भद्रपुरुषों के खेल में अभद्रता की अनकही गाथाएं
अप्रैल, 2000 में सट्टेबाज-खिलाड़ी गठजोड़ का पता चला तो इस घोटाले ने क्रिकेट की दुनिया को झकझोर दिया। कुछ दिग्गज क्रिकेटर मैच फिक्सिंग करते पाए गए थे। ऐसे में प्रशंसकों का खेल पर भरोसा डगमगाना स्वाभाविक है। सवाल है ऐसी भयावह आशंका के फिर सच होने को लेकर, जो क्रिकेटर्स की बड़ी कमाई के मद्देनजर बेशक यकीनी न लगे, लेकिन निर्मूल नहीं। तो सतर्कता जरूरी है।
प्रदीप मैगज़ीन
अप्रैल का महीना मुझे सदा टीएस इलियट की कविता ‘द वेस्ट लैंड’ की प्रसिद्ध शुरुआती पंक्तियों की याद दिलाता है। तब से ही, जब चंडीगढ़ स्थित पंजाब विश्वविद्यालय में मेरी कक्षा के अधिकांश छात्र जीवन की जटिलताओं को समझने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे, तब यह कविता हमारे लिए दुनिया को समझने की एक ऐसी खिड़की बनी, जो है तो त्रासदीपूर्ण इतिहास से बोझिल किंतु फिर भी एक बेहतर दुनिया में रहने की उम्मीद जगाती है। हम इन पंक्तियों को दोहराते थे ‘अप्रैल का महीना सबसे क्रूर है, जो बंजर भूमि से भी फूलों को उगाता है, स्मृति और इच्छा का मिश्रण करते हुए, वसंत की बारिश के साथ सुस्त जड़ों में हलचल मचाता है।’ मानो हमारे लिए यह राष्ट्रगान हो। इस कविता को समझना आसान नहीं था, ठीक वैसे ही जैसे कि हम अपने आसपास के जीवन को देख रहे थे।
ढाई दशक बाद अप्रैल के महीने ने और भी बुरा अर्थ प्राप्त कर लिया, जब वर्ष 2000 में, दुनिया को सट्टेबाज-खिलाड़ी गठजोड़ की गहरी जड़ों का पता चला। इस घोटाले ने क्रिकेट की दुनिया को हिलाकर रख दिया, जब दुनिया के कुछ दिग्गज क्रिकेटर मैच फिक्सिंग करते पाए गए थे। दक्षिण अफ्रीका के कप्तान हैंसी क्रोनिए, भारत के प्रिय मोहम्मद अजहरुद्दीन और कई अन्य स्टार खिलाड़ियों ने सट्टेबाजों से सांठगांठ कर रखी थी, जिससे प्रशंसकों का खेल पर से भरोसा खत्म हो गया।
चूंकि उस समय बतौर एक अंग्रेजी अख़बार के रिपोर्टर, इसकी कुछ जटिल परतों को उजागर करने में मेरी भी एक छोटी-सी भूमिका रही थी, इसलिए मुंबई के एक अखबार ने मुझसे 25 साल पहले हुए इस घोटाले की यादें फिर से उधेड़ने को कहा। जब उस दौर के बेहद बेचैन करने वाले इन पलों को पुनः निहारता हूं तो डर की सीमा छू लेने वाली आशंका की वह भावना चौंका देती है, जो मैच फिक्सिंग के बारे में बात चलने पर क्रिकेट प्रशंसकों पर तारी हो जाए। उनके दिमागों में सबसे बड़ा सवाल यह है : क्या यह अभी भी हो सकता है? फिर इस संदेह का खुद ही जवाब देने की कोशिश करते हैं : ‘निश्चित रूप से नहीं, क्योंकि खिलाड़ी इन दिनों इतना कमाते हैं।’ पर यह एक ऐसा जवाब है, जो आगे सवाल खड़ा करता है : यह ‘इतना’...है ‘कितना’ और मानव के लाेभ की सीमाएं क्या हैं और यहां जोड़ना चाहूंगा कि इसकी ज़रूरत भी क्या है?
आज भारत में क्रिकेट एक व्यावसायिक गतिविधि है, जहां यदि कोई खिलाड़ी शीर्ष पर पहुंच जाए या भारतीय टीम में जगह बनाने के लिए लायक हो जाए, तो वह अपने लिए अमीरी सुनिश्चित कर लेता है। इंडियन प्रीमियर लीग ने खिलाड़ियों की कमाई को आठ अंकों में पहुंचा दिया है, यहां तक कि उन खिलाड़ियों के लिए भी जो देश के लिए कभी नहीं खेले। पैसा बरस रहा है, लेकिन ज़रा ठहरिए। वर्ष 2013 में भी स्थिति यही थी, फिर भी दिल्ली पुलिस ने पूर्व भारतीय क्रिकेटर श्रीसंत और कुछ अन्य के खिलाफ स्पॉट फिक्सिंग के लिए सट्टेबाजों से पैसे लेने का मामला दर्ज किया था। इस काम में उनके साथ शामिल अन्य खिलाड़ियों को लीग खेलने के लिए केवल तय बेस प्राइस (लगभग 10-20 लाख रुपये) मिल रहे थे।
उस जांच में शामिल अधिकारी दिल्ली के पुलिस आयुक्त नीरज कुमार थे, जिन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद भारतीय क्रिकेट बोर्ड की भ्रष्टाचार निरोधक इकाई की कमान संभाली थी। जो कोई भी यह जानना चाहता है कि क्या क्रिकेट से भ्रष्टाचार खत्म हो गया है या नहीं और क्या ‘फिक्सिंग’ अभी भी एक संभावना है, उन्हें बोर्ड में अपने कार्यकाल के बारे में उनके द्वारा लिखे गए, किंतु बेहद परेशान करने वाले संस्मरण को पढ़ना चाहिए। उनकी किताब ‘ए कॉप इन क्रिकेट’ में इस बात का चौंकाने वाला वर्णन है कि भारत के लगभग सभी राज्यों में आयोजित होने वाली विभिन्न मिनी टी-20 लीग में किस कदर भ्रष्टाचार व्याप्त है, चाहे वह योग्यता में हेरफेर करना हो या टीम का चयन। उन्होंने आईपीएल को भी नहीं बख्शा, जहां उन्होंने पाया कि कुछ फ्रेंचाइजी टीमों की प्रतिभा खोज इकाई ने कुछ पूर्व क्रिकेटरों की सक्रिय मिलीभगत से गलत आचरण किया, जो अब कोच के रूप में काम कर रहे थे। इस किताब में बहुत स्पष्ट रूप से कहा गया है कि उन्होंने इन सभी घटनाओं की सूचना बोर्ड के शीर्ष अधिकारियों को दी थी, लेकिन किन्हीं कारणों से, जो वे ही जानें, कोई सुधारात्मक उपाय नहीं किए गए।
आइए हम भारत में क्रिकेट द्वारा प्रदान की जाने वाली समृद्धि को दूसरे दृष्टिकोण से देखें, जिसको लेकर हम मानते हैं कि यह खिलाड़ियों को भ्रष्टाचार करने की जरूरत से मुक्त करती है। हमें आईपीएल ‘रोजगार गारंटी योजना’ की तरह पेश किया जाता है, जिसमें अभावग्रस्त विगत जिंदगी के बावजूद कुछ खिलाड़ियों की बड़े पटल पर पहुंचने की सफलता गाथाएं शामिल हैं। है तो यह बहुत बढ़िया, लेकिन हम यह नहीं समझ पाते कि आईपीएल खेलने वाले भारतीय खिलाड़ियों की संख्या 200 से ज़्यादा नहीं है। आइए हम इस गिनती को विस्तार देते हुए इसमें प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेलने वालों को भी इसमें शामिल कर लेते हैं। तब यह संख्या 1000 के आसपास बन जाएगी, लेकिन चलिए इसे 1500 मान लेते हैं। इस तरह, ‘अमीर’ खिलाड़ियों की कुल संख्या 2000 बैठती है, जिसमें भारत की राष्ट्रीय टीम के लिए खेलने वाले खिलाड़ी भी शामिल हैं, हालांकि यहां भी शीर्ष और निचले स्तर के खिलाड़ियों के बीच कमाई का अंतर बहुत ज़्यादा है।
भारत की जनसंख्या 140 करोड़ है, और देश के लिए खेलने का सपना देखने वाले महत्वाकांक्षी क्रिकेटरों के लिए लगभग 3000 से अधिक अकादमियां हैं। इस हिसाब से आकांक्षियों की संख्या कुछ लाख से अधिक होगी। किसी ठोस डेटा के अभाव में, मोटे तौर पर अपने सपनों को पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत करने वालों की संख्या लगभग 10-15 लाख मान लेते हैं। हालांकि यह संख्या इससे कहीं अधिक हो सकती है, पर निश्चित रूप से इस अनुमान से कम नहीं होगी। शीर्ष पर जगह सीमित है, अत्यंत सीमित, इनमें से 80 प्रतिशत आकांक्षी जल्द ही बाहर हो जाते हैं, और अपने से बेहतर प्रतिभा वालों के बीच ज्यादा देर टिक नहीं पाते।
वे जो ‘बेहतरीन ज़िंदगी’ का स्वाद चखना चाहते हैं और इसे अपनी जीवनशैली का अंग बनाने की हसरत रखते हैं, लेकिन टीम में जगह सीमित के कारण बाहर किए जाने का डर भी काफी है, उनकी गिनती बहुत अधिक है। लालच, मानव की लालसा में जाति, रंग, लिंग, नस्ल, धर्म से कोई फर्क नहीं पड़ता, यहां तक कि बहुत ज्यादा धनवानों पर यही लागू है। यह सोचना भयावह लग सकता है, लेकिन इस लेख को लिखने का मकसद यह नहीं है।
सदा सतर्क रहना और यह याद रखना ज़रूरी है कि ‘अप्रैल का महीना सबसे क्रूर क्यों है।’
लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं।