लोकलाज के बिना अधूरा ही है लोकराज
शालीनता और भद्रता से रहित राजनीति जनतंत्र को बदशक्ल ही बनाती है। जनतंत्र विभिन्न फूलों वाला प्यारा-सा गुलदस्ता है, अमर्यादित आचरण से इस गुलदस्ते की खूबसूरती को नष्ट करने का अवसर और अधिकार किसी को नहीं मिलना चाहिए। किसी भी कीमत पर नहीं।
विश्वनाथ सचदेव
जनतंत्र का एक नाम लोकराज भी है। समाजवादी विचारक डॉक्टर राम मनोहर लोहिया कहा करते थे, ‘लोकराज लोकलाज से चलता है।’ अर्थात् कुछ मर्यादा है जनतांत्रिक व्यवस्था की जिनका पालन उन सबको करना चाहिए जो इस व्यवस्था को जीते हैं। इन मर्यादाओं में एक महत्वपूर्ण स्थान उस भाषा का है जो हमारे राजनेता काम में लेते हैं। संसद से लेकर सड़क तक आज जो भाषा हमारी राजनीति को परिभाषित कर रही है, वह इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि हमारे राजनेता या तो ऐसी किसी मर्यादा को जानते नहीं हैं, या फिर उसे मानना नहीं चाहते। दोनों ही स्थितियां चिंताजनक हैं। मर्यादाओं का जानना ज़रूरी है और उनका पालन करना भी। दुर्भाग्य से यह दोनों काम नहीं हो रहे।
भाषा का सीधा रिश्ता व्यक्ति की सोच से है। जैसी आपकी सोच होगी, वैसे ही भाषा भी होगी। इसलिए जब हमारा कोई नेता घटिया भाषा बोलता है तो निश्चित रूप से उसकी सोच भी उतनी ही घटिया होती है। चिंता की बात तो यह है कि हमारे नेताओं को अपनी घटिया सोच की कोई चिंता नहीं दिखती। उन्हें यह लगता ही नहीं कि वह कुछ ग़लत कर रहे हैं। ऐसे में उनसे किसी प्रकार की लोकलाज की अपेक्षा ही कैसे की जा सकती है? अभी हाल में कांग्रेस के एक बड़े नेता प्रधानमंत्री के लिए तू-तड़ाक की भाषा में बात कर रहे थे। प्रधानमंत्री के संदर्भ में वह कहना चाहते थे कि ‘उन्हें इस बात का पता नहीं है’, पर उन्हें की जगह उसे कहने में नेताजी को तनिक भी संकोच नहीं हो रहा था। दूसरी तरफ भाजपा के एक सांसद कांग्रेस के इन बड़े नेताजी के संदर्भ में कह रहे थे कि प्रधानमंत्री की तुलना में वह नाली के कीड़े के समान है। यह एक उदाहरण ही इस बात को समझने के लिए पर्याप्त है कि हमारे नेताओं की एक-दूसरे के प्रति सोच कैसी है और हमारी राजनीति का स्तर कितना छोटा होता जा रहा है! यह हमारे नेताओं के बौने होते जाने का उदाहरण भी है और हमारी राजनीति के घटिया स्तर का भी।
अपने राजनीतिक विरोधी की आलोचना करना कतई गलत नहीं है, पर आलोचना और गाली-गलौज में अंतर होता है। लगता है इस अंतर को हमारे नेताओं ने भुला दिया है या फिर याद रखना नहीं चाहते। आज घटिया भाषा हमारी राजनीति का ‘नया सामान्य’ बन चुकी है। इन नेताओं में प्रतियोगिता इस बात की चल रही है कि लोकलाज की दृष्टि से कौन कितना घटिया है। हाल ही में भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहे ‘संघर्ष’ (युद्ध ही कहना चाहिए इसे) के दौरान हमारी सेनाओं ने जनता को इसकी जानकारी देने के लिए सेना की दो महिला अफसरों को नियुक्त किया था। इनमें से एक महिला मुसलमान थी और यह अनायास नहीं हुआ था। बहुत सोच-समझकर इस महिला सैन्य-अधिकारी को यह काम सौंपा गया था। एक अच्छा उदाहरण था यह इस बात का इस देश का हर नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो, आतंकवाद के, और विदेशी हमले के खिलाफ, पहले भारतीय है। लेकिन मध्य प्रदेश के एक मंत्री ऐसा नहीं मानते, इस महिला अधिकारी के लिए उन्होंने जिन शब्दों का उपयोग किया वह कोई भी सभ्य व्यक्ति नहीं करना चाहेगा। लेकिन हमने देखा कि संसद में भी हमारे सांसदों को एक-दूसरे के प्रति घटिया भाषा का इस्तेमाल करने में कोई संकोच नहीं होता। हैरानी की बात तो यह है कि जब एक सांसद महोदय सदन में घटिया भाषा में बोल रहे थे तो वहां उपस्थित पार्टी के बड़े नेताओं में से किसी ने भी उन्हें रोकने की आवश्यकता अनुभव नहीं की! और सेना की महिला-प्रवक्ता के संदर्भ में भी घटिया भाषा और घटिया सोच वाले यह मंत्री जी अभी तक अपने पद पर बने हुए हैं। न उन्होंने इस्तीफा दिया है, न उनसे इस्तीफा मांगा गया है। भाजपा के नेतृत्व ने यह कहकर इस शर्मनाक कांड से पल्ला झाड़ लिया है कि अब मामला न्यायालय में है, इसलिए इस बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए! हैरानी की बात तो यह है कि देशभर में इस मंत्री महोदय की थू-थू हो रही है, पर फिर भी भाजपा का नेतृत्व इस आवाज़ को सुन नहीं रहा!
टी.वी. के विभिन्न चैनलों पर प्रतिदिन बहस होती है। इन बहसों का स्तर भी इतना घटिया हो गया है कि हैरानी होती है इनमें भाग लेने वाले अधिसंख्य प्रतिनिधियों की बुद्धि पर। अपने दल की रीति-नीति का समर्थन करना स्वाभाविक है। कुछ ग़लत भी नहीं है इसमें। लेकिन, अक्सर जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल राजनीतिक-दलों के प्रवक्ता करते हैं उसे किसी भी दृष्टि से सही नहीं कहा जा सकता। दूसरे की लकीर को छोटा करने के लिए अपनी लकीर लंबी करनी होती है, पर हमारे राजनेता और राजनीतिक दलों के प्रवक्ता दूसरे की लकीर को मिटाने की नीति में विश्वास करते हैं, और इस कोशिश में सारी मर्यादाएं लांघ जाते हैं। अमर्यादित भाषा घटिया सोच और बीमार मानसिकता की परिचायक होती है। इस बात को हमारे राजनेता समझना नहीं चाहते।
एक बात और भी है। घटिया अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करने पर जब उंगली उठती है तो वे ‘मुझे ग़लत समझ गया’ अथवा ‘मेरे कहने का यह मतलब नहीं था’ जैसे वाक्यांशों से अपना बचाव करते हैं। जब टी.वी. नहीं था और रिकॉर्डिंग करने की कोई व्यवस्था नहीं थी तो हमारे राजनेता ‘मैंने ऐसा नहीं कहा’ का सहारा लेते थे। अब यह नहीं कहा जा सकता, इसलिए वे कहते हैं, ‘मेरे कहने का यह अर्थ नहीं था’। इन नेताओं को बताना होगा कि भाषा की मर्यादा का उल्लंघन किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता।
अमर्यादित भाषा अराजकता का संकेत देती है। हमारे संविधान के प्रमुख शिल्पी डॉ. अंबेडकर ने कहा था, ‘अराजकता का व्याकरण लोकतंत्र को मज़बूत होने से ही नहीं रोकता, उसे कमज़ोर भी बनाता है।’ आज हम भाषा की अराजकता के शिकार हो रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हमारी राजनीति में यह अराजकता अचानक उभर आयी है। पहले भी भाषा की मर्यादा भुलाने के उदाहरण मिलते थे, पर सीमित हुआ करती थी यह प्रवृत्ति। आज जिस गति और मात्रा में यह मर्यादा-हीनता उजागर हो रही है, वह डराने वाली है। संयम और शालीनता दोनों हमारी राजनीति के लिए जैसे कोई बाहरी वस्तु बन गये हैं। कड़वाहट और द्वेष का छलक-छलक पड़ना हमारे नेताओं की अमर्यादित भाषा का उदाहरण प्रस्तुत करता है। अपने प्रतिद्वंद्वी को नाली का कीड़ा समझना या कहना घटिया राजनीति है।
बशीर बद्र का एक शे’र है : ‘दुश्मनी जम कर करो, लेकिन यह गुंजाइश रहे/ फिर कभी हम दोस्त बन जायें तो शर्मिंदा न हों।’ यहां सवाल फिर से दोस्त बनने का नहीं है। राजनीतिक विरोध का मतलब दुश्मनी नहीं होता। मतभेद स्वाभाविक हैं। राजनीतिक दलों के अस्तित्व का आधार ही भिन्न मतों का होना है। लेकिन इस भिन्नता का अर्थ आपस में गाली-गलौज हो जाए, यह मतलब तो नहीं होता जनतंत्र का। कई बार ऐसा लगता है कि एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने वाले राजनेता क्या सचमुच में एक-दूसरे के दुश्मन होते हैं? ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं होना चाहिए। शालीनता और भद्रता से रहित राजनीति जनतंत्र को बदशक्ल ही बनाती है। जनतंत्र विभिन्न फूलों वाला प्यारा-सा गुलदस्ता है, अमर्यादित आचरण से इस गुलदस्ते की खूबसूरती को नष्ट करने का अवसर और अधिकार किसी को नहीं मिलना चाहिए। किसी भी कीमत पर नहीं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।