भक्ति आन्दोलन के महानायक और मानवता के उद्धारक
चैतन्य महाप्रभु भक्ति आंदोलन के महान संत और भगवान श्रीकृष्ण के प्रेमावतार माने जाते हैं। उन्होंने अपने जीवन के माध्यम से मानवता को शुद्ध प्रेम, भक्ति और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग दिखाया। उनके उपदेशों और आचरण ने समाज में एक नई जागृति पैदा की और शोषित वर्ग को उम्मीद और संतोष का अनुभव कराया।
चेतनादित्य आलोक
भारतीय समाज को पीड़ा, प्रकोप, प्रताड़ना, अहंकार, घृणा, भय, दुख, निराशा, हताशा, उदासी एवं असंतोष से मुक्ति दिलाने तथा एक सशक्त, खुशहाल और समृद्ध समाज के निर्माण हेतु मध्यकाल जैसे संकट-काल में हमारे पूर्वजों ने भक्ति आंदोलन चलाया था।
श्रीकृष्ण भक्ति-परंपरा के उन्नायक चैतन्य महाप्रभु ऐसे ही एक महान संत थे, जिनका जन्म 15वीं शताब्दी में फाल्गुन पूर्णिमा के दिन पिता जगन्नाथ मिश्र और माता शची देवी के घर हुआ। यह घटना पश्चिम बंगाल के मायापुर (जिसे उस समय नवद्वीप कहा जाता था) गांव में घटी। नीम के वृक्ष के नीचे जन्म लेने के कारण माता-पिता ने उनका नाम ‘निमाई’ रखा। हालांकि, गौर वर्ण होने के कारण उन्हें गौरांग, गौर हरि और गौर सुंदर भी कहा जाता था।
निमाई जब मात्र 16 वर्ष के थे, तब माता-पिता ने उनका विवाह लक्ष्मी देवी नामक स्त्री से कर दिया, लेकिन सर्पदंश के कारण लक्ष्मी देवी का शीघ्र ही देहांत हो गया। घर-गृहस्थी में मन न लगने के कारण, मात्र 24 वर्ष की अवस्था में ही निमाई ने घर-बार छोड़ दिया। कालांतर में, वैष्णव संत केशव भारती से संन्यास ग्रहण करने के बाद वे चैतन्य महाप्रभु कहलाए।
इसके बाद महाप्रभु ने पदयात्रा करते हुए देश के कोने-कोने में पहुंचकर श्रीहरिनाम की महिमा का प्रचार किया और श्रीहरिनाम संकीर्तन की पावन रसधार बहाकर मानवता की पीड़ा हरने का कार्य किया। चैतन्य महाप्रभु श्रीकृष्ण के प्रेमावतार माने जाते हैं। यही कारण है कि जीवन के अंतिम छह वर्ष उन्होंने श्रीराधा-भाव में व्यतीत किए। इस दौरान उनके अंतःकरण में भक्ति के महाभाव के सभी लक्षण प्रकट रूप से देखे जा सकते थे। यही कारण है कि श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त चैतन्य महाप्रभु के संपर्क में जो भी आया, वह श्रीकृष्ण की भक्ति और अनुकंपा से ओत-प्रोत हुए बिना नहीं रह सका।
चैतन्य महाप्रभु ने सभी प्राणियों से स्नेह का भाव रखा और द्वापर युग में विलुप्त हो चुके श्रीकृष्ण के धाम वृंदावन को पुनः संजीवित किया। महाप्रभु के जीवन से जुड़ी अनेक कहानियां और घटनाएं उनकी जन्मजात तेजोमयता और अलौकिकता को सिद्ध करने में सक्षम हैं। ऐसी ही एक किंवदंती के अनुसार, बालक निमाई के घर एक ब्राह्मण अतिथि आए। माता-पिता ने उनका उचित स्वागत-सत्कार किया और भोजन परोसा। भोजन करने से पूर्व जब अतिथि ने अपने आराध्य का स्मरण किया, तो बालक निमाई ने झट थाली से एक निवाला उठाकर खा लिया। इस कृत्य से बालक निमाई के माता-पिता क्रोधित हो गए। हालांकि, जब बालक निमाई ने अपने इस कृत्य से सभी को परेशान होते हुए देखा, तब उन्होंने सबको अपने गोपाल स्वरूप का दर्शन करा दिया।
ऐसी ही एक अन्य कथा के अनुसार, श्री जगन्नाथ मंदिर में श्रीहरिनाम-संकीर्तन करते हुए वे मूर्छित हो गए। उनके शिष्यों ने गुरु को उठाने का प्रयास किया, लेकिन हृदय स्थल पर छूकर देखा तो हृदय की धड़कनें नहीं सुनाई दी। उसी क्षण एक शिष्य के मन में गुरु की वास्तविक स्थिति को जानने की इच्छा उत्पन्न हुई। उसने महाप्रभु के मुंह को खोलकर भीतर देखा, लेकिन उसे भी निराशा हाथ लगी। तब उसने महाप्रभु के श्रीचरणों को धीरे से सहलाया और उनके तलवों से अपने कान लगाकर कुछ सुनने का प्रयास किया। चमत्कारी रूप से उसे महाप्रभु के तलवों से श्रीहरिनाम संकीर्तन यानी ‘हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे’ की ध्वनि सुनाई दी। इस घटना के बाद वह शिष्य फफक कर रोने लगा। जब अन्य शिष्यों को इसके रहस्य का पता चला, तो वे सभी भाव-विह्वल होकर रोने लगे।
इस प्रकार, चैतन्य महाप्रभु ने अपने जीवनकाल में श्रीकृष्ण की भांति ही अनेक अद्भुत लीलाएं रचीं, जिनका एकमात्र उद्देश्य भटकाव में जी रहे मनुष्य को उचित मार्ग दिखाकर उनका कल्याण सुनिश्चित करना था।