मौन साधना का महात्म्य
महर्षि वेदव्यास गणेश जी के वाणी-संयम व मौन-व्रत को देखकर दंग थे। महर्षि ने जब तक गणेशजी को महाभारत लिपिबद्ध कराया, गणेश जी ने एक बार भी मौन भंग नहीं किया, वे केवल लेखन-कार्य में ही जुटे रहे। महाभारत लेखन पूर्ण होने पर वेदव्यास ने पूछ ही लिया, ‘पार्वती पुत्र, तुम्हारे लंबे समय तक एकाग्रता में जुटे रहने का क्या रहस्य है?’ गणेशजी ने उत्तर दिया, ‘महर्षि, सिद्धि को प्राप्त करने का मूल आधार प्राण- शक्ति को संचित किए रखना है। वाणी का संयम ही मन-मस्तिष्क को एकाग्र रखने का अचूक साधन है। वाणी पर संयम न कर पाने वाला व्यक्ति अनर्गल बोलकर तरह-तरह के विवादों में फंसता है। वाणी का उपयोग बहुत सोच-समझकर ही करना चाहिए। वाणी से निकले अर्थहीन शब्द विग्रह और द्वेष को जन्म देते हैं। वाणी का असंयम हमारी प्राणशक्ति को चूस लेता है। अतः मैं मौन-व्रत को सबसे बड़ी साधना मानता हूं।’ महर्षि वेदव्यास गणेशजी से मौन-साधना के महत्व को पूरी तरह समझकर गद्गद हो उठे।
प्रस्तुति : डॉ. जयभगवान शर्मा