मुख्य मुकाबले में बने रहने को कांग्रेसी विचार मंथन
अब कांग्रेस एक चौराहे पर खड़ी है—या तो इस जोश को जमीनी मेहनत में बदलकर वापसी का रास्ता बनाए, या फिर मोदी की चुनावी रणनीति के सामने धीरे-धीरे अप्रासंगिक हो जाए। एआईसीसी सत्र शुरुआत थी—मगर असली लड़ाई भारत के मतदाताओं के दिलों में लड़ी जाएगी।
के.एस. तोमर
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने हाल ही में अपना एआईसीसी सत्र अहमदाबाद में आयोजित किया। यह फैसला केवल संयोग नहीं था, बल्कि एक सूक्ष्म राजनीतिक रणनीति का हिस्सा था। कांग्रेस ने ने सरदार पटेल की कर्मभूमि के भाजपा द्वारा राष्ट्रीय प्रतीकों के ‘अधिग्रहण’ को चुनौती दी और पार्टी कैडर को आगामी चुनावी संघर्षों के लिए तैयार करने का प्रयास किया।
कांग्रेस यह संदेश देना चाहती है कि सरदार पटेल कांग्रेस के विचारों से बाहर नहीं, बल्कि उसकी आत्मा के प्रमुख स्थापक रहे हैं। यद्यपि एआईसीसी सत्र में नयापन और जोश नजर आया, लेकिन पार्टी के सामने कई गंभीर चुनौतियां हैं। इन चुनौतियों में राज्यों में कांग्रेस की राज्यस्तरीय संगठनात्मक संरचना का कमजोर होना व युवाओं से जुड़ाव की कमी है। दरअसल, पहली बार वोट देने वाले युवा अब भी बीजेपी की राष्ट्रवाद और आकांक्षी राजनीति से अधिक प्रभावित हैं। चुनौती यह भी कि पार्टी में राहुल गांधी की औपचारिक स्थिति अब भी स्पष्ट नहीं है। वहीं पार्टी अब तक इंडिया गठबंधन में शामिल तृणमूल, आप और सपा जैसे दलों के साथ मतभेदों का समुचित प्रबंधन नहीं कर पायी है। वहीं पार्टी भाजपा के हिन्दुत्व के ध्रुवीकरण के मुकाबले उदार हिंदू वोटर को आकर्षित नहीं कर पायी, जिससे अल्पसंख्यकों की सुरक्षा-विश्वास सुनिश्चित होे।
एआईसीसी सत्र में कांग्रेस ने बूथ-स्तर के अभियानों, भारत जोड़ो यात्रा 2.0, और युवा, ऊर्जावान सोशल मीडिया पहलों की घोषणा की। कांग्रेस का ‘हाथ से हाथ जोड़ो’ अभियान सीधे मतदाता से संपर्क साधने का प्रयास है। महिला कांग्रेस, युवा कांग्रेस और एनएसयूआई जैसे फ्रंटल संगठनों को फिर से सक्रिय करने का निर्णय लिया गया है।
गुजरात में कांग्रेस ने अपनी अलग पहचान को सामने रखा, मगर यह सत्र इंडिया गठबंधन में उसकी भूमिका को अनदेखा नहीं कर सका। राहुल गांधी ने स्पष्ट रूप से कहा कि कांग्रेस इस गठबंधन को एक सूत्र में पिरोने वाली कड़ी है और सीट बंटवारे को लेकर सम्मानजनक संवाद आवश्यक होगा। कांग्रेस ने साफ कर दिया कि वह गठबंधन राजनीति के लिए प्रतिबद्ध है, परंतु किसी भी स्थिति में दूसरे दर्जे की भूमिका स्वीकार नहीं करेगी। विशेष रूप से राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में, जहां उसकी मजबूत पकड़ है, वह अधिकतम सीटों पर चुनाव लड़ेगी। कांग्रेस का यह दृष्टिकोण—स्वतंत्र शक्ति के प्रदर्शन और साझा विपक्ष की एकता बनाए रखना—2029 के आम चुनाव तक संतुलन साधने की एक बड़ी परीक्षा होगा।
पिछले दो दशकों से भाजपा के गढ़ रहे गुजरात में एआईसीसी सत्र आयोजित करना कांग्रेस का साहसिक निर्णय था। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सिर्फ 17 सीटें जीत पाई थी। इस सत्र के जरिए पार्टी ने संकेत दिया कि वह वैचारिक जमीन छोड़ने को तैयार नहीं और उन क्षेत्रों में भी फिर से जड़ें जमाएगी।
यह केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि विरासत की बात थी। कांग्रेस से जुड़े महात्मा गांधी और सरदार पटेल—दोनों महान स्वतंत्रता सेनानी—गुजरात से थे। पिछले एक दशक में भाजपा ने पटेल की छवि को हथियाने का भरपूर प्रयास किया है—उन्हें एक ‘नजरअंदाज किए गए राष्ट्रवादी’ के तौर पर पेश किया गया। ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ इसका प्रतीक है, मगर ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि पटेल कांग्रेस के एक कट्टर नेता थे, नेहरू के घनिष्ठ सहयोगी और संवैधानिक लोकतंत्र के प्रबल पक्षधर।
राहुल गांधी ने याद दिलाया कि बतौर भारत के पहले गृहमंत्री, पटेल ने रियासतों के एकीकरण में अहम भूमिका निभाई थी—एक सेक्युलर और एकजुट भारत के निर्माणकर्ता के रूप में, न कि किसी हिन्दू राष्ट्रवादी के रूप में। संघ परिवार ने पटेल को नेहरू के वैचारिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में पेश करने की जो कोशिश की है, उसे कांग्रेस ने तथ्यात्मक रूप से चुनौती दी। पटेल ने गांधी जी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया और भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ढांचे की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
आयोजन के जरिये मल्लिकार्जुन खड़गे की अध्यक्षता ने पुराने और नए नेतृत्व के बीच संतुलन को दर्शाया, वहीं राहुल और प्रियंका गांधी ने नई पीढ़ी का चेहरा पेश किया। सोनिया गांधी ने अपने संक्षिप्त भाषण में ‘सत्य और धैर्य से संघर्ष’ का संकल्प दोहराया। राहुल गांधी ने मुख्य भाषण में भावनात्मक और रणनीतिक दोनों ही पक्षों को जोड़ा। उन्होंने मोदी सरकार पर संस्थाओं के दुरुपयोग, लोकतंत्र की कमजोर पड़ती संरचना, बेरोजगारी, पूंजीवाद और असहमति की आवाज को दबाने जैसे मुद्दों को उठाया।
निस्संदेह, एआईसीसी सत्र केवल औपचारिकता नहीं था, बल्कि एक रणनीतिक पुनर्संरेखन था। सरदार पटेल की भूमि को चुनकर कांग्रेस ने भाजपा के ‘राष्ट्रवाद के एकमात्र ठेकेदार’ होने के दावे को खुली चुनौती दी।
अब कांग्रेस एक चौराहे पर खड़ी है—या तो इस जोश को जमीनी मेहनत में बदलकर वापसी का रास्ता बनाए, या फिर मोदी की चुनावी रणनीति के सामने धीरे-धीरे अप्रासंगिक हो जाए। एआईसीसी सत्र शुरुआत थी—मगर असली लड़ाई भारत के मतदाताओं के दिलों में लड़ी जाएगी।
लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।