युद्ध से पहले युद्ध जीतने की रणनीति
पाकिस्तानी करतूतों के जवाब में हमारा संदेश यह है कि लड़ाई हम शुरू नहीं करेंगे,लेकिन तय हम करेंगे कि युद्ध शुरू कब हो और खत्म कब हो। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत की प्रतिक्रिया नपी-तुली रही और कार्रवाई प्रभावी व सटीक।
ले. जन. एसएस मेहता (अ.प्रा.)
ऑपरेशन सिंदूर का अचानक खत्म हो जाना चौंकाने वाली घटना थी - वास्तव में, परीक्षा में ‘पाठ्यक्रम से बाहर’ का सवाल आने जैसा! गनीमत कि फुल स्केल वॉर टल गयी और उम्मीद करें कि संघर्ष विराम उल्लंघन न हो। भले ही सशस्त्र बल हमारी सीमाओं पर सतर्क नज़र रखेंगे, लेकिन कुछ निष्कर्षों पर गर्मागर्म बहस हो सकती है। पाकिस्तान के नेतृत्व की ओर से नवीनतम उकसावा रणनीतिक नहीं था - लक्षणात्मक था। चिरपरिचित लहजे में, शब्दावली में नीति पर कम और दिखावे पर जोर ज़्यादा था, शिकायतों का पुलिंदा, ऐतिहासिक अन्याय और वैचारिक खतरे को दोहराने वाला संबोधन था। लेकिन कुछ बुनियादी बदलाव आया है कि दुनिया ने सुनना बंद कर दिया।
भारत ने भी प्रतिक्रिया नहीं दी। यह चुप्पी खंडन से ज़्यादा ज़ोरदार रही। भारत के लिए, यह घड़ी प्रतिक्रिया की नहीं– उसे उजागर करने की रही। पाकिस्तान, जो कभी राष्ट्र होता था, अब एक टोला बन चुका है, भ्रमित लोगों का टोला, जिसमें अराजकता और टकराव की बात करने वाले कुछ लोगों ने स्थिरता-सम्मान के चाहवानों को दबा रखा है।
चिंगारी विफल हुई : कश्मीर का प्रत्युत्तर : अगर पर्यटक नरसंहार का उद्देश्य कश्मीर में अशांति भड़काने का था, तो प्रतिक्रिया उद्वेग विहीन रही। पहलगाम और घाटीभर में, असंतोष की लपटें नहीं उठी, कोई गुस्साई भीड़ नहीं। रोज़मर्रा ज़िंदगी चलती रही। लोगों ने रोष प्रदर्शन के बजाय शांति का संकल्प चुना।
भारत आहत हुआ। यह भारत का पहला और गहनतम उत्तर था। भाषणों से नहीं, बल्कि स्थिरता से। भारत की ताकत इसकी विविधता की संबद्धता में है। कश्मीर में भी- कन्याकुमारी या कोहिमा की भांति- संविधान संबद्धता की गारंटी देता है। सशस्त्र बल इसे यकीनी बनाते हैं, लोग कायम रखते हैं। भारत की विविधता में एकता, कमज़ोरी नहीं, अब रणनीतिक सिद्धांत है। फूट डालने के आह्वान का उत्तर बयानबाज़ी से नहीं, बल्कि टिकाऊ सत्य से दिया गया : भारत अनेक है, फिर भी एक है।
बिना दिखावे के सटीकता : जब उधर लाउडस्पीकरों पर दमगज़े गूंज रहे थे, भारत ने कार्रवाई की- चुपचाप, सटीक और बिना नाटकीयता। नियंत्रण रेखा पार और उसके आगे जाकर आतंकी ढांचे पर हमलों की घोषणा धूमधाम से नहीं की। हमले नपे-तुले, प्रभावी और उद्देश्यपूर्ण थे। फिर भी, अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया की भाषा रही : मौन। पाकिस्तान द्वारा संयुक्त राष्ट्र की सूची में शामिल आतंकवादियों की मेजबानी करने, उनके शव सैन्य झंडे में लपेटने, उनका कफन-दफन राजकीय सम्मान से करने पर किसी ने ऐतराज नहीं किया। सवाल नहीं उठा कि वैश्विक तौर पर घोषित हत्यारों को सलामी देकर इज्जत क्यों की दी जाती है। वैश्विक व्यवस्था, एक बार फिर, अपनी कसौटी पर खरी नहीं उतरी। हालांकि, भारत का लक्ष्य तालियां बटोरना नही था, यह प्रतिकर्म निवारक था। संदेश स्पष्ट था : भारत की सीमा रेखा अब सरक चुकी है। प्रतिक्रियाएं अब बिना शोर-शराबा, किंतु वजनदार होंगी।
तनाव बढ़ना, फिर घटना भारत की शर्तों पर - पाकिस्तान की प्रतिक्रिया ढर्रे की रही : मिसाइलों, ड्रोन से हमला। ज़्यादातर को भटका दिया या मार गिराया, बाकी बेअसर कर डाले। इसने हमारी दूसरी प्रतिक्रिया शुरू कराई - नपी-तुली, किंतु सटीक। न केवल आतंकी शिविरों, बल्कि सैन्य हवाई अड्डों को भी निशाना बनाया। अंधाधुंध नहीं बल्कि बहुत सोच-समझकर। यह केवल तनाव बढ़ाने की खातिर टकराव बढ़ाना नहीं था। इस कार्रवाई में सिद्धांत था। सटीकता थी, जिसने क्षमता, इरादे और संयम को प्रेषित किया। इससे उसे करारी चोट पहुंची।
और यह कारगर रहा। पाकिस्तान के सैन्य संचालन महानिदेशक ने धमकी देकर नहीं, बल्कि तनाव घटाने के आह्वान के साथ संपर्क किया। भारत ने स्वीकार किया- बतौर रियायत नहीं, बल्कि नियंत्रण। इस पलों पर संचालन सधा रहा ः न धमकाया, केवल नपा-तुला परिणाम। यह सदा बहस का विषय रहा लेकिन संघर्ष समाप्त करना आसान विकल्प नहीं होता। अपनी प्रतिक्रिया को लेकर भारत ने नई सीमा तय कर दी। उसे घोषित करने की ज़रूरत नहीं - कार्रवाई में सबूत मिला। संदेश : भारत युद्ध शुरू नहीं करेगा,लेकिन तय करेगा शुरू कब हो और खत्म कब हो।
रणनीतिक परिपक्वता ही असली निवारक : यह कोई आग में घी डालना नहीं था, एक परीक्षण था। और, भारत ने अपनी प्रतिक्रिया नाप-तोलकर और प्रभावी दी। प्रतिक्रियात्मक झड़पों का युग बीत चुका है। इसकी जगह संतुलित शक्ति प्रदर्शन ने ले ली है। ज़रूरत पड़े, तभी वार करें। जब दुश्मन को दर्द महसूस हो, तब रुक जाएं। दिखावा नहीं, परिचालन करें।
किस वजह से यह बदलाव बना? : क्षमता से- भारत के पास आज असलियत में विभिन्न विकल्पों की काबिलियत है। लेकिन अहम है स्पष्टता। संवाद और आतंक एक साथ जारी नहीं रह सकते। एक खुले लोकतंत्र में और राष्ट्र द्वारा संचालित आतंकवादी समूह के बीच कोई ‘नैतिक समानता’ नहीं। यह परिपक्वता आकस्मिक नहीं, संस्थागत सुधार, नागरिक-सैन्य सामंजस्य और राष्ट्रीय स्पष्टता से उपजी है। भारत युद्ध नहीं चाहता लेकिन अब यदि बढ़ता है, तो भय भी नहीं। इसे कैलिब्रेटेड डेटरेंस जाता है। इसके विपरीत, पाकिस्तान का आंतरिक क्षय उजागर हो गया। उसका परमाणु ब्लैकमेल अब डेटेरेंस न रहकर बस धमकी रह गया। दुनिया ने भी देख लिया। भारतीय प्रधानमंत्री ने ब्लैकमेल का जिक्र किया और भावी आतंकवादी हमलों को युद्ध कार्रवाई मानने का ऐलान किया।
एक टोला जो अपनों को ही निगल रहा : पाकिस्तान की त्रासदी उसकी सेना नहीं, उसके लोगों की चुप्पी है, जो असहाय हैं। एक ऐसा देश, जहां उदारवादी आवाजें दबाई जाती हैं, असहमति अपराध और सच्चाई देशद्रोह ठहरायी जाती है। समझदारों को भुगतना पड़ रहा है, पागल रणनीतिकार हैं। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अपने वित्तीय संस्थानों और बयानबाजी से यह निष्क्रियता कायम रखता है। भारत यह भेद समझता है। हमारी प्रतिक्रिया कभी पाकिस्तानी अवाम को सजा देने की नहीं रही। यह हमेशा उस मशीनरी को अलग-थलग करने के वास्ते रही है जो उन्हें बंधक बनाए है। लेकिन यहां कोई मुगालता न रहे : जैसाकि हमारे प्रधानमंत्री ने कहा, हम उस मशीनरी को खुद को नुकसान नहीं पहुंचाने देंगे। परमाणु ब्लैकमेलिंग का असर अब जाता रहा।
दुनिया का अंधबिंदु और भारत की नैतिक जिम्मेदारी : यहां मूल विरोधाभास है। आतंकवाद तभी समस्या माना जाता है जब यह पश्चिम को नुकसान पहुंचाए। दशकों से, भारत आतंक की वैश्विक परिभाषा बनाने के लिए दुहाई डालता रहा। लेकिन सत्ता राजनीति और वाणिज्यिक हितों से पंगु बनी संस्थाएं इसे अनदेखा करती रहीं। इस बीच, आईएमएफ से उन मुल्कों को ऋण मिलना जारी रहा, जो आतंकवाद को वित्त पोषित कर पोसते हैं। निर्दोष लोग मरते रहे जबकि संकल्प पत्र हस्ताक्षर का इंतजार करते गए। भारत ने लंबे समय तक इंतजार किया। अब उसने एक मार्ग पेश किया है - प्रभुत्व बनाने का नहीं, बल्कि रूपरेखा बदलने का। विचारधारा निर्यात करके नहीं, बल्कि एक सभ्यतागत विचार को मूर्त रूप देकर : साझा नियति के भीतर मतभेदों का सह-अस्तित्व।
नव व्यवस्था : जब कुछ हो, हम अपने हिसाब से काम करेंगे-विविधता में एकता भारत की केवल सभ्यतागत विरासत नहीं है, यह इसकी भू-राजनीतिक खासियत रही। उकसाकर विभाजित करने और पहचान के आधार पर हथियारबंद कर विद्रोह करवाने का एकमात्र प्रभावी तोड़। भारत अब आतंकवाद या उस पर प्रतिक्रिया को परिभाषित करने के वास्ते दुनिया का इंतजार नहीं करेगा। यह उनसे सहयोग करेगा जो यह होने पर पहले आवाज़ उठाएं, न कि तब, जब चोट पहुंचे। चुप्पी की कीमत निर्दोष लोगों को चुकानी पड़ती है, न कि तटस्थ बने रहने वालों को। भविष्य उन लोगों का है जो आपसी सहयोग करेंगे, न कि उनका जो जोर-जबरदस्ती करते हैं।
युद्ध का चरित्र बदल रहा हैं। ‘युद्ध से पहले युद्ध जीतना’ टकराव की सीढ़ी का नया पायदान है। मुझे लगता है कि इसमें और भी कई पायदान होंगे। समय ही बताएगा।
लेखक सेना की पश्चिमी कमान के पूर्व कमांडर और पुणे इंटरनेशनल सेंटर के संस्थापक ट्रस्टी हैं।