महंगी पड़ेगी सुस्ती
निस्संदेह, राष्ट्र की सुरक्षा से जुड़ी सुरक्षा उत्पादों की आपूर्ति में किसी भी लेट-लतीफी को बेहद गंभीरता से लिया जाना चाहिए। खासकर ऐसे वक्त में जब देश की दो तरफ की सीमाओं पर सुरक्षा चुनौतियां बरकरार हैं। इसी आलोक में एयर चीफ मार्शल ए.पी. सिंह की चिंताओं से सहमत हुआ जा सकता है। हाल ही में उन्होंने कहा था कि मेरे ख्याल से एक भी परियोजना तय सीमा पर पूरी नहीं होती है। निस्संदेह, यह कथन देश की स्वदेशी उत्पादों की रक्षा तैयारियों में विलंब की प्रवृत्ति की ओर इशारा करता है। देश के नेताओं का स्वदेशी सुरक्षा उत्पादों की जरूरत पर बल देना निस्संदेह, सराहनीय कदम है, लेकिन सुरक्षा चुनौतियों के मद्देनजर उनकी समय पर आपूर्ति भी सुनिश्चित करने की जरूरत है। खासकर तेजस लड़ाकू विमान व आकाश मिसाइल प्रणाली, के बावजूद लगातार होने वाली देरी परिचालन तत्परता को बाधित करती है। निस्संदेह, लेट-लतीफी की यह प्रवृत्ति आधुनिकीकरण को पटरी से भी उतार सकती है। दरअसल, यह देरी, जो अकसर अनुबंध पर हस्ताक्षर करने के चरण में ही स्वीकार कर ली जाती है, कालांतर प्रणालीगत जड़ता और अति-वायदे की संस्कृति को ही उजागर करती है। हमारे पड़ोसी देशों में तेजी से होते सैन्य आधुनिकीकरण और युद्ध तैयारियों में गहन तकनीक के इस्तेमाल होने के चलते, हमें इस सुस्ती की बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। निर्विवाद रूप से यह महज बजट या नौकरशाही की लालफीताशाही का मामला भर नहीं है। वास्तव में यह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा एक बेहद संवेदनशील विषय है। निस्संदेह, सरकार की ओर से घेरलू रक्षा उत्पादकता को बढ़ावा देने की पहल एक स्वागत योग्य कदम है। विगत के संकटकाल के दौरान देखने में आया है कि युद्ध व चुनौतिपूर्ण स्थितियों में हम विदेशों में अपनी जरूरत का सामान तलाशते रहे हैं। कई देशों ने मुश्किल वक्त में सामान की आपूर्ति में ना-नुकुर भी की है। कारगिल युद्ध के समय भी कुछ ऐसे अनुभव देखने में आए थे।
राजग सरकार का घरेलू रक्षा उत्पादन की तरफ बढ़ाया गया कदम निस्संदेह सराहनीय है। यह उत्साहजनक है कि हमारा घरेलू रक्षा उत्पादन कुल रक्षा जरूरतों का 65 प्रतिशत हो गया है, रक्षा निर्यात 24,000 करोड़ रुपये तक बढ़ गया है। साथ ही सार्वजनिक-निजी उत्पादन का संतुलन धीरे-धीरे पक्ष में जा रहा है। वहीं आईडीईएक्स जैसी योजनाएं नवाचार को बढ़ावा दे रही हैं। उल्लेखनीय है कि अब निजी क्षेत्र कुल रक्षा उत्पादन में 21 फीसदी का योगदान दे रहा है। लेकिन जब जरूरी रक्षा उत्पादों की आपूर्ति समय पर नहीं हो पाती, तो यह हमारी रणनीतिक स्वायत्तता के लिये असहज स्थिति पैदा कर देती है। दरअसल, यह स्थिति इस घरेलु उद्योग की संरचनात्मक विसंगतियों को दूर करने की जरूरत बताती है। इस दिशा में ध्यान देने की महती जरूरत है कि कच्चे माल की समय पर आपूर्ति सुनिश्चित की जाए। साथ ही शोध व अनुसंधान तथा विकास के लिये पर्याप्त आर्थिक संसाधन समय रहते उपलब्ध कराए जाएं। यह दृष्टव्य है कि देश के 6.81 लाख करोड़ रुपये के रक्षा बजट में मात्र 1.8 लाख करोड़ रुपये की राशि आधुनिकीकरण के लिए निर्धारित की गई है। उसमें शोध-अनुसंधान व विकास के लिये निर्धारित राशि आधुनिकीकरण के बजट में 3.94 फीसदी ही है। निश्चित रूप से जब तक इस वित्तीय संसाधनों के संतुलन को दुरुस्त नहीं किया जाता, तब तक हम समय की चुनौती का मुकाबला करने में सक्षम नहीं हो पाएंगे। निस्संदेह, देश के रक्षा क्षेत्र के तीन सार्वजनिक उपक्रमों यानी डीपीएसयू को ‘मिनी रत्न’ घोषित करना स्वागत योग्य कदम है। लेकिन वायुसेना प्रमुख की चेतावनी को रक्षा खरीद पारिस्थितिकी तंत्र में आमूल-चूल परिवर्तन के लिये आग्रह के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके लिये जरूरी है कि समय सीमा में पारदर्शिता, अनुबंधों के सख्ती से क्रियान्वयन और महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के प्रबंधन में गुणवत्ता को प्राथमिकता दी जाए। निश्चित रूप से रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के भारत के संकल्प को विलंबित नहीं किया जा सकता। राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े उपक्रमों को गति देने की आवश्यकता है। इसमें लेट-लतीफी की कोई जगह नहीं हो सकती।