मध्य वर्ग के विरोधाभास और शिक्षा का बाजारीकरण
शिक्षा की दुकानें अपने पैकेज्ड यानी कमोडिफ़ाइड शिक्षा की कीमत कम करें। हालांकि, सरकार से यह मांग करना कि जो टैक्स हम भरते हैं, उसका सही इस्तेमाल किया जाए ताकि कम से कम किफ़ायती, समावेशी और अच्छी गुणवत्ता वाले सरकारी स्कूल, सरकारी विश्वविद्यालय और सरकारी अस्पताल मिल सकें, इस हक के वास्ते सड़क पर उतरना हमें मंजूर नहीं।
अविजित पाठक
जब हाल ही में मैंने राष्ट्रीय राजधानी में फीस में अनाप-शनाप वृद्धि-ट्यूशन फीस से लेकर वातानुकूलित कक्षाओं के लिए अतिरिक्त शुल्क तक के खिलाफ गुस्साए अभिभावकों की खबरें देखीं तो मेरे मन ने उन विरोधाभासों पर विचार करना शुरू कर दिया, जो तथाकथित तरक्कीपसंद एवं महत्वाकांक्षी वर्ग के जीवन-ढंग को चरित्रार्थ करते हैं। हां, मैं समझ सकता हूं कि कोई फैंसी निजी स्कूल, जहां वे अपने बच्चों को शिक्षा के लिए भेजते हैं, यदि मनमाने ढंग से फीस बढ़ा दे, उनकी जरा सुनवाई न करे और उन्हें महंगी वर्दी, नोटबुक और गैर-एनसीईआरटी पाठ्य पुस्तकें खरीदने के लिए मजबूर करे, तो गुस्सा होने के उनके कारण वाजिब हैं। मेरी उस अभिभावक से पूरी सहानुभूति है, जब वह कहता है कि एक बंदे की कमाई पर चलने वाले परिवार के लिए 50,000 रुपये सालाना प्रति बच्चा का अतिरिक्त चुकाना बेहद मुश्किल हो जाएगा।
फिर भी इन गुस्साए अभिभावकों से एक सवाल पूछे बिना मुझसे रहा नहीं जा रहा: क्या उन्हें नहीं पता था कि बच्चों को इन आलीशान निजी स्कूलों में भेजने का उनका फैसला शिक्षा के बाजारीकरण और वस्तुकरण को अपनी सहमति देने जैसा था? और क्या यह सच नहीं है कि हममें से कई लोग, जो इस वर्ग से हैं, क्या कभी उन्होंने कभी सरकार पर यह दबाव डालने की जहमत उठाई है कि सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल हमारे बच्चों को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करने के लिए सुसज्जित क्यों नहीं हैं? वास्तव में, इसकी बजाय जब मैं हर सुबह डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, सिविल सेवक, प्रोफेसर और अन्य पेशेवरों को अपने बच्चों के साथ वातानुकूलित स्कूल बसों का इंतज़ार करते हुए देखता हूं और ठीक इसी वक्त फटे-मटमैले कपड़ों में कुपोषित बच्चे पास के नगरपालिका स्कूलों की ओर जा रहे होते हैं, मैं एक अन्य तल्ख हकीकत देख रहा होता हूं, जो अत्यधिक असमान व विषमता भरे इस देश की विशेषता है। शायद ही कभी ये दोनों दुनिया आपस में मिलती हों।
वास्तव में, हम यह विलय करना ही नहीं चाहते थे। एक सुचालित सार्वजनिक क्षेत्र के लिए हमने मिलकर लड़ाई लड़ी ही नहीं। इसकी बजाय, हमने खुद को हर उस चीज़ से अलग करना शुरू कर दिया जो ‘सार्वजनिक’ है। सार्वजनिक परिवहन की बजाय अपने निजी वाहन या सरकारी अस्पतालों की बजाय निजी नर्सिंग होम तक : हमने खुद का गरीबों, वंचितों और निम्न मध्यम वर्ग के संघर्षों से किनारा कर लिया।
इसका नतीजा यह है कि सरकार भी सामाजिक रूप से सार्थक सभी कल्याणकारी परंपराओं से दूर होती जा रही है। इसलिए, कुछ हद तक यह पाखंड लगता है, जब हम इस पर रोष करने लगें कि नई दिल्ली के एक जाने-माने निजी स्कूल की वार्षिक ट्यूशन फीस (पंजीकरण, विकास, परीक्षा शुल्क और परिवहन जैसे अतिरिक्त शुल्कों के अलावा) 2 लाख रुपये है। यह सोच कुछ वैसी ही है कि यदि आप और मैं गुहार करें और अपनी वित्तीय कठिनाइयों की कहानियां बताएंगे तो कोई फैंसी कॉर्पोरेट अस्पताल पसीज कर अपना शुल्क घटा देगा!
यह वास्तव में चिंता का विषय है कि हमारे सार्वजनिक स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय तेजी से कम हो रहे हैं, और निजी उद्यम कुकुरमुत्ते की भांति तेजी से उग रहे हैं। संभवतः, मेरी पीढ़ी कुछ हद तक भाग्यशाली थी। जी हां, मैं पश्चिम बंगाल के एक बांग्ला-माध्यम सरकारी विद्यालय में पढ़ा हूं। हमारे स्कूल में हम धाराप्रवाह अंग्रेजी में बात नहीं करते थे, हमारे पास वह सब नहीं था जिसे आज वाली पीढ़ी एक जरूरी ‘सांस्कृतिक पूंजी’ मानती है : वे प्रतीक और चाल-चलन, जो हमें हर उस चीज़ से अलग करे, जो ‘सामान्य’ है। और फिर भी, मुझे यह कहने में जरा संकोच नहीं है कि हमें काफी हद तक बढ़िया शिक्षकों की संगति मिली, और हमारा शैक्षणिक कौशल काफी संतोषजनक रहा। इसके अलावा, इस सरकारी स्कूल में, मैंने विविधता और बहुलता के परमानंद का अनुभव किया। मेरे दोस्त अलग-अलग जातियों, वर्गों और धर्मों से थे। अमीर और गरीब के बीच कोई भेदभाव नहीं था। वास्तव में, जो लोग निजी स्कूलों के सामने फीस वृद्धि का विरोध कर रहे हैं, उन्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि जब मैंने 1974 में अपनी बोर्ड परीक्षा दी थी, तब ट्यूशन फीस मात्र 5 रुपये प्रति माह थी!
संभवतः, ‘सामान्य स्कूलों’ वाली महान दृष्टि जो कोठारी शिक्षा आयोग, 1966 की सिफारिशों की विशेषता थी, तब तक भी जीवित थी। भारत गरीब था लेकिन तब भी, ‘दक्षता’ और ‘विकास’ के नवउदारवादी सिद्धांत में छिपा बाजार-कट्टरवाद का तर्क इतने स्पष्ट रूप से उघड़ा नहीं था। सरकारी स्कूलों से लेकर समावेशी और किफायती सार्वजनिक विश्वविद्यालयों तक : हमारी यह यात्रा, भले ही परिपूर्ण न हो, लेकिन इसने हमें सिखाया कि किस प्रकार समाजवादी व कल्याणकारी नीतियों के बिना, भारत असमानता और शोषण के अभिशाप को दूर करने, एक लोकतांत्रिक और समतावादी राष्ट्र की ओर नहीं बढ़ सकता।
हालांकि, हमारे समय में भी, नवउदारवादी बाजार कट्टरवाद की चमक-दमक ने हमउम्रों को भी बहकाया है। कोई आश्चर्य नहीं कि हम सरकार से कुछ भी ठोस मांग नहीं करते हैं। इसकी बजाय, हमने यह स्वीकार लिया है कि लगभग हर वह चीज- चाहे शिक्षा हो या स्वास्थ्य, यहां तक कि शुद्ध हवा भी- एक वस्तु भर है और अगर आपके और मेरे पास पैसा है, तो हम इसे खरीद सकते हैं। ‘सार्वजनिक मुद्दों के निजी समाधानों’ में यह नवउदारवादी विश्वास इतना गहरा पैठ चुका है कि हम सरकार से कुछ भी ठोस मांगना भूल गए हैं। हमें अपने विरोधाभासों को स्वीकार करना होगा। हम चाहते हैं कि ये शिक्षा की दुकानें अपने पैकेज्ड यानी कमोडिफ़ाइड शिक्षा की कीमत कम करें। हालांकि, सरकार से यह मांग करना कि जो टैक्स हम भरते हैं, उसका सही इस्तेमाल किया जाए ताकि कम से कम किफ़ायती, समावेशी और अच्छी गुणवत्ता वाले सरकारी स्कूल, सरकारी विश्वविद्यालय और सरकारी अस्पताल मिल सकें, इस हक के वास्ते सड़क पर उतरना हमें मंजूर नहीं।
साझा सार्वजनिक चिंताओं के प्रति हमारी इस उदासीनता ने ही ऐसी स्थिति पैदा की है जिसमें हम तमाम सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की कम होती संख्या देख रहे हैं। उदाहरण के लिए, मेरे अपने स्कूल को ही लें, जिसने कभी मुझे मंत्रमुग्ध कर रखा था। आज जब मैं इस सरकारी स्कूल में जाता हूं, तो मैं हर जगह पसरा पतन देखता हूं– खाली पड़ी कक्षाएं, कम नामांकन और हतोत्साहित शिक्षक। दूसरी ओर, मैं मध्यवर्ग के लोगों की फैंसी निजी स्कूलों और ब्रांडेड कोचिंग सेंटरों के प्रति आसक्ति देखता हूं। संदेश स्पष्ट है : शिक्षा आपका अधिकार नहीं है, यह बाजार में एक वस्तु भर है, जो आपको खरीदनी पड़ रही है और अगर आपके पास आवश्यक पैसा नहीं है, तो इसे भूल जाएं!
क्या हम जैसे लोग इन विरोधाभासों से पार पा सकेंगे, सड़क पर आकर शिक्षा के बदसूरत वस्तुकरण का विरोध कर पाएंगे और सरकार पर किफायती, समावेशी और अच्छी गुणवत्ता वाले सार्वजनिक स्कूल और विश्वविद्यालयों को बढ़ावा देने के लिए दबाव डाल सकते हैं?
लेखक समाजशास्त्री हैं।