मम्मी की रोटी गोल-गोल
उसने रोटी बनाने के लिए लोई उठाई और बाकी बची दो लोइयों में से अपनी लोई का एक बड़ा-सा हिस्सा तोड़कर पहली लोई में मिला दिया और रोटी बनाने लगी। यह औरतें भी बड़ी अजीब होती हैं। मां हमेशा कहती थी पति के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है। वक्त के साथ साक्षी ने यह बात भली-भांति समझ ली थी। साक्षी ने गर्म-गर्म करारी फूली रोटी अमन की थाली में परोस दी।
डॉ. रंजना जायसवाल
रोटी सेंकती स्त्रियां साक्षी को बेहद पसंद थीं क्योंकि उसने बचपन से अपने घर में महिलाओं को चौका-चूल्हा करते ही देखा था। उसका घर आम भारतीय परिवारों की तरह था। मां जब चकले पर गोल-गोल रोटियां बेलती तो वह उनके पास खिसक आती और वह जोर-जोर से गाती।
‘मम्मी की रोटी गोल-गोल,
पापा का पैसा गोल-गोल,
नीचे धरती गोल-गोल,
चंदा गोल, सूरज गोल,
हम भी गोल, तुम भी गोल,
सारी दुनिया गोल-मटोल।’
मां उसकी इस हरकत पर खिलखिला कर हंस पड़ती। मां की रोटियों का जादू ही ऐसा था। गोल-गोल रोटियां, मां के माथे पर चमकती लाल सिंदूरी बिंदी की तरह बिल्कुल गोल। न कोई दर्पण न कोई सहारा पहली उंगली को सिंदूरदानी में डूबो कर बस अंदाज से दोनों भौंहों से थोड़ा ऊपर ठीक माथे के बीचों-बीच न जाने मां कैसे लगा लेती थी, चमकती सिंदूरी गोल बिंदी! यह बात हमेशा से साक्षी के लिए एक कौतूहल का विषय रही। बाल मन वैसे भी हर बात में सवाल ढूंढ़ ही लेता है। उम्र बढ़ने के साथ उसके सवाल कम होते चले गए या शायद उन सवालों के जवाब उसे मिल गए थे।
मां ससुराल में इकलौती बहू थीं। इसलिए उनसे उम्मीदें भी कुछ ज्यादा ही थी। मां जब भी आटा गूंथने बैठती साक्षी घर के किसी भी कोने में होती दौड़ी चली आती। मां पीतल के परात में कनस्तर से बड़े प्यार से आटे को रखती जाती। देखते ही देखते आटे का छोटा-सा पहाड़ बन जाता। मां आटे के पहाड़ के बीचों-बीच जब लोटे से पानी डालती तो वह पहाड़ नीचे की तरफ दबता चला जाता और थोड़ी देर बाद पानी बाहर की तरफ आने लगता जैसे ज्वालामुखी फूटकर बाहर निकल रहा हो और उसका लावा इधर-उधर बिखर रहा हो। एक मीठी-सी खुशबू पूरे रसोई घर में बिखर जाती, जैसे बारिश की बूंदों के पड़ने से मिट्टी की सोंधी खुशबू वातावरण में भर जाती है, ठीक वैसे ही... आटा पानी का साथ पाते ही खुशी से खिल उठता। मां धीरे-धीरे करके आटे में पानी डालती जाती और अपने सुघड़ हाथों से आटे को समेटती जाती। धीरे-धीरे आटा गोलाकार रूप ले लेता।
‘मां! आप कितने अच्छे से आटा गूंथती हो, परात चम-चम चमक रही है। लगता ही नहीं कि अभी-अभी इसमें आटा गूंथा गया हो।’ साक्षी आश्चर्य से कहती।
‘साक्षी आटा गूंथना भी कला है। आटा ऐसा गूंथों कि रोटियां चिकनी और मुलायम बने और बर्तन में जरा भी न चिपके।’
मां वाकई में बहुत सुघड़ थी। हाथ इतने सधे कि बिना चकले के भी हथेलियों के बीच आटे की लोइयां से खेलते वो सधे हाथ पिट-पिट कर मिनटों में चांद की तरह गोल रोटियां बनाकर दहकती और धधकती आग पर आंच से लाल तवे पर प्यार से डाल देती। एक तरफ से सिकने के बाद वह रोटी को झट से पलट देती। रोटी पर सुनहरी चित्तियां पड़ जाती। जिन्हें देख ऐसा लगता मानो किसी ने गोरी के दुपट्टे में तारे टांक दिए हों। एक बार उसने मां को रोटी बनाते हुए देख बड़े प्यार से पूछा था।
‘मां दादी तो तुमसे बहुत खुश रहती होगी। कितनी सुंदर गोल-गोल रोटी बनाती हो, बिल्कुल चांद की तरह...’
मां उसकी बात को सुन न जाने क्यों मुस्कुरा पड़ी थी। उस मुस्कुराहट में कुछ ऐसा था जिसे वो समझने की कोशिश कर रही थी। मन के घोड़े की लगाम जितना भी कसो वह मानता कहां है। शायद मां को कुछ याद आ गया था। मां के पास यादों का खजाना था। मां कुछ भी नहीं भूलती थीं। भूलती भी तो कैसे? हम यादों को खर्च कहां करते हैं। बल्कि यादों को सामान की तरह सहेज कर रखते जाते हैं और वक्त-बेवक्त, अकेलेपन के घोर अंधेरे में उन्हें उलटते-पलटते रहते हैं।
साक्षी कभी-कभी सोचती अगर मां की यादों के बारे में बात करने चलो तो उनके हिस्से में यादों का एक बड़ा-सा जंगल आएगा। उनके पास हर बात के पीछे एक याद थी। दादी से मां के रिश्ते कुछ खास नहीं थे। बस वैसे ही थे जैसे भारतीय समाज में सास और बहू के होते हैं पर मां को दादी से कभी कोई शिकायत नहीं थी। वह किसी से कोई शिकायत नहीं करती। वह चुप रहती थी पर अंदर का शोर उन्हें हमेशा बेचैन किए रहता था। सच भी है शिकायतें वहीं शोर करती हैं जहां रिश्ता बचाए रखने की चाह होती है। मां हर हाल में अपने रिश्ते को बचाकर रखना चाहती थी शायद इसीलिए भी वह चुप रहती थी। क्योंकि उनके बोलने का मतलब घर में कलह और अशांति थी।
मां यह बात जीवनभर नहीं भूल पाई, यह किस्सा मां ने ही बताया था। ब्याह के कुछ दिनों बाद जब मां का सामना दादी से रसोई घर में पड़ा।
‘अरर्र...! ये क्या कर रही है बहुरिया, तेरी मां ने कुछ भी नहीं सिखाया है। कोरा ही भेज दिया।’
‘कोरा?’
मां स्तब्ध थी। सिलाई, कढ़ाई, बुनाई सबमे तो पारंगत थी वो! चादरों पर ऐसे बूटे काढ़ती लगता अभी बोल पड़ेंगे। हाथ में इतनी सफाई अगल-बगल की चाची-ताई भी जल-कुढ़ मर जाए।
‘शकुंतला की बेटी को देख चार दिन में फुल आस्तीन का स्वेटर उतार देती है। अपनी अम्मा का पेटीकोट, ब्लाउज, फॉल-पिको खुद ही सिती है। चादर-साड़ी में सुग्गा-चिरइया ऐसे काढ़ती है लगता है बस ये उड़ा वो उड़ा... एक नाशपीटी हमारी छोरियां हैं जिनसे एक सीधा टांका भी नहीं कढ़ता।’
अपनी सुघड़ता के चर्चे बचपन से सुनने वाली मां को ससुराल में पहले ही हफ्ते खुद के लिए कोरा शब्द सुनना अजीब था। शायद हर बहू के हिस्से ये शब्द आता है। औरत के बचपन से लेकर जवानी तक के जीवन में मायके में लिखा एक-एक शब्द मांग में चुटकी भर सिंदूर के भरते ही बदल जाता है। शादी के पहले जीवन की किताब का लिखा एक-एक पन्ना पलट दिया जाता है फिर उस कोरे पन्ने पर नई इबारत लिखी जाती है। मां के साथ भी ऐसा ही हुआ था।
‘ऐसे कौन आटा गूंथता है! गूंथ कर गोल-गोल थाप दी हो। अभी हम सब जिंदा है, पितरों को खिलाने जा रही है? आटा गोल-गोल गूंथ कर रखने से पितरों को भोग लगता है। जीवित लोगों के लिए आटे में निशान बनाने पड़ते हैं। तेरी मां ने बताया-सिखाया नहीं…।’
मां ने देखा तो था पर उसके पीछे के कारण पर मां कभी गई ही नहीं। नानी आटा गूंथने के बाद अपनी उंगलियां गूंथे हुए आटे में धंसा देती। साक्षी खुशी से ताली बजाने लगती।
‘नानी! ये तो छोटी-छोटी केव हैं।’
‘केव क्या होता है बिटिया?’
‘गुफा, जिसमें शेर रहता है। एनसेंट पीरियड में हमारे पूर्वज रहते थे।’
अपनी नातिन के छोटे मुंह से बड़ी-बड़ी बातें सुन नानी आश्चर्य में पड़ जाती।
‘सीमा! अपनी बिटिया को संभाल, ये तो अभी से सबके कान काटने लगी है।’
नन्ही साक्षी नानी की नज़र बचाकर उन छोटी-छोटी गुफाओं में अपने छोटे-छोटे हाथों से लोटे में बचे पानी को धीरे से डाल देती और गुफाएं पानी से भर जाती।
‘अरे ये कर दी बिटिया आटा गीला हो जाएगा।’
नानी झट से परात को टेढ़ाकर पानी निकाल देती और आटा दुबारा गूंथ अपनी उंगलियों को हल्के से फेरकर गूंथे आटे में निशान बना देती। ये निशान पहले निशान से थोड़े अलग होते। कुछ-कुछ समुद्र की लहरों की तरह जो अपनी विशाल लहरों के निशान रेत पर छोड़ आगे बढ़ जाते या फिर अपने पैर पीछे खींच लेते हैं।
खेल-खेल में मेले से खरीदे गए चकला-बेलन जीवनभर की सच्चाई बन जाएंगे, ये किसी औरत ने कहां सोचा था। साक्षी को यह बात कभी समझ नहीं आई कि सभ्यता की शुरुआत में यह किसने तय किया होगा कि लड़कियां खाना बनाएंगी और लड़के बाहर का काम,… एक बार उसने मां से पूछा भी था।
‘मां होटल-रेस्टोरेंट में आदमी लोग खाना बनाते हैं पर पापा-दादू तो आप की किचन में मदद भी नहीं करते।’
न जाने क्यों मां ने उसे झिड़क दिया था।
‘कुछ भी पूछती है।’
पर मां भी उस रात सो नहीं पाई थी। जब सारी दुनिया सो गई थी और अंधेरा अपने पैर पसारे पूरे कमरे में फैल गया था। मां ने साक्षी के बालों में फिराते हुए कहा था,
‘साक्षी तूने आज बात तो सही कही थी, इस तरह से तो मैंने कभी सोचा ही नहीं!’
साक्षी आश्चर्य से मां की तरफ देखती रही। वह समझ नहीं पा रही थी क्या वाकई में उसने ऐसी बात कह दी थी जिसने उसकी मां की नींद उड़ा दी थी पर मां की जिंदगी में कुछ भी नहीं बदला। मां पहले की तरह ही रोटी बनाती रही। मां नपे-तुले हाथों से एक जैसी लोइयां नोंच-नोंच तोड़ती और हथेलियों के बीच घुमा-घुमाकर उन्हें चिकना कर पेड़े बनाती और लकड़ी के बेलन से सधे हुए हल्के हाथों से घुमा-घुमा कर रोटी बनाती। रोटियां भी मां के हाथों में जाकर खुशी से फुली नहीं समाती थी शायद इसीलिए आग में जलकर भी वह फूलकर कुप्पा हो जाती।
मां... सर्दी हो गर्मी, उनकी पसंदीदा पनीर की सब्जी हो या तरोई की सब्जी वह कुल जमा दो ही रोटी खाती थी। कुल जमा दो …जिनमें पहली रोटी हमेशा बाकी रोटियों की तरह बड़ी होती और दूसरी छोटी क्योंकि वह सिर्फ रोटी नहीं परात में चिपके आटों को समेट कर बनाई जाती थी। मां हिसाब-किताब में पक्की थीं पर रोटियों के हिसाब में न जाने क्यों इतनी कच्ची थीं। भूख तो उन्हें भी औरों की तरह लगती थी पर वह अपनी आधी-अधूरी रोटियों के साथ अपना पेट भर यह सोचकर संतुष्ट हो जाती थी कि उनके परिवार के लोगों का तो पेट भर रहा है।
साक्षी को हमेशा यही लगता था मां जिस तरीके से रोटी बनाती है शायद उन्हें लोइयों का अंदाजा नहीं रहता। जब उसकी शादी होगी और वह गृहस्थी संभालेगी तब वह गूंथे हुए आटे से नोंच-नोंच कर लोइयां नहीं निकालेगी बल्कि लोइयां एक बराबर पहले से ही काट कर रख लेगी। उसकी रोटी मां की दूसरी रोटी की तरह छोटी नहीं होगी पर...
‘साक्षी! यह क्या तरीका है रोटी बनाने का? क्या अब घर की औरतें रोटियां गिनकर बनाएंगी? परिवार के लोग रोटियां गिन कर खाएंगे? घर के मर्द दिनभर मर-मरकर काम करते हैं और घर की औरतें रोटियां गिन-गिन कर बनाएं। बड़े-बुजुर्ग कह गए हैं रोटियां गिनकर बनाने से दोष पड़ता है। तुम्हारी मां ने कुछ सिखाया नहीं, कोरा ही भेज दिया है।’
‘कोरा?’
साक्षी स्तब्ध थी, समय बदल गया था। पीढ़ी बदल गई थी पर औरतों के लिए सोच आज भी नहीं बदली थी। वक्त के साथ साक्षी अपनी नई गृहस्थी में रच-बस गई थी। अपनी सास की बात को अनदेखा और अनसुना कर वह लोइयां काट-काट कर बनाती रही।
‘गुनगुन बाबा, दादी से कहो खाना खाने का समय हो गया है। मम्मी रोटी बना रही है सब लोग डाइनिंग टेबल पर आ जाएं। वरना रोटियां ठंडी हो जाएंगी।’
‘मम्मा! आज खाने में क्या बना है?’
मासूम गुनगुन ने बड़े प्यार से पूछा।
‘आज तेरे पापा की फेवरेट पनीर की सब्जी बनी है।’
गुनगुन बाबा के कमरे की ओर दौड़ पड़ी। सब खाना खाने के लिए डाइनिंग टेबल पर बैठे थे। साक्षी बड़ी फुर्ती के साथ रोटियां बना रही थी। उसके सधे हाथ संगमरमर की चकले पर तेजी से चल रहे थे। चकले का स्वरूप बदल चुका था उसकी मां लकड़ी की चकले पर रोटियां बनाया करती थी और वह संगमरमर के। साक्षी के पति को पनीर की सब्जी बेहद पसंद थी।
‘मजा आ गया आज तो साक्षी, कितनी बढ़िया सब्जी बनाई है तुमने...’
साक्षी के पसीने से भीगे चेहरे पर खुशी छा गई। सास-ससुर खा कर उठ चुके थे, गुनगुन अंतिम कौर खा रही थी।
‘तुम भी आ जाओ सब खाना खा ही चुके हैं। एक रोटी और मिलेगी सब्जी बड़ी बढ़िया बनी है पेट भर गया पर मन नहीं भरा।’
साक्षी अमन की आदत जानती थी पनीर की सब्जी के साथ वह एक रोटी ज्यादा ही खाते थे। वह मन ही मन कैलकुलेशन करने लगी परात में तीन लोइयां ही रह गई थी।
‘अभी देती हूं।’
वह रसोई घर की तरफ बढ़ गई और उसने लोइयों की तरफ देखा। वह भी अपनी मां की तरह सिर्फ दो रोटी ही खाती थी। वह सोच रही थी अमन की पसंदीदा सब्जी बनी है। दिनभर कितनी मेहनत करते हैं वह… खाने-पीने का होश भी नहीं रहता है। उसने रोटी बनाने के लिए लोई उठाई और बाकी बची दो लोइयों में से अपनी लोई का एक बड़ा-सा हिस्सा तोड़कर पहली लोई में मिला दिया और रोटी बनाने लगी। यह औरतें भी बड़ी अजीब होती हैं। मां हमेशा कहती थी पति के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है। वक्त के साथ साक्षी ने यह बात भली-भांति समझ ली थी। साक्षी ने गर्म-गर्म करारी फूली रोटी अमन की थाली में परोस दी।
‘तुम भी आ जाओ।’
‘आती हूं।’
साक्षी कहकर रसोई घर की तरफ बढ़ गई और उसने अपने थाली परोसी और डाइनिंग टेबल की तरफ बढ़ गई।
‘पापा मम्मी की रोटी देखो? एक इतनी बड़ी और एक इतनी छोटी!’
गुनगुन ने अपनी छोटी-छोटी हथेलियों को फैलाकर दिखाया। आज मां बहुत याद आ रही थी। मां की थाली में परोसी हुई वह छोटी और बड़ी रोटी के पीछे का सच आज उसे समझ में आ गया था।