरुषों ने गायत्री मंत्र की बड़ी महिमा गाई है। महर्षि विश्वामित्र का कथन है, ‘गायत्री के समान चारों वेदों में कोई मंत्र नहीं है। संपूर्ण वेद, यज्ञ, दान, तप आदि गायत्री मंत्र की एक कला के समान भी नहीं हैं।’