विवाह की वर्षगांठ
‘रोते नहीं। क्यों रो रही हो? तुम ही कहो, हम-सा सुखी कोई है? सुख तो मन में होता है, है न? और आज तो...।’ ‘हां, सत्रह बैशाख।‘ ‘अन्यथा पोस्त खरीदता मैं? अस्सी-सौ रुपये किलो। मीठा पान...।’ सुनयनी आंखें पोंछती है। फिर कांपते स्वर में कहती है, ‘दुःख नहीं है, बल्कि इतना सुख सहन नहीं हो पा रहा है। आंखों से आंसू उमड़ ही पड़ते हैं।’
महाश्वेता देवी
प्रातः होते ही तापस बाबू सुनयनी से बोले, ‘आज एक विशेष दिन है, याद है न तुम्हें?’
‘अच्छी तरह। क्या मैं आज का दिन भूल सकती हूं भला?’
‘तुम्हारी उम्र पन्द्रह और मेरी पच्चीस...।’
तापस बाबू की मुस्कुराती आंखें अपनी पत्नी के चेहरे पर टिकी हुई हैं। आंखों में मोतियाबिंद उतर आया है। धुंधला ही देख पाते हैं। संभवतः इसीलिए सुनयनी को गौर से देख रहे हैं।
‘क्या देख रहे हैं?’
‘पचपन वर्ष की वृद्धा को नहीं, पंद्रह वर्ष की युवती को देख रहा हूं।’
‘सचमुच हमारा विवाह भी एक कहानी की तरह था।’ दोनों परस्पर एक-दूसरे को देखे जा रहे थे।
उन दिनों तापस बाबू कानखुली के नये मोहल्ले के एक हाई स्कूल में बतौर अध्यापक नियुक्त हुए थे। गांव में रहने की व्यवस्था न हो पायी तो प्रधानाध्यापक ने सुनयनी के मामा के घर में उनके ठहरने की व्यवस्था कर दी। वहां पंद्रह वर्ष की स्वस्थ, सुंदर युवती ने पहली बार उनकी ओर भोजन का थाल बढ़ाते हुए कहा था, ‘जो कुछ चाहिए हो, मुझसे कह दिया कीजिएगा।’
यही पहली मुलाकात थी सुनायनी से उस बैशाख के दिन। अगली बैशाख में सुनयनी का विवाह निश्चित हुआ। तापस के मन-मस्तिष्क में विवाह की कोई तस्वीर अब तक नहीं उभरी थी। बस अध्यापन में डूबे रहना। उस कम उम्र में पढ़ने-पढ़ाने से अधिक सोच भी क्या सकते थे? पर विवाह हो ही गया। घटना कुछ यों घटी। बारात पहुंचते ही वर के पिता को दिल का दौरा पड़ा। इधर उन्हें चुंचुड़ा अस्पताल ले जाया गया और उधर वर के चाचा कह उठे, ‘लड़की अपशकुन है। अब यह विवाह नहीं होगा।’
बहुत मान-मनौवल, रोष-क्रोध हुआ। यहां तक कि गांव के लोगों ने वर पक्ष पर हाथ भी उठा दिया। अंततः सुनयनी के मामा ने आकर तापस के पांव पकड़े, ‘अब तो तुम ही सर्वनाश से सुनि की रक्षा कर सकते हो।’
इस प्रकार दूसरे लग्न में तापस सुनयनी के साथ विवाह-बंधन में बंध गए। सुहाग की रात उसी घर में कटी। तापस ने उस रात कहा था, ‘रेल-कर्मचारी के घर जाती, देश-देश घूमती, वह तो हो नहीं पाया।’
प्रत्युत्तर में सुनयनी बोली, ‘भाग्य में शिक्षक की गृहस्थी जो संभालनी थी। भाग्य तो बदला नहीं जा सकता न।’
आज वही सत्रह बैशाख है। इन चालीस वर्षों में तापस और सुनयनी के जीवन में न जाने कितने उतार-चढ़ाव आए। कोलकाता की इस उपनगरी में मकान बनाकर तापस बाबू स्वयं को सिंह-पुरुष समझने लगे थे। गांव की पाठशाला से शहर में आए, ट्यूशन पढ़ाना आरंभ किया और नोट-बुक भी तैयार करते रहे। इस तरह अपने बच्चों का पालन-पोषण किया, बेटी ब्याही।
उनके बेटे बड़े होंगे, अच्छी नौकरियों में लगेंगे परंतु फ्लैट खरीदकर यहां से चले जाएंगे, ऐसा उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था। इसके अलावा बेटी मोहल्ले के एक थिएटर-अभिनेता से विवाह कर उसकी पत्नी बनेगी और वे साल्ट-लेक में मकान बनाकर रहेंगे, ऐसा भी नहीं सोचा था।
यह भी कभी नहीं सोचा था कि ऐसे भी दिन आएंगे जब घर में पढ़ाकर बैठे-बैठे आठ-दस हजार की आय हो जाया करेगी। असल में जब उन्होंने अपने जीवन की शुरुआत की थी, तब हवा में पैसे की गंध-मात्र तक नहीं थी। जब पैसे की गंध अध्यापकों के नाक तक जा पहुंची, तब से यह धंधा पनपा। सुनयनी ने कहा था, ‘क्या है, अवकाश ले लीजिए, पेंशन तो मिलेगा ही।’
‘वह तो सामान्य-सा मिलेगा।’
‘उतना ही यथेष्ट होगा। भविष्य-निधि के पैसे से दो कमरे बनाकर उसे किराये पर दे देंगे।’
‘पता नहीं, बेटों को कैसा लगेगा? कभी-कभी जी में आता है कि सब बेचकर हम दोनों तीर्थ-यात्रा पर चले जाएं।’
सुनयनी से सिर हिलाया था, ‘निश्चय ही बेटे-बेटी अपना हिस्सा नहीं छोड़ेंगे।’
‘जो उनकी इच्छा हो करें। हम क्यों सोचें?’
‘तुम्हें भी जीवन में कभी शांति नहीं मिल पायी।’
‘बहुत हुआ। इतने दिनों तक परिश्रम किया। अब घर में आराम से रहूंगा। तुमसे दो बातें कर सकूंगा। यह सुख कम है क्या?’
पेंशन बहुत ही कम है। किराये से छह सौ रुपये आ जाते हैं। इसी से सुनयनी घर चला रही है। बेटे सोचे बैठे हैं कि माता-पिता सुख से हैं। कभी-कभार आते रहते हैं बस। सुनयनी ने सोच रखा था कि पति को मद्रास ले जाकर उनके आंखों की जांच कराएगी परंतु वे राजी नहीं हुए।
‘मोतियाबिंद का ऑपरेशन यहीं करवाऊंगा, मद्रास में क्यों? इतने पैसे कहां हैं, और जो हैं, वे भी खर्च हो जाएंगे।’
यह भी सही है।
इतने वर्षों तक सालगिरह मनाने के बारे में वे कभी सोच नहीं सके थे। कुछ वर्ष पूर्व तापस बाबू ने एक साड़ी लाकर सुनयनी को चौंका दिया था। मुंह भी मीठा कराया था।
‘क्या बात है?’ सुनयनी ने आश्चर्य से पूछा।
‘तुम कहो तो...?’
‘अच्छा-अच्छा, परंतु इतने वर्षों बाद अचानक आज...?’
‘इतने वर्षों में क्या हमें एक-दूसरे के बारे में सोचने का समय मिला था? अब सोचा करूंगा। तुम और मैं। कई विवाहितों के सास-ससुर तो स्वयं कुछ नहीं करते, उनके बच्चे ही माता-पिता की वर्षगांठ मनाते हैं। समाचारपत्रों के माध्यम से अभिनंदन दर्शाते हैं। क्यों भला, कह सकती हो?’
‘तुम ही कहो।’
‘बाप के पास पैसा है। पैसे के सम्मान में...।’
‘और हमारे पास?’
‘पैसा नहीं है। कभी भी जन्मदिन या वर्षगांठ नहीं मना पाए हम। हमारे बच्चे सोच नहीं पाते हैं तो क्या? हम क्यों न सोचें?’
तब से यह सिलसिला आरंभ हुआ था। पहली बार तो शाम को वे कहीं बाहर निकल गए थे। झील के समीप स्थित बौद्ध-मंदिर के दर्शन कर पैदल ही गारियाहाट आए थे। एक दुकान में मसाला-डोसा खाया और कॉफी पी। फिर घर लौट आए थे। सुनयनी को बहुत अच्छा लगा था। बेटी-बेटों के चले जाने के बाद से मन में कहीं एक शून्यता-सी आ गई थी। अब तापस और सुनयनी को परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर होकर बड़ी शांति मिलती है। वर्ष में इसी एक दिन उम्दा मछली और खीर बनती है। तापस बाबू की यही एक कमजोरी है, अच्छा खाना।
‘आज सत्रह बैशाख को तुम्हारे लिए क्या-क्या बनाऊं?’
‘ठहरो, अपनी पुस्तिका तो निकालो ज़रा।’
‘मैंने पुस्तिका तो जला दी है।’
‘तो फिर अब?’
‘कुछ भी कहो।’
‘बंसी के विवाह में दोपहर को क्या-क्या बना था, याद है?’
‘तुम्हें याद है?’
‘हां, अच्छी तरह। नारियल-चने की सब्जी, निरामिष चटनी, मूंग की दाल, पांच प्रकार की भुजिया, रोहू और कोइ मछली, आम की चटनी, दही, सरणहाटी के रसगुल्ले, गुलाब जामुन। क्या ही लाजवाब भोजन था!’
‘चीजों के गुण में ही स्वाद होता है। जानते हैं, मछलियां मदन मोहन बाबू ने भेजी थीं, दाल-सब्जी मामा के अपने बगीचे की थी।’
तापस हंस पड़े। ‘इसी बढ़िया खाने ने हमारे पैसे बचने नहीं दिए।’
‘अब अधिक मत सोचिए। बोलिए, क्या खाएंगे?’
‘जो कहूंगा, खिलाओगी?’
‘निश्चय ही।’
‘मेथी की बघार देकर तरीदार सब्जी, निरामिष लौकी, मटर-दाल, नारियल-झींगा और चटनी। दही नहीं, मिठाई नहीं, सिर्फ चटनी वह भी आम की खटाई।’
‘यह तो कोई खास नहीं हुआ।’
‘तो फिर शाही भोजन बने।’
‘क्या, क्या?’
‘कुछ भी।’
‘ठीक है, मैं बाजार होकर आती हूं।’
‘क्या कह रही हो, मैं जाऊंगा रिक्शे पर, आराम से। तुम बाजार जा सकोगी? दो, मुझे पैसे दो।’
सुनयनी पैसे लाने अंदर चली गई। मन में ख्याल आया, बड़े बेटे गौतम के घर का एक हफ्ते का खर्च पांच सौ रुपये है। छोटे बेटे के घर में सभी भोजन सूर्यमुखी के तेल में बनता है। नौकरी में इतने पैसे भी मिल जाते हैं, सुनयनी को इसका पता न था।
‘कहां हो भई, इतनी देर क्यों हो रही है?’
‘हां, आ रही हूं। पूजा के लिए कुछ फूल भी लेते आइएगा।’
‘अच्छा ले आऊंगा। पान भी लेता आऊंगा।’
तापस बाबू बाजार चले गए। सुनयनी ने हिदायत दी थी, ‘सावधानी से जाइएगा।’
‘हां भई हां।’
महरी भी कई दिनों से खुद नहीं आ रही है। अपनी बेटी रिंकी को भेज रही है। लड़की बहुत बकवादी है। कहने लगी, ‘आज आप लोग बढ़िया भोजन करेंगे। मुझे नहीं मिलेगा क्या?’
‘तुम्हें भी मिल जाएगा।’ सुनयनी ने उसे आश्वस्त किया।
‘तुम झींगे मछली की मिर्च वाली सब्जी बनाओगी न? बहुत ही स्वादिष्ट बनता है।’
‘तूने कभी खाया है?’
‘हां, कई बार। उस बड़े फ्लैट की सात नंबर वाली भाभी जी हैं न, वह पत्र-पत्रिकाओं से पढ़-पढ़कर ही रसोई बनाती है। बहुत बड़ा दिल है उनका। हजार-सौ रुपये का तो बाजार ही कर डालती है। तेल-घी में डूबा भोजन बनता है। जो कुछ पकाती है, वह मुझे तो खिलाती ही है, घर ले जाने के लिए भी दे देती है।’
‘अच्छा, जा पहले थोड़ी-सी इलायची दुकान से ला दे।’
‘शाम को काम पर नहीं आ रही हूं।’
‘क्यों?... अच्छा शनिवार है इसलिए।’
‘तुम तो महाकंजूस हो मां, टीवी खरीदोगी नहीं।’
‘हमारे किरायेदार के घर पर देख सकती हो।’
‘रहने दो, श्वेत-श्याम...? कौन देखता है? हमारी बस्ती में घर-घर में रंगीन टीवी है।’
रिंकी धुले बर्तन लाकर रख देती है। जल्दी से झाड़ू बुहारती है। फिर कहती है, ‘इतने कम पैसों में कितनी इलायची मिलेगी भला?’
‘जो मिले, वही ले आ।’
‘एक ही बार घर पर लाकर भी नहीं रख सकती हो क्या?’
सुनयनी का चेहरा तमतमा उठा परंतु वह कुछ कह न सकी। समय बदल चुका है। रिंकी को उनकी आवश्यकता नहीं, बल्कि उन्हें उसकी आवश्यकता है। वह तो ठहरी महरी की बेटी। उसके खुद के नाती-पोते भी इस घर में आकर बोरियत महसूस करने लगते हैं। बेटे-बहू, बेटी-दामाद कोई भी यहां पल भर भी टिकना नहीं चाहता। कहते हैं, कुछ रहने लायक व्यवस्था करो। कम-से-कम फ्रीज़ या टीवी तो होना चाहिए।
बेटी आती है तो कहती है, मां यह भी अजीब संकीर्णता है। सब तुम्हें गरीब समझते हैं। सिर्फ बड़े बेटे की सास ही कहती हैं, ‘सच अ सिंपल लीविंग, सचमुच आप लोग ग्रेट हैं।’ तापस लौट आए थे।
‘सब कुछ ले आया हूं। बड़े-बड़े झींगे, हरी-हरी सब्जियां। अब तुम अपना जादू दिखाओ।’
सुनयनी सब कुछ इत्मीनान से रांधती है। फिर नई थालियों में भोजन परोसने बैठती है।
‘आज हम एक साथ भोजन करेंगे।’
‘अच्छा ठीक है।’
दोनों भोजन करते हैं। खाते-खाते तापस बाबू पूछते हैं, ‘रात को क्या बनेगा?’
‘तुम कहो।’
‘मांस को कोरमा और पूड़ियां। क्या कहती हो, ठीक रहेगा?’
सुनयनी की आंखों से आंसू टपक पड़ते हैं। तापस बाबू बायें हाथ से उसे सहारा देते हैं।
‘रोते नहीं। क्यों रो रही हो? तुम ही कहो, हम-सा सुखी कोई है? सुख तो मन में होता है, है न? और आज तो...।’
‘हां, सत्रह बैशाख।’
‘अन्यथा पोस्त खरीदता मैं? अस्सी-सौ रुपये किलो। मीठा पान...।’
सुनयनी आंखें पोंछती है। फिर कांपते स्वर में कहती है, ‘दुःख नहीं है, बल्कि इतना सुख सहन नहीं हो पा रहा है। आंखों से आंसू उमड़ ही पड़ते हैं।’
मूल बांग्ला से अनुवाद रतन चंद ‘रत्नेश’