For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

भाषाई दुराग्रह

04:00 AM Jul 07, 2025 IST
भाषाई दुराग्रह
Advertisement

हमारी राजनीति का स्तर कितना नकारात्मक व अवसरवादी हो चला है कि महाराष्ट्र में हिंदी विरोध को राजनीति साधने का अस्त्र बना लिया गया। विडंबना यह है कि जिस राज्य से सारे देश को एकता के सूत्र में पिरोने की सामाजिक सांस्कृतिक मुहिम संघ द्वारा चलायी जा रही है, उसी राज्य से राष्ट्र की संपर्क भाषा के खिलाफ भाषायी कट्टरपंथ को हवा दी जा रही है। विसंगति देखिए कि मराठी भाषा के नाम पर राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे बीस साल बाद एक मंच पर एकजुट हुए हैं। कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र में हिंदी विरोध पर ‘भरत मिलाप’ हुआ है। कभी हिंदी विरोध के जो सुर तमिलनाडु में सुनायी देते थे, वे अब महाराष्ट्र में भी तेजी से मुखर हो रहे हैं। मुंबई को भारत की आर्थिक राजधानी कहा जाता है, जिसमें योगदान देने के लिये उत्तर भारत के राज्यों के तमाम लोगों योगदान देते हैं। जहां बनने वाली हिंदी फिल्में इस राज्य की समृद्धि का आधार रही हैं। उसी राज्य में हिंदी बोलने वालों लोगों से मारपीट तक के मामले प्रकाश में आ रहे हैं। निश्चय ही ये भारत की संघीय अवधारणा की जड़ों पर प्रहार ही है। निश्चय रूप से इस सोच के मूल में भाजपा के राजनीतिक वर्चस्व को तोड़ना और मुंबई नगर निगम व राज्य की सत्ता पर काबिज होने की महत्वाकांक्षा ही है। लेकिन यह सोच राष्ट्रीय एकता व भाषायी सद्भाव को पलीता लगाने का ही कुत्सित प्रयास है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आजादी के सात दशक बाद भी देश में जनता को विकास व तार्किक मुद्दों के बजाय संकीर्ण अस्मिता के नाम पर बरगलाया जा रहा है। उन मुद्दों को हवा दी जा रही है जिनके बूते महाराष्ट्र में शिव सेना अस्तित्व में आयी। विडंबना यही है कि ऐसे तत्वों को यदि राजनीतिक मंसूबे पूरा करने में सफलता मिलती है तो इसका नकारात्मक संदेश पूरे देश में जाएगा। बहुत संभव है कि देश के अन्य राज्यों में भी ऐसी संकीर्ण भाषायी विरोध की राजनीति मुखर होने लगे। जो राष्ट्रीय एकता व सद्भाव के लिये एक बड़ी चुनौती होगी। निस्संदेह, भारतीय लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि राजनीतिक दल सकारात्मक मुद्दों व विकास की प्राथमिकताओं को अपना एजेंडा बनाएं। दरअसल, सकारात्मक राजनीति में हाशिये पर गए दल ही सफलता के शॉर्टकट के रूप में ऐसे भावनात्मक मुद्दों को हवा देकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। आज पूरी दुनिया विज्ञान की क्रांति व अभिव्यक्ति के तकनीकी विकास से एकजुट हो रही है, वहीं हम भाषीय संकीर्णताओं में उलझकर प्रगति के पहिए को थामने की कोशिशों में लगे हुए हैं। भले ही हमारी मातृभाषा कुछ भी हो, लेकिन पूरे देश में एक संपर्क भाषा के रूप में हिंदी की उपयोगिता को खारिज नहीं किया जा सकता है। कई राज्यों में त्रिभाषा फार्मूले के रूप में शिक्षा के प्रसार में सात समुंदर पार की अंग्रेजी भाषा के अंगीकार में तो कोई परहेज नहीं है, लेकिन तमाम भारतीय भाषाओं के शब्दों को समेटे देश के स्वतंत्रता आंदोलनकारियों द्वारा स्वीकृत हिंदी का विरोध किया जा रहा है। ये दुर्भाग्यपूर्ण ही है।

Advertisement

Advertisement
Advertisement