विश्वविद्यालयों में बदलाव की अर्थपूर्ण पहल
जेएनयू द्वारा ‘कुलपति’ के स्थान पर ‘कुलगुरु’ पदनाम अपनाना केवल भाषाई परिवर्तन नहीं, बल्कि भारतीय शिक्षा प्रणाली में गुरु-शिष्य परंपरा, नैतिक मूल्यों और सांस्कृतिक चेतना को पुनर्जीवित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है।
डॉ. सुधीर कुमार
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की कुलपति द्वारा अपने पदनाम को ‘कुलपति’ से बदलकर ‘कुलगुरु’ करने का निर्णय शिक्षा जगत में एक विचारणीय पहल है। यह सिर्फ एक शब्द का बदलाव नहीं, बल्कि इसके पीछे भारतीय ज्ञान परंपरा, शैक्षणिक मूल्यों और गुरु-शिष्य परंपरा को पुनः स्थापित करने की सोच निहित है। इस कदम पर व्यापक चिंतन की आवश्यकता है।
‘कुलपति’ शब्द ‘कुल’ (परिवार या समुदाय) और ‘पति’ (स्वामी या मुखिया) से मिलकर बना है। यह प्रशासनिक अधिकार और स्वामित्व का बोध कराता है। इसमें सम्मान और अधिकार का भाव तो है, लेकिन शिक्षा और मार्गदर्शन का उतना नहीं। ‘कुलगुरु’ शब्द का मूल संस्कृत में है, और यह ‘कुल’ (परिवार/समूह) और ‘गुरु’ (शिक्षक/मार्गदर्शक) से मिलकर बना है। यह शब्द न केवल प्रशासनिक प्रमुखता को दर्शाता है, बल्कि इससे कहीं अधिक, यह ज्ञान, मार्गदर्शन, नैतिक नेतृत्व और छात्रों के प्रति पितृतुल्य स्नेह की भावना को भी समाहित करता है। ‘कुलगुरु’ वह होता है जो अपने कुल के सदस्यों को ज्ञान के मार्ग पर ले जाता है, उनके आध्यात्मिक और बौद्धिक विकास में सहायता करता है। एक विश्वविद्यालय केवल डिग्रियां बांटने वाली संस्था नहीं, बल्कि ज्ञान का मंदिर और छात्रों के व्यक्तित्व निर्माण का केंद्र होता है, और शिष्य -परंपरा के प्रति गहन प्रतिबद्धता को भी समाहित करता है।
स्पष्ट है कि ‘गुरु’ शब्द में जो सम्मान, त्याग, ज्ञान और परोपकार का भाव निहित है, वह ‘पति’ शब्द में नहीं। एक विश्वविद्यालय का प्रमुख केवल उसका प्रशासक नहीं होना चाहिए, बल्कि उसका ‘गुरु’ होना चाहिए, जो छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों को ज्ञान, नैतिकता और समग्र विकास के मार्ग पर प्रेरित करे।
नि:संदेह, विश्वविद्यालयों के प्रमुखों के लिए ‘कुलगुरु’ की उपाधि ‘कुलपति’ से कहीं अधिक उपयुक्त और श्रेष्ठ है। यह एक प्रतीकात्मक बदलाव हो सकता है, लेकिन इसका गहरा मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक प्रभाव पड़ेगा। यह विश्वविद्यालय के प्रमुख को केवल एक प्रबंधक नहीं, बल्कि एक मार्गदर्शक, एक संरक्षक और एक ज्ञानी व्यक्ति के रूप में स्थापित करेगा जो अपने ‘कुल’ के सभी सदस्यों के प्रति जिम्मेदार है। हां, यह बदलाव रातों-रात नहीं होगा और इसके लिए गहन विचार-विमर्श और सर्वसम्मति की आवश्यकता होगी।
देश के विश्वविद्यालय को इस बदलाव पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। यह केवल एक भाषाई बदलाव नहीं, बल्कि एक वैचारिक बदलाव है जो भारतीय शिक्षा प्रणाली को उसकी मूल भावना से जोड़ सकता है। अन्य विश्वविद्यालयों द्वारा ‘कुलपति’ के स्थान पर ‘कुलगुरु’ की उपाधि अपनाना एक सकारात्मक और दूरगामी कदम होगा। यह बदलाव विश्वविद्यालय के प्रमुख की भूमिका को केवल प्रशासनिक मुखिया से ऊपर उठाकर एक नैतिक और शैक्षणिक मार्गदर्शक के रूप में स्थापित करेगा, जिससे भारतीय गुरु-शिष्य परंपरा का पुनरुद्धार होगा। यह हमारी संस्कृति और मूल्यों के प्रति सम्मान का प्रतीक भी बनेगा।
हालांकि, यह भी समझना आवश्यक है कि केवल पदनाम बदलने से रातों-रात बदलाव नहीं आ जाएगा। ‘कुलगुरु’ की उपाधि को सार्थक बनाने के लिए कुलपति को वास्तव में गुरु की भूमिका निभानी होगी- छात्रों के साथ संवाद स्थापित करना, उनकी समस्याओं को समझना, उन्हें अकादमिक और व्यक्तिगत रूप से मार्गदर्शन करना, और विश्वविद्यालय के शैक्षणिक उत्थान के लिए प्रतिबद्ध रहना। यह बदलाव एक प्रतीकात्मक शुरुआत है, जिसका वास्तविक प्रभाव तब दिखेगा जब यह भावना विश्वविद्यालय के संपूर्ण कार्यप्रणाली में प्रतिबिंबित होगी।
भारतीय परंपरा में गुरु का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। गुरु केवल पाठ्यक्रम नहीं पढ़ाता, बल्कि वह छात्रों को जीवन के मूल्यों, नैतिकता और सही-गलत का ज्ञान भी देता है। ‘कुलगुरु’ के रूप में, कुलपति की भूमिका केवल विश्वविद्यालय के प्रशासनिक कार्यों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि वह छात्रों और शिक्षकों के लिए एक प्रेरणास्रोत, एक संरक्षक और एक ज्ञानी मार्गदर्शक भी बन जाता है। यह बदलाव एक ऐसे माहौल को बढ़ावा दे सकता है जहां छात्र अपने ‘कुलगुरु’ के प्रति अधिक सम्मान और विश्वास महसूस करें, जिससे एक स्वस्थ और सहयोगात्मक शैक्षणिक वातावरण का निर्माण होगा।
नि:संदेह, ‘कुलगुरु’ का पदनाम हमें याद दिलाएगा कि विश्वविद्यालय का मुखिया केवल एक प्रशासक नहीं, बल्कि एक ऐसा व्यक्ति है जो ज्ञान के प्रकाश से छात्रों के जीवन को रोशन करता है। यह एक ऐसा परिवर्तन है जो न केवल भारतीय शिक्षा प्रणाली को मजबूत करेगा, बल्कि उसे उसकी गौरवशाली परंपरा से भी जोड़ेगा। जेएनयू ने एक सराहनीय शुरुआत की है, और अब अन्य विश्वविद्यालयों की बारी है कि वे इस महत्वपूर्ण विचार को अपनाकर शिक्षा के क्षेत्र में एक नए युग की शुरुआत करें।
लेखक कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के विधि विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं।