भिक्षा की तार्किकता
एक आश्रम में रहकर दो ऋषि शास्त्राध्ययन में लगे रहते थे। दोपहर के समय दोनों भोजन करने बैठे। इसी बीच एक युवा भिक्षुक ने आवाज लगाई, ‘महात्मन्, क्या भिक्षा मिलेगी?’ एक ऋषि ने उत्तर दिया, ‘नहीं, इस समय भिक्षा नहीं मिल पाएगी।’ यह सुनते ही युवा ब्रह्मचारी भिक्षुक ने विनम्रतापूर्वक पूछा, ‘ऋषिवर! आपके इष्टदेव कौन हैं?’ ऋषि ने कुछ क्रोधित होकर कहा, ‘लगता है कि तुम उद्दंड किस्म के ब्रह्मचारी हो, हमारे इष्टदेव का नाम जानकर क्या करोगे?’ कुछ क्षण मौन रहकर ऋषि ने बताया, ‘हमारे इष्टदेव वायु हैं, जिन्हें प्राण भी कहा जाता है।’ ब्रह्मचारी भिक्षुक ने कहा, ‘ऋषिवर! वायु व प्राण तो सर्वत्र व्याप्त हैं। क्या मुझ में प्राण नहीं हैं। आप अकेले भोजन कर अपने इष्टदेव, जो मेरे अंदर भी विराजमान हैं व भूखे हैं, की अवहेलना का पाप नहीं कर रहे हैं?’ दोनों ऋषि यह समझ गए कि यह ब्रह्मचारी उपनिषदों का गंभीर अध्येता है। उन्होंने अपनी भूल स्वीकार की तथा ब्रह्मचारी को पास बिठाकर आदर से भोजन कराया।
प्रस्तुति : डॉ. जयभगवान शर्मा