युद्ध के कगार पर
इसमें दो राय नहीं कि जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले में चुन-चुनकर मारे गए 26 लोगों की मौत ने पूरे देश के अंतर्मन को झकझोरा है। साथ ही इस घटनाक्रम से उपजे आक्रोश ने सरकार पर आतंकियों व उनके आकाओं को सबक सिखाने का दबाब भी बनाया है। जिसके चलते दोनों देशों की तरफ से तल्ख बयानबाजी का जो दौर शुरू हुआ, वो थमने का नाम नहीं ले रहा है। जिसने दोनों देशों के संबंधों को निचले स्तर तक पहुंचा दिया है। जवाबी कार्रवाई के दबाव में स्थितियां खतरनाक स्थिति की तरफ बढ़ गई है। दोनों देशों की सीमाओं में तनाव तेजी से बढ़ रहा है। तीखी बयानबाजी के बीच सैन्य ताकत को बढ़ाने के दावे किए जा रहे हैं। लगातार चिंताजनक होती स्थिति के बीच संयुक्त राष्ट्र संघ की तरफ से बयान आया है। दोनों पक्षों को अधिकतम संयम बरतने की सलाह दी गई है। साथ ही कहा गया है कि तनाव का स्तर कम करने की कोशिश की जाए। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस का हस्तक्षेप और सुरक्षा परिषद के बंद कमरे में हुआ सलाह-मशविरा अंतर्राष्ट्रीय जगत की चिंता को ही रेखांकित करता है। निस्संदेह, संयुक्त राष्ट्र महासचिव की चेतावनी महज कूटनीतिक बयानबाजी नहीं है। निश्चित रूप से यह परमाणु हथियारों से लैस दो पड़ोसियों के बीच संघर्ष को टालने की महत्वपूर्ण कोशिश है। हालांकि, पाकिस्तान ने इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में ले जाकर भारत के खिलाफ माहौल बनाने का उपक्रम किया था। लेकिन वैश्विक मूड हस्तक्षेप के बजाय तनाव कम करने पर केंद्रित नजर आया। इसमें दो राय नहीं कि अब तक भारत की ओर संयमित प्रतिक्रिया ने स्थिति को और बिगड़ने से रोकने में मदद ही की है। हालांकि, दंडात्मक कार्रवाई के लिये देश के भीतर बढ़ती मांग ने दिल्ली पर सैन्य विकल्पों पर विचार करने का दबाव जरूर डाला है। हालांकि देश के दीर्घकालीन हितों के मद्देनजर कूटनीतिक प्रयासों से समस्या के समाधान की कोशिश की जानी चाहिए।
लेकिन इस हकीकत को नजरअंदाज नहीं किया जाता कि आंतरिक दबाव के चलते यदि सैन्य विकल्पों को प्राथमिकता दी जाती है, तो कालांतर इससे क्षेत्र में व्यापक संघर्ष की शुरुआत हो सकती है। यह भी एक हकीकत है कि ऐसे मौके पर जब आतंकवादियों के क्रूर हमले में मारे गए लोगों के परिवार शोकाकुल हैं और जनता आक्रोशित है, संयम का आह्वान किसी को रास नहीं आएगा। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बड़े पैमाने पर संघर्ष को बढ़ावा देना कल्पना से अधिक तबाही ला सकता है। एक सैन्य टकराव न केवल इस उपमहाद्वीप को अपनी गिरफ्त में ले सकता है, बल्कि दशकों तक इस क्षेत्र को अस्थिर भी बनाये रख सकता है। विगत का अनुभव हमें याद कराता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाले युद्ध से न केवल जन-धन की व्यापक क्षति होती है बल्कि साथ में कूटनीतिक अलगाव और आर्थिक झटके भी मिलते हैं। इन हालात में यह जरूरी है कि दोनों देश बैक चैनल के जरिये कूटनीतिक प्रयास करें तथा विश्वास निर्माण के उपायों के लिए फिर से प्रतिबद्धता दिखाएं। वैश्विक समुदायों, खासकर संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका व चीन जैसे प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ियों को बयानों से आगे बढ़कर तनाव को बढ़ने से रोकने के लिये सक्रिय रूप से मध्यस्थता करनी चाहिए। हमें यह याद रखना चाहिए कि कश्मीर का सैन्य समाधान अतार्किक ही कहा जाएगा। एकमात्र वास्तविक समाधान निरंतर बातचीत में निहित है। दरअसल, आज अशांति के मूल कारणों को संबोधित करने की जरूरत है। पहली जरूरत इस बात की है कि शांति को नुकसान पहुंचाने वाले आतंकी नेटवर्क को नेस्तनाबूद किया जाए। इतिहास गवाह है कि युद्ध शांति का विकल्प कभी नहीं हो सकता। वहीं दूसरी ओर पड़ोसी कितना भी बुरा क्यों न हो भौगोलिक रूप से हम उसे बदल नहीं सकते। बुराई में अच्छाई की तलाश से स्थिति सामान्य बनाये रखने की कोशिश की जानी चाहिए। युद्ध की आकांक्षा रखने वाले लोगों को भी सोचना चाहिए कि कहीं न कहीं अंत में युद्ध की कीमत आम आदमी को ही प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से चुकानी पड़ती है।