राजनीतिक गरिमा और वक्त की नजाकत का सवाल
ऑपरेशन सिंदूर का औचित्य समझाने को सांसदों का प्रतिनिधिमंडल दुनियाभर में भेजे जाने का फैसला लिया गया। ताकि सभी देशों तक संदेश पहुंचे कि पड़ोसी देश आतंकवाद को भारत के विरुद्ध इस्तेमाल कर रहा है। कांग्रेस के कुछ सांसदों ने प्रतिनिधिमंडल में शामिल होने के लिए प्रधानमंत्री के निमंत्रण पर बिना पार्टी से अनुमति लिए हामी भर दी। उधर विदेश नीति पर सवाल उठे। राजनीति में गरिमा और अवसर का ख्याल जरूरी है।
ज्योति मल्होत्रा
पहलगाम में हुए नरसंहार के जवाब में भारत को पाकिस्तान पर दंडात्मक सैन्य कार्रवाई क्यों करनी पड़ी, दुनिया को यह समझाने के लिए भेजे जाने वाले बहुदलीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल होने को लेकर जो माहौल बना है, उसमें निश्चित तौर पर शालीनता की कमी देखी गई।
शशि थरूर, मनीष तिवारी, सलमान खुर्शीद और अमर सिंह ने इन प्रतिनिधिमंडलों में शामिल होने के पीएम मोदी के आह्वान पर अपनी पार्टी, कांग्रेस से अलग होकर प्रतिक्रिया दी – कांग्रेस द्वारा सरकार को भेजी गई सूची में उनके नाम नहीं थे। इस पुरानी पार्टी को इस मुद्दे पर जिस प्रकार किरकिरी झेलनी पड़ गई। इसका पूर्वानुमान उसे होना चाहिए था।
सोचा भी नहीं जा सकता कि राहुल गांधी की कांग्रेस वही कांग्रेस है, जिस पर कभी इंदिरा गांधी का राज रहा था। साल 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध करने से पहले के हफ्तों में, उन्होंने और उनके सबसे करीबी सहयोगियों ने कई महीनों तक कूटनीतिक अभियान चलाकर माहौल बनाया, ताकि पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में पैदा हुए मानवीय संकट को दुनिया के सामने रखा जा सके। साल 1994 की बात है, पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे और भारत को कश्मीर मुद्दे पर जेनेवा में मानवाधिकार परिषद में आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा था - तब राव ने अटल बिहारी वाजपेयी को फोन करके पूछा कि क्या वे भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले बहुदलीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करेंगे। भारत के संसदीय इतिहास में वह क्षण एक तरह से राजनीतिक किंवदंती के रूप में याद किया जाता है - 1994 में उप विदेश मंत्री रहे सलमान खुर्शीद, जो कोई भी उनसे मिलने आता, उसे यह बताने में कभी नहीं चूकते कि वाजपेयी के साथ काम करना कितना सहज है। साल 2018 में वाजपेयी के निधन के बाद खुर्शीद ने द प्रिंट नामक वेबसाइट को बताया : ‘हमें एक-दूसरे को मनाने की या बहस करने की कभी जरूरत नहीं पड़ी। सहज रूप से हमारी सोच एक-सी थी और वे (वाजपेयी) बहुत कमाल के इंसान थे...उनके पास वह ‘मखमली स्पर्श’ था, जो एक प्रेरक नेता होने के लिए चाहिए।’
अब बहुत से लोग मोदी पर ‘मखमली स्पर्श’ विहीन होने का आरोप नहीं लगा सकते। निश्चित रूप से, मोदी का तरीका अपना संदेश सपाट रूप से संप्रेषित करने का है। होना तो यह चाहिए था कि मोदी फोन उठाकर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को कॉल करते और उनसे कहते : ‘भाई, मैं सोच रहा हूं कि भारत को इस घड़ी एक स्वर में दुनिया को बताना चाहिए कि पाकिस्तान के अंदर क्या चल रहा है; किस प्रकार हमारा यह पड़ोसी मुल्क कट्टरता और आतंकवाद का इस्तेमाल कर खेल कर रहा है; तिस पर यह धमकी कि कुछ करके देखो परमाणु हथियार चला दूंगा, एक ऐसा खतरनाक घालमेल जिसके सामने किम जोंग उन जैसा भी फीका पड़ जाए।’
दुर्भाग्यवश, राष्ट्रहित में अहंकार और राजनीतिक मतभेद भुलाकर काम करने की क्षमता का प्रदर्शन करने वाला इस प्रकार का आह्वान इन दिनों संभव नहीं है। राजनीति के क्षेत्र में शालीनता की कमी ही अब इसकी पहचान बन चुकी है। कोई भी पक्ष दूसरे का सम्मान नहीं करता। पीएम मोदी का मानना है कि राहुल लोगों से कटे हुए वंशवादी नेता हैं, जिसे सीखने से परहेज है और बदतर यह कि पार्टी उन्हें हटा भी नहीं सकती, भले ही उनके नेतृत्व तले कांग्रेस चुनाव-दर -चुनाव हारती जा रही हो। उधर राहुल का मानना है कि पीएम मोदी लोकतांत्रिक संस्थाओं के सबसे बड़े विध्वंसक हैं।
सार्वजनिक मंचों से दोनों एक-दूसरे की बेइज्जती करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। जब वे एक-दूसरे से भिड़ नहीं रहे होते, तब उनके करीबी सहयोगी यह कमी पूरी करते हैं। देश के दो शीर्ष नेताओं के बीच ताने, कटाक्ष, सरासर बेइज़्जती करना – यह सब देखना सुखद नहीं। सब जानते हैं कि राजनीति कोई पिकनिक नहीं और न ही अब वह जमाना है कि कोई एक मारे तो दूसरा गाल आगे कर देना इसकी प्रमुख धारणा हो। लेकिन इंदिरा गांधी और नरसिम्हा राव, दोनों ही समझते थे कि विदेश नीति एक व्यापक इंद्रधनुष है, जो हमारे जीवन के विभिन्न रंगों को खुद में समाहित करने में सक्षम है। भले ही कांग्रेस ने प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपने प्रमुख सांसदों को सीधे आमंत्रित करने को सियासी खेल करने के रूप में लिया हो, लेकिन वह इसे हज़्म करते हुए प्रधानमंत्री से कह सकती थी कि विश्व को भारत का पक्ष समझाने में कांग्रेस भारतीय प्रयासों की- भाजपा के नहीं– बराबर की सहयोगी बनेगी।
राहुल का तरीका यह है कि जन-जन तक अपनी पहुंचाने के लिए वे बहुत दिलचस्प मुद्दे उठाते रहते हैं, मसलन जातिवार जनगणना। हिंदी पट्टी की राजनीति की प्रकृति को समझते हुए प्रधानमंत्री को इस मांग को मानने के लिए मजबूर होना पड़ा –वैसे भी इस साल के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं। यह श्रेय पूरी तरह राहुल को जाता है कि उन्होंने मोदी को इस किस्म की कवायद की जरूरत स्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया। शायद राहुल को विश्वास हो चला है कि वे सरकार को ऑपरेशन सिंदूर पर भी सफाई देने के लिए मजबूर कर देंगे– यह पूछकर कि भारत ने कितने विमान खोए; भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता के लिए‘ट्रंप को क्यों बीच में डाला गया’;शेष दुनिया में कोई एक देश भी क्यों खुलकर भारत के समर्थन में खड़ा क्यों नहीं मिला? बकौल राहुल यह ‘भारत की विदेश नीति ध्वस्त हो गई’ का नतीजा है।
लेकिन क्या ऐसा ही है? भगवान जाने कि क्या पूरा देश वही जानना चाहता है, जो राहुल जानना चाहते हैं। लेकिन सभी राजनेताओं को समय की नज़ाकत की समझ होनी चाहिए। फिलहाल तो जनता का मूड यही है कि पहलगाम में हुए नरसंहार का बदला लिया जाए। यह संदेश कि भारत निर्दोष लोगों की हत्या को और बर्दाश्त नहीं करेगा, पूरी तरह से दिया जा चुका है- रहीम यार खान एयरबेस के रनवे को बींधकर रख देना, पाकिस्तान के रणनीतिक कमांड से कुछ ही दूरी पर स्थित सरगोधा और नूर खान हवाई अड्डे पर बमबारी करना– इनमें निहित ऐसे कई संदेश हैं जिनसे बाकी दुनिया को अवगत कराना बाकी है। जहां तक यह सवाल कि क्या ट्रंप ने भारत-पाक संघर्ष में ‘मध्यस्थता’ की और क्या भारत को इसे अपनी बेइज्जती मानना चाहिए कि उनके विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने 10 मई की सुबह अपने भारतीय और पाकिस्तानी समकक्षों को एक के बाद एक कई फोन किए - तो, अब समय आ गया है कि भारतीय राजनीतिक वर्ग बुनियादी विदेश नीति का एक छोटा-सा पाठ सीख ले।
तथ्य यह है कि दुनिया के नेता हमेशा एक-दूसरे के संपर्क में रहते हैं। कई लोग शायद इस बात से चिंतित थे कि कहीं भारत के हमले ऐसे मोड में न तब्दील हो जाएं, जो भगवान न करे, एक ‘परमाणु फ्लैश पॉइंट’ बन जाए। यह शायद सच है कि जब 7 मई को टकराव शुरू हुआ, तब भारत ने पाक के एयरबेसों पर हमला करने के बारे में नहीं सोचा था - यह 8 मई को पाकिस्तान द्वारा बारामूला से लेकर भुज तक ड्रोनों- मिसाइलों से हमलों के जवाब में करना पड़ा, जिसमें आदमपुर भी शामिल था। स्वाभाविक है कि चिंतित हुए वैश्विक नेता ऐसे पलों में भारत और पाकिस्तान के नेताओं को फोन करके शांति बनाने को कहते - क्या आप भी ऐसा नहीं करते, यदि दोनों आपके दोस्त होते? लेकिन यह भी तथ्य है कि जब तक ट्रंप के सहयोगी पूरी तरह हरकत में आते, तब तक भारतीय वायु सेना अपना काम निबटा चुकी थी। कुछ घंटों बाद, पाकिस्तानी डीजीएमओ ने भारत के डीजीएमओ लेफ्टिनेंट जनरल राजीव घई को फोन किया और शांति स्थापना की गुहार लगाई।
राहुल ने जो भी सवाल उठाए हैं, उनका भी समय आएगा। इस बीच, यहां देखें कि उनके साथी कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने मोदी के निमंत्रण पर 'हामी' भरने वाले अपने ट्वीट में क्या कहा है, जिसमें उन्होंने 1975 की फिल्म ‘आक्रमण’ के गीत के इस एक मुख़ड़े का हवाला देते हुए पुष्टि की कि वे ऑपरेशन सिंदूर के बाद विदेश जाने वाले प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बनना चाहेंगे : ‘देखो वीर जवानों अपने खून पर ये इल्जाम न आए, मां न कहे कि मेरे बेटे वक्त पड़ा तो काम न आए।’
तिवारी, थरूर, सिंह और खुर्शीद भले ही हमारे वक्त के ‘अमर, अकबर, एंथनी’ हों या न हों, लेकिन उन्होंने अपने-अपने तरीके से शेष देश को राह दिखाई है।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।