मेले के झमेले और किस्से अलबेले
शमीम शर्मा
कुंभ जैसे मेले तो फिर भी कभी-कभार आते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि जीवन स्वयं में एक खूबसूरत मेला है। यह और बात है कि कइयों को जीवन का यह मेला भी झमेला लगता है। रोज़ाना कइयों से मेल होता है और सड़कों पर ही कुंभ जैसी भीड़ से वास्ता पड़ता है। जान सड़क पर जाये या संगम पर, ज़्यादा अंतर नहीं है। सोच का फर्क हो सकता है। अन्त में सब स्वर्गवासी ही होते हैं। जिनके चले गये, वे ही बता सकते हैं कि अपने परिजन को सड़क या संगम पर खोने के क्या मायने हैं। जाने वालों की तरफ से यह गाना गाया जा सकता है :-
ये जिंदगी के मेले दुनिया में कम ना होंगे,
अफसोस हम ना होंगे।
अनुराधा पौडवाल का एक हिट गाना है :-
इस मेले में लोग आते हैं, खो जाते है। मेरी उंगली पकड़ के मेरे साथ चलना।
छोड़ उंगली पकड़ मेरा हाथ सजना।
पर जब हाथ या उंगली छूटने लगती है तो कोई नहीं बचा सकता। सिर्फ चीखा-चिंघाड़ा जा सकता है। संगम का सीन आहों और आंसुओं से भरा जाता है। मेला फिर भी जारी रहता है। न रुकता है न थमता है। और यही मेलों की सबसे बड़ी खूबी है कि वे लगते रहते हैं।
असल में मेलों में जाने का उन्माद हमेशा से ही रहा है। एक हरियाणवी रागनी है जिसमें अपने साजन से एक महिला का आग्रह है कि चाहे कुछ हो जाये, मेले में ले चल :-
सजना मैं जांगी मेले म्हां, गौरी तू मत ज्या मेले म्हां
उड़ै बाज्जै सैं रमझोल फाट ज्यैं ढोल, रै गौरी रहाण दे। ओ पिया जाण दे।
पंजाबी में भी एक लोकगीत है जिसमें दुनियाभर के झगड़े, किस्से, स्यापे सब छोड़छाड़ कर मेले में चलने का आग्रह है :-
खसमा नूं खांदा तेरा घर वे, चल मेले नूं चलिये।
कुंभ का मेला कुछ लोगों के लिये आस्था, समर्पण और भक्ति भाव की बजाय उन्माद और मस्ती का मनोरंजन स्थल बन गया है। इनके लिये गंगा-यमुना फोटो लेने की अच्छी बैकग्राउंड मात्र हैं। दूर-दूर से वहां पधारे साधु-संतों के विविध रूप ज्ञान नहीं, सेल्फी लेने तक सीमित हैं। ऐसे लोग अध्यात्म योग की बजाय ‘इंस्टाग्राम योग’ करते हैं। तभी तो ऐसे लोगों को कटाक्ष में सुनने को मिल रहा है—जा आये कुंभ, डाल दिया स्टेटस, मिल गई शांति!
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एक बर की बात है अक एक लुगाई अपने घरआले की मजार पै सुबकते होये बोल्ली- छोरा लैपटाप मांगै है अर छोरी नैं मोबाइल की जिद कर राखी है। कब्र म्हां तै घुटी-घुटी सी अवाज आई- ए बावली! मैं मर गया हूं, दुबई के मेले मैं कोनीं गया।