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राम भरोसे चल रही व्यवस्था के निहितार्थ

04:00 AM Feb 03, 2025 IST
राम भरोसे चल रही व्यवस्था के निहितार्थ
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कुंभ में भगदड़ के चलते हुई श्रद्धालुओं की दुखद मौतों के मामले में जवाबदेही तय करने की मांग को लेकर विपक्ष प्रभावी नजर नहीं आया। इंतजामों को लेकर सवाल उठाये लेकिन वे बयानबाजी भर रहेे। दरअसल, उत्तर प्रदेश में गंभीर सियासी विकल्प का अभाव है। जहां तक प्रयागराज में स्थितियों की बात है, यहां विपक्ष के लिए एक सबक भी है।

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ज्योति मल्होत्रा

जो राख से राख, धूल से धूल। उतनी ही भक्ति, निराशा, हताशा, क्रोध... और तो और संतुष्टि तक को भी खुद में समा ले, सबसे बढ़कर है उसकी पिछले कुछ सहस्राब्दियों से जारी तिरस्कार को सहन करने की शक्ति। और इसीलिए, इस सप्ताह की शुरुआत में प्रयागराज में चल रहे महाकुंभ में पवित्र मौनी अमावस्या की रात को गंगा ने 31 और शवों को ज़ज्ब कर लिया - बगल के गांव झूसी में भी सात अन्य शवों को - एक दिन पहले हुई यह भगदड़ हालांकि बहुत छोटी थी। जहां पर कई करोड़ लोग शरीर और आत्मा की शुद्धि के लिए ठीक एक ही समय पर संगम में पवित्र डुबकी लगाएं, वहां 38 जिंदगियां कहां गिनती में।
योगी आदित्यनाथ ने अभी भी मृतकों की उस गिनती की पुष्टि नहीं की है जो उनकी पुलिस बता रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने शोक संतप्त परिवारों को दिलासा दिया है। विश्व हिंदू परिषद के वैश्विक प्रमुख आलोक कुमार का कहना है कि इसमें भी ‘प्रभु की इच्छा’ है। समस्या यह है कि विश्व हिंदू परिषद का नेता सही है। पिछले कुछ दिनों से गंगा किनारे के आश्रमों और अखाड़ों में तीर्थयात्रियों की मौत पर भले ही गहरा दुःख पसरा हो, लेकिन कुल मिलाकर यह भावना अभी भी प्रबल है ‘चलो, हो गया। था तो भयानक, लेकिन फिर यह कुंभ है। वह भी कोई साधारण नहीं, बल्कि महाकुंभ। जब लाखों श्रद्धालु एक साथ इतनी छोटी-सी जगह में इकट्ठे प्रार्थना करना चाहते हों, तो किसी भी सरकार को कैसे दोषी ठहराया जा सकता है?’
मेरे जैसे लोग आस्थावानों के अडिग भाग्यवाद पर प्रश्न कर सकते हैं, शायद समस्या का यह भी एक हिस्सा है। आप में कुछ अधिक उद्वेलित हुए अपने पैर पटकते हुए मांग कर सकते हैं कि इस मुख्यमंत्री को बर्खास्त करो, उस डीजीपी का तबादला करो। इसके बजाय, मेरा आपसे अनुरोध है कि गर्माइश भरे अपने घरों से बाहर निकलकर निकटतम रेलवे स्टेशन पर पहुंचें, जहां से प्रयागराज के लिए ‘कुंभ स्पेशल’ रेलगाड़ियां रवाना हो रही हैं। अपने सिर पर खाने-पीने का सामान लादकर ले जाते श्रद्धालु दिखेंगे : सबसे गरीब तबके के लोग, जिनके पास आलम्बन के तौर पर सर्वशक्तिमान में विश्वास के अलावा कुछ भी नहीं है –यह सोचकर कि शायद, किसी दिन, वह उनकी हालत बहुराएगा। रेल के डिब्बे इंसानों से खचाखच भरे हैं, तंबई रंग के चेहरों पर काली, उम्मीद भरी आंखें, सिर पर गमछा बांधे पुरुष, चमकीले रंग की साड़ियां पहने महिलाएं - लाल, नारंगी, गुलाबी - जो कि उर्वरता और मेले के रंग हैं। बेशक, यह तीर्थयात्रा आनंद पाने के लिए भी है।
गंगा पर बने पंटून पुलों से होते हुए संगम की ओर जाते वक्त और वहां से वापसी के दौरान ‘जय मां गंगे’ का जयकारा गूंजता रहता है! वह रेत, जहां बमुश्किल पांच साल पहले, कोविड के भयानक वर्षों के दौरान शवों को दफनाया गया था। उस रेत को सूंघते-खोदते कुत्तों की तस्वीरें आपको याद होंगी। अब परिवार के परिवार उसी रेत पर विश्राम कर रहे हैं, किटकैट चॉकलेट के रैपरों से बनी प्लास्टिक की चादरों पर। गृह मंत्री अमित शाह और उनकी पत्नी, और साथ में योगी भी, सोमवार को संगम में डुबकी लगाने पहुंचे थे। इसलिए शहर को जोड़ते 17 पुलों को पुलिस ने सुरक्षा के नाम पर बंद कर दिया था। असहनीय थकान से चूर, गोद में बच्चा उठाए मांएं और वृद्ध की दृश्यावली है, जो यूपी पुलिस से उन्हें जाने देने की गुहार लगा रहे थे, लेकिन उसने एक न सुनी। अब उनको 4 किमी. आगे जाकर बने 18वें और 19वें पुल तक और घिसटना पड़ा। पुलिस वालों का कहना था ः ‘ऊपर से आदेश आया है।’
मौनी अमावस्या की भगदड़ से एक छोटा-मोटा राजनीतिक वाक‍् युद्ध छिड़ गया, जिसमें अखिलेश यादव ने बदइंतजामी का आरोप जड़ा और कहा कि मौतों की बताई जा रही कम संख्या पर उन्हें विश्वास नहीं है, जबकि राहुल गांधी ने ‘वीआईपी संस्कृति’ के बारे में शिकायत की है, जो आम लोगों के साथ भेदभाव करती है। निश्चित रूप से, अभी भी कई लोग लापता हैं। न्यायिक जांच सच्चाई का पता लगाने की कोशिश करेगी, लेकिन तथ्य यही रहेगा कि उत्तर प्रदेश की राजनीति के महासागर में हलचल मचाने को विपक्षी नेताओं की कही एक भी बात का बूंद बराबर भी असर नहीं है, क्योंकि उन्हें मौजूदा राजनीतिक स्थिति में गंभीर विकल्प के रूप में नहीं देखा जाता। योगी के खिलाफ कोई भी गुस्सा, जैसा कि अब स्पष्ट है, केवल उन गुमनाम भक्तों की ओर से ही आएगा, जिन्हें लगता है कि बहुसंख्यक जनादेश से चुने मुख्यमंत्री ने उनका ख्याल रखने के लिए पर्याप्त नहीं किया। इसके अलावा, आलोचक यह भी कहेंगे कि यह गुस्सा राजनीतिक चुनौती में तब तक तबदील नहीं हो सकता जब तक कि किसी के द्वारा इसे दिशा नहीं दी जाती। यूपी में चाहे ऊपर देखें या नीचे- आज कोई एक ऐसा नेता नहीं है जिसके पास विश्वसनीयता, राजनीतिक कूवत या टिकने का वह माद्दा हो, जो भाजपा का सामना कर सके।
विपक्षी नेताओं को सत्ताधारी पार्टी को उसके निरंकुश व्यवहार के लिए कोसना पसंद है - और भगवान जाने, उनमें बहुत से सही कह रहे हैं। लेकिन देखिए तो, जब पिछले हफ्ते अरविंद केजरीवाल और भाजपा के बीच दिल्ली में यमुना की गंदगी को लेकर राजनीतिक उबाल बना तो राहुल गांधी ने क्या किया? उन्होंने एसएएनडीआरपी नामक एनजीओ के एक कार्यकर्ता को नाव में साथ लिया और नदी का मुआयना करने निकले - जो वास्तव में अब एक नाले जितनी बची है ताकि उससे जान सकें कि चल क्या रहा है। पीठ पीछे से आती किरणों में राहुल की छवि बढ़िया लग रही थी। लेकिन चलिए सीधे मुद्दे पर आते हैं और उनसे पूछते हैं कि दिल्ली में कांग्रेस को कितने वोट मिलने जा रहे हैं? और अगर राहुल मोदी की भाजपा के खिलाफ एक संयुक्त अखिल भारतीय ब्लॉक बनाने के लिए इतने ही उत्सुक हैं, तो उन्होंने पिछले साल हरियाणा के चुनावों में आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन करने करने वाली उनकी सलाह का विरोध करने वाले अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के फैसले को उलट क्यों नहीं दिया? और इस बार दिल्ली में उन्होंने वही विचार क्यों नहीं पेश किया? याद दिला दें, हरियाणा में जीतने वाली भाजपा (39.94%) और हारने वाली कांग्रेस (39.09%) के बीच वोट-विभाजन का अंतर महज 0.85 प्रतिशत अंक रहा, जबकि आम आदमी पार्टी ने 1.79 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। अंदाजा लगाइए कि अगर कांग्रेस और ‘आप’ मिलकर लड़े होते तो कौन जीतता। फिर भी, कांग्रेस सबक सीखने को राज़ी नहीं। चुनावों के करीब चार महीने बाद भी पार्टी में अराजकता और तदर्थवाद की भावना व्याप्त है –यहां तक कि राज्य में विधायक दल का नेता अभी तक नियुक्त नहीं किया गया।
हरियाणा की शानदार जीत ने भाजपा को महाराष्ट्र जीतने के लिए जोश से भर दिया। और अब 5 फरवरी को मतदान के साथ दिल्ली के लिए सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई बस होने को है। यह कोई संयोग नहीं है कि प्रधानमंत्री ने संगम में डुबकी लगाने के लिए उसी दिन को चुना है – इसके मायने हैं कि सभी टीवी चैनल मोदी के कुंभ स्नान को बहुत अधिक महत्व देंगे, जिसका अर्थ यह भी है कि दिल्ली के लिए जीवन-मरण की लड़ाई की कवरेज दूसरे स्थान पर सरक जाने का खतरा है।
जहां तक प्रयागराज में जीवन और मरण की लड़ाई की बात है, यहां विपक्ष के लिए एक सबक भी है। साल 2022 में, भाजपा ने फिर से यूपी जीता था (समाजवादी पार्टी की 111 सीटों के मुकाबले 255 सीटें लेकर) इस तथ्य के बावजूद कि योगी का प्रशासन कोविड से निपटने में विफल रहा और लोग मक्खियों की तरह मरे थे। लेकिन योगी फिर भी जीत गए क्योंकि कोई विकल्प बनकर प्रस्तुत नहीं हो पाया- समाजवादी पार्टी के कई नेता दिल्ली खिसक लिए तो कुछ लंदन चले गए। महामारी के दौरान गंगा के किनारे पर शव यात्राओं और दाह संस्कारों में अर्थी को कंधा देने के लिए वे वहां मौजूद नहीं थे।
यही कारण है यूपी में सब राम भरोसे है। इसलिए नहीं कि भाजपा हर गांव और शहर में हर वोट के लिए जूझती है, बल्कि इसलिए कि विपक्ष ऐसा नहीं कर पा रहा।

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लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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