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मुफ्त की कल्याणकारी योजनाएं स्वावलंबन दें

04:00 AM Feb 17, 2025 IST
मुफ्त की कल्याणकारी योजनाएं स्वावलंबन दें
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हरेक चुनाव से पहले राजनीतिक दलों में जनकल्याण के नाम पर लोकलुभावन घोषणाएं करने की होड़ मचती है। मतदाताओं को मुफ्त चीजों के लालच देकर प्रभावित करने की कोशिशें होती हैं। सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी अहम है कि यह प्रवृत्ति श्रम से बचने और निर्भरता को बढ़ाती है। दरअसल, कल्याण कार्यक्रम नागरिकों का अधिकार हैं लेकिन इनकी रूपरेखा ऐसी हो कि ये लोगों को सशक्त बनाएं।

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एस.वाई. कुरैशी

चुनावी मौसम में, भारतीय मतदाता पर विभिन्न राजनीतिक दलों की तरफ से वादों की झड़ी लग जाती है। राजनेताओं को अचानक आम आदमी और उसको सता रही चिंताओं की याद आने लगती है। शहरी गरीब, बेरोजगार युवा, अल्पसंख्यक, झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली जनता और आदिवासी - जिन्हें पांच सालों में अधिकतर समय उपेक्षित रखा जाता है- अचानक महत्वपूर्ण होकर, भावुक चर्चाओं के केंद्र में आ जाते हैं। यह एक भव्य तमाशा है, वादों का एक ऐसा नाटक, जिसमें नकदी के अलावा मुफ्त बिजली, भोजन और टीवी, साइकिल और लैपटॉप जैसे भौतिक साधन राजनीतिक मनुहार का माध्यम बन जाते हैं।
हाल के दिनों में, हमारे राजनीतिक शब्दकोश में एक नया शब्द शामिल हुआ है : ‘रेवड़ी संस्कृति’। प्रधानमंत्री द्वारा मुफ्त की इस तथाकथित संस्कृति की आलोचना ने एक नई बहस को जन्म दिया है, जिसमें कल्याणकारी उपायों की वैधता पर सवाल उठाते हुए पूछा जा रहा है कि क्या ये व्यवहार्य हैं या सिर्फ उदारता के वेष में राजकोषीय गैर-जिम्मेदाराना कृत्य हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अब इस मामले में दखलअंदाजी करते हुए चिंता व्यक्त की है कि अत्यधिक अनुदान लोगों को निष्क्रिय बना रहे हैं।
हाल ही में एक खंडपीठ ने टिप्पणी की कि मुफ्त का राशन लोगों को काम से बचने वाला बना सकता है, और ऐसी नीतियां एक परजीवी वर्ग पैदा कर सकती हैं। हाल ही में संपन्न दिल्ली चुनावों में, सभी प्रमुख दलों ने मुफ्त उपहार देने में एक-दूसरे के साथ होड़ लगाई थी - महिलाओं और युवाओं को मासिक नकद सब्सिडी के अलावा मुफ्त बिजली, पानी, यात्रा, चिकित्सा-उपचार और शिक्षा इत्यादि। कोई आश्चर्य नहीं कि सुप्रीम कोर्ट ने कड़े शब्दों में जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है,विचार करने लायक है।
बहस का सार व्यापक है : क्या ये मुफ्त चीज़ें गरीबों के कल्याण के लिए जरूरी हैं या चुनावी लाभ पाने को सियासी दलों की जरूरत भर हैं? एक और मुद्दा : अगर वादा गरीबों के लिए हो, तो इसे ‘मुफ्त रेवड़ी’ ठहराया जाता है, और जब अमीरों के लिए हो, तो प्रोत्साहन बताया जाता है। इस बहस में, अर्थव्यवस्था पर ध्यान कहीं पीछे छूट जाता है। भारत में मुफ्त तोहफे मोटे तौर पर दो श्रेणियों में आते हैं : वह जो चुनाव घोषणा से पहले दिए जाते हैं या वे जिनका वादा आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद किया जाता है।
पहले प्रकार वाले सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा लिए गए नीतिगत निर्णय होते हैं- सब्सिडीज़, मूल्य कटौती, नई कल्याणकारी योजनाएं जो आदर्श आचार संहिता लागू होने से पहले, सुविधाजनक समय पर लागू किए जाते हैं। दूसरी श्रेणी वाले वह हैं, जो पार्टी के घोषणापत्रों के माध्यम से पेश किए जाते हैं- राजकोषीय परिणामों की परवाह किए बिना बड़े-बड़े वादे। चाहे इसके लिए मुफ्त का भोजन, परिवहन, खातों में नकदी का वादा किया जाए, घोषणापत्र चुनाव आयोग की जांच को आकर्षित नहीं करते। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 के एक मामले में फैसला सुनाया था कि ऐसे वादे जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत ‘भ्रष्ट आचरण’ नहीं कहे जा सकते, भले ही वे निर्विवाद रूप से स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनावों की जड़ें हिलाने वाले हों’। अदालत ने चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों के परामर्श से दिशा-निर्देश तैयार करने का निर्देश दिया था। ये निर्देश वास्तव में जवाबदेह चुनाव प्रचार को बढ़ावा देने और यह सुनिश्चित करने के लिए 2013 में जारी किए गए थे कि घोषणापत्रों में किए गए वादे यथार्थवादी हों और मतदाताओं को अनुचित प्रभावित न करें। हालांकि, जो हम देखते हैं वह उल्लंघन है, यहां तक कि लाखों करोड़ रु़ बांटे जाते हैं। यह मतदाताओं को रिश्वत नहीं, तो और क्या है? और यह पैसा आता कहां से है? जाहिर है आपकी और मेरी जेब से। राजनेता हमारी जेबें खाली कर चुनाव जीतते हैं!
मुफ्त की रेवड़ियों पर बहस में दोगलापन साफ दिखता है। जब प्रावधान गरीबों के लिए हों– जैसे राशन योजना, मुफ्त बिजली, सामाजिक कल्याण लाभ - इनको रेवड़ी बता प्रचारित किया जाता है, जबकि कॉर्पोरेट अभिजात्य वर्ग को बहुत बड़े पैमाने पर दी टैक्स कटौती को राष्ट्र की प्रगति के लिए जरूरी वित्तीय 'प्रोत्साहन' बताया जाता है। आंकड़े इस तर्क का समर्थन करते हैं।
वर्ष 2019 में, सरकार ने घरेलू निर्माताओं के लिए कॉर्पोरेट कर की दर को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत और नई विनिर्माण कंपनियों के लिए 25 से घटाकर 15 प्रतिशत कर दिया था,इस कदम से सरकारी खजाने को 1.5 लाख करोड़ रु. का नुकसान हुआ, जिससे राजकोषीय घाटा काफी बढ़ा। यह निर्णय 36 घंटों में क्रियान्वित भी कर दिया गया,जोकि मंत्रिमंडल में रखे बिना विशेषाधिकार प्रावधान के जरिये लागू किया गया। ऑक्सफैम की रिपोर्ट से खुलासा होता है कि कोविड-19 महामारी के दौरान, जहां गरीबी बढ़ी और बेरोजगारी 15 प्रतिशत जैसे उच्च स्तर पर पहुंच गई वहीं भारत में अरबपतियों की संख्या में 39 प्रतिशत वृद्धि हुई। 10 सबसे अमीर भारतीयों ने इस दौरान जितना मुनाफा बनाया, वह 25 वर्षों तक भारत के प्रत्येक बच्चे की शिक्षा के लिए पर्याप्त धन जितना है। यह शाश्वत विरोधाभास है। जब सरकार अरबपतियों को कर-लाभ देती, तो यह आर्थिक सुधार के नाम पर होता है। लेकिन जब राहत गरीबों को प्रदान करनी हो तो इसे राजकोषीय गैर-जिम्मेदारी करार दिया जाता है।
मुफ्त चीजों से निर्भरता बढ़ने के बारे में शीर्ष अदालत की हालिया टिप्पणी इस बहस में एक और गंभीर आयाम जोड़ती है। विशेष रूप से ग्रामीण भारत को लेकर चिंता यह जताई जा रही है कि मुफ्त राशन और कल्याण योजनाएं श्रम करने को हतोत्साहित कर रही हैं। न्यायमूर्ति बीआर गवई ने टिप्पणी की कि महाराष्ट्र में किसानों को खेत मजदूर मिलने में मुश्किल आ रही है क्योंकि वे दिहाड़ी की बजाय मुफ्त राशन पर निर्भर रहने को तरजीह देने लगे हैं। जब से मनरेगा योजना विभिन्न रूपों में शुरू हुई है, इस तंगी का असर पंजाब में विशेष रूप से नजर आ रहा है। इससे इस तर्क को बल मिलता है कि कल्याणकारी उपायों की रूपरेखा ऐसी हो कि लोग सशक्त बनें न कि स्थायी निर्भरता पैदा करने वाली।
निर्भरता बनने के पीछे असल दोषी किफायती स्वास्थ्य सेवा, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्थाई रोजगार अवसरों की कमी है, न कि कल्याणकारी कार्यक्रम। अगर लोगों के पास सुरक्षित, अच्छे वेतन वाली नौकरियां हों, तो वे दान के रूप में मिलने वाले मुफ़्त के अनाज पर निर्भर नहीं होंगे।
कल्याण एक सहायक सीढ़ी बने न कि निठल्ला बनाने वाला प्रश्रय। यह विडंबना है कि दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दंभ भरने वाला देश 80 करोड़ से अधिक लोगों को बतौर दान मुफ़्त राशन दे रहा है- जो इसकी आबादी का लगभग 60 प्रतिशत है। सवाल, क्या गरीब मुफ़्त चीज़ों से आसानी से प्रभावित हो जाते हैं, खासकर जब सभी पार्टियां एक जैसे वादे करती हों?
ऐतिहासिक रूप से, हमने मुफ़्त चीज़ों/कल्याणकारी योजनाओं के कई फायदे देखे हैं। जब तत्कालीन सीएम एनटी रामाराव ने आंध्र प्रदेश में ‘एक रुपये प्रति किलो चावल’ योजना शुरू की, तो उनका मजाक उड़ाया गया था, लेकिन इसका नतीजा हुआ कि भुखमरी से मौतें अतीत की बात हो गईं। नीतीश कुमार द्वारा स्कूली छात्राओं को मुफ्त साइकिलें देने से बिहार में लड़कियों की स्कूलों में हाजिरी और पढ़ाई जारी रखने की दर में वृद्धि हुई। रोजगार गारंटी योजनाओं ने लाखों लोगों को आय सुरक्षा प्रदान की है, भले ही इसने शहरी अभिजात्य वर्ग के लिए घरेलू नौकरों की कमी पैदा कर दी हो।
भारत में बहस इसको लेकर नहीं होनी चाहिए कि हमें कल्याण योजनाओं की आवश्यकता है या नहीं, बल्कि यह यकीनी बनाने के बारे में हो कि इनकी रूपरेखा सही ढंग की और टिकाऊ हो। मुफ्त स्वास्थ्य सेवा, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और रोजगार के अवसर तोहफे या रियायतें नहीं। वे लोकतंत्र में नागरिक का हक हैं। रेवड़ियों की बजाय, हमें अधिकारों और स्वतंत्रताओं के बारे में बात करनी चाहिए।

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लेखक भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे हैं।

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