रणविजयी प्रण
अरुण आदित्य
सक्षम है सेना, शौर्य प्रबल,
साहस प्रचंड है, शस्त्र नवल।
हिमगिरि-सी इसकी कीर्ति धवल,
यश अमित, विदित संसार सकल।
रणविजयी प्रण, संकल्प अटल,
कर दी अरि की हर चाल विफल।
सेना है चौकस पल-प्रतिपल,
फिर तुम क्यों इतने युद्ध-विकल?
हे ज्ञानवीर! हे बुद्धि चपल!
क्यों बांट रहे हो द्वेष-गरल?
युद्ध अ-विराम
शत्रु परास्त हुआ,
हो चुका है युद्ध-विराम।
लौट आए सब अपने-अपने शिविर में,
अब अपने-अपने तिमिर में।
लड़ रहे नया युद्ध—
अपने विरुद्ध,
अपनों के विरुद्ध,
सपनों के विरुद्ध।
अंतस् की नदी
साथ-साथ चलती नदी,
अचानक मुड़ जाती है किसी ओर,
हो जाती है हमारी आंख से ओझल।
फिर भी हमारे भीतर
बहता रहता है उसका जल।
आगे किसी मोड़ पर फिर सामने है नदी,
वही शुभ्र जल,
वही कलकल।
पर कहां गई मेरे अंतस् की हलचल?
कहीं सूख तो नहीं गई मेरे भीतर की नदी?
अरे! मेरा गला भी तो सूख रहा है...
कहां गई मेरी बिसलेरी की बोतल?
बिखरता हमारे भीतर
सांप-सी लहराती चली जाती है सड़क,
सड़क के साथ जुगलबंदी करती
बल खाती नदी।
बस की खिड़की में
हिचकोले खाता हमारा चेहरा,
नदी में चांद।
लहरों की लय पर उछलता,
हमारे साथ-साथ चलता है चांद।
बहुत दूर तक हमारे साथ
नहीं चल पाता चांद,
कि धारा के बीच सिर उठाए
किसी शिलाखंड से टकराती है लहर,
और बिखर जाती है चूर-चूर होकर।
लहर के साथ ही बिखर जाता है चांद,
चांद के साथ ही बिखरता है कुछ हमारे भीतर।
अगले ही पल,
बिखरी हुई लहर संभालती है खुद को,
समेटती है बिखरे हुए चांद को,
बिठाती है अपनी पीठ पर,
और चल पड़ती है पहले की तरह।
क्या हम भी हो पाते हैं पहले की तरह?