भूख का सच
हेमधर शर्मा
जब लोग तुलना करते हैं
शहर और ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की,
तो अक्सर यह कहते हैं,
ग्रामीण लोग ज्यादा भुक्खड़ होते हैं।
शादी-ब्याहों में बुफे का सिस्टम हो,
तो खाने पर मरभुक्खों की तरह टूटते हैं।
मैं शर्मिंदा हो जाता हूं,
यह नहीं बता पाता हूं उनको सच्चाई,
करके वे दिन-रात परिश्रम घोर,
कभी भरपेट नहीं खा पाते हैं।
यह भूख नहीं है दिनों-महीनों की,
यह तो सदियों की है।
कुछ लोग दिया करते हैं जब
घर की महिलाओं को ताना,
वे छुपकर खाना खाती हैं।
मैं लज्जा से गड़ जाता हूं,
यह नहीं उन्हें समझा पाता,
जो जितनी मेहनत करता है,
उतनी ही भूख भी लगती है।
हम इतने नासमझ हैं,
कि ज्यादा खाता जो, वह दिखता है,
पर नहीं भूख के पीछे का सच दिखता!
कब वह दिन आएगा,
जब मेहनत करने वालों को
भरपेट मिल सकेगा खाना,
होना न पड़ेगा शर्मिंदा,
सुनना न पड़ेगा यह ताना,
यह कितना खाना खाता है!्
जादुई लोक
खत्म होती है दिन की हलचल,
जब रात का फैलता है सन्नाटा।
एक दुनिया नई उभरती है,
जादुई लोक जैसी लगती है।
नींद पलकों में धीरे-धीरे से,
स्वप्न बनकर उतरने लगती है।
दूर संगीत कहीं बजता है,
गीत चुपचाप कोई गाता है।
चांद-तारे भी आसमानों में
खेलते हैं छुपम-छुपाई सी!
रात के फिर गहन अंधेरों में
छाने लगती है घोर नीरवता।
थक के जब जीव निशाचर सारे,
नींद लगती है तो सो जाते हैं।
चांद-तारे भी बोरिया-बिस्तर
बांधकर अपने घर को जाते हैं।
रात ढलती है, दिन निकलता है,
फिर शुरू होती है वही हलचल।
जागता हूं तो ऐसा लगता है,
रात देखा जो, क्या वह सपना था!
हार या जीत?
लेने का ही जब सुख हम जाना करते हैं,
तब देने में अतिशय कंजूसी करते हैं।
पर देने का सुख जिनको होता पता,
लेने में शर्मिंदा अनुभव करते हैं।
वे भोले रहे हों, लेकिन बेवकूफ थे नहीं,
जान भी बाज़ी पर जो लगा,
वचन का अपने पालन करते थे।
जो हानि उठाकर भी अपनी
सच के ही पथ पर चलते थे,
सुख अनुपम उनको मिलता था,
ईमानदार रहकर कष्ट उठाने में,
जो कभी नहीं मिल सकता बेईमानों को।
जो सीधे इतने ज्यादा हैं,
ठग ले कोई या कर ले छल,
उस पर भी यदि खुश रहते हैं;
जो छलता है या ठगता है,
फिर भी उद्वेलित रहता है।
तो जीत भला है किसकी इसमें
और हार यह किसकी है!