भाव की आराधना
एक बार वृंदावन में एक संत श्री बांके बिहारी जी के चरणों का दर्शन कर रहे थे। उनके होंठों पर एक मधुर भाव अनायास ही फूट पड़ा—‘श्री बिहारी जी के चरण कमल में नयन हमारे अटके, नयन हमारे अटके...’। उसी समय वहां एक सामान्य भक्त भी खड़ा था। उस संत का प्रेममय गान उसके हृदय में उतर गया। घर पहुंचते ही वह भक्त, उसी भजन को गुनगुनाने लगा। उसने गा दिया—‘श्री बिहारी जी के नयन कमल में चरण हमारे अटके...’ शब्द उलट गए, पर प्रेम सीधा था। वह त्रुटि से अनभिज्ञ, उसी उलटे भाव को बार-बार गाता रहा। भाव की तीव्रता इतनी थी कि उसका रोम-रोम भक्ति में झूमने लगा। लेकिन प्रभु भाव के पारखी हैं। श्री बिहारी जी ने जब यह अनूठा, अनगढ़, किन्तु अत्यंत भावपूर्ण प्रेम देखा, तो वे स्वयं अपने धाम से उतरकर उस भक्त के समक्ष प्रकट हो गए। भक्त रो पड़ा, घबराते हुए बोला—‘प्रभु! मुझसे बड़ी भूल हो गई। मैंने आपके नयन कहकर अपने चरण वहां अटका दिए!’ श्री बिहारी जी ने मंद मुस्कान के साथ कहा—‘अरे भैया! मेरे अनेक भक्त हैं, पर तेरे जैसा निराला प्रेमी दुर्लभ है। लोग अपने नयन मेरे चरणों में अटकाते हैं, पर तूने तो मेरे ही नयन अपने चरणों में अटका दिए! पर मैं शब्दों का नहीं, भावों का भूखा हूं। तेरा प्रेम निष्कलंक है। उसी प्रेम के वशीभूत मैं यहां चला आया।’
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी