ब्रह्म का गूढ़ स्वरूप और भक्ति का उच्चतम पथ
संत वल्लभाचार्य भारतीय दर्शन के 'शुद्धाद्वैत' सिद्धांत के प्रवर्तक थे, जिन्होंने भक्ति, ज्ञान और तात्विक चिंतन को एक नई दिशा दी। भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक वल्लभाचार्य ने पुष्टि मार्ग की स्थापना की और सूरदास जैसे महान भक्त-कवि को प्रेरणा देकर साहित्य को अनुपम भक्ति-धारा प्रदान की।
चेतनादित्य आलोक
भारतवर्ष की उर्वर आध्यात्मिक भूमि पर ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ का सिद्धांत देने वाले भगवान आदि शंकराचार्य से लेकर परमात्मा की अधीनता में प्रायः जड़ और चेतन दोनों तत्वों की सत्ता स्वीकार करने वाले संत रामानुजाचार्य, ‘द्वैत’ सिद्धांत का प्रवर्तन करने वाले माध्ावाचार्य एवं ‘द्वैताद्वैत’ सिद्धांत के प्रवर्तक आचार्य निंबार्क जैसे अनेकानेक महापुरुषों ने समय-समय पर इस धरा-धाम पर अवतार लेकर प्राणी मात्र की सेवा और कल्याण का कार्य किया। इस क्रम में ‘द्वैताद्वैत’ सिद्धांत के बाद हमारा परिचय ‘शुद्धाद्वैत’ सिद्धांत से हुआ, जिसके प्रवर्तक महान संत वल्लभाचार्य हुए, जिन्होंने न केवल दुनिया को नई तात्विक दृष्टि प्रदान की, बल्कि सूरदास जी जैसा कोमल भावों और मोहक अनुभूतियों वाले महान कवि भी इस जगत को प्रदान किया। वल्लभाचार्य ने अपने तात्विक चिंतन की पृष्ठभूमि से आधिभौतिक, आध्यात्मिक एवं आधिदैविक नामक ब्रह्म के तीन रूप बताए। उनके अनुसार आधिभौतिक ब्रह्म ‘क्षर पुरुष’ है, जो दृश्यमान प्रकृति अथवा जगत् के रूप में हमारे समक्ष विद्यमान है। वहीं, आध्यात्मिक ब्रह्म ‘अक्षर ब्रह्म’ है, जबकि आधिदैविक ब्रह्म ‘परब्रह्म’ यानी ‘ईश्वर’ है। तात्पर्य यह कि उन्होंने ‘क्षर पुरुष’ को श्रेष्ठ, ‘अक्षर ब्रह्म’ को श्रेष्ठतर और ‘परब्रह्म’ यानी परमात्मा को श्रेष्ठतम बताया है।
उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय श्रीकृष्ण की भक्ति में और भक्तों के मार्गदर्शन में बिताया। उनका पुष्टिमार्ग पूर्ण समर्पण, अनन्य भक्ति और दिव्य कृपा पर आधारित था। उन्होंने श्रीकृष्ण के बालस्वरूप श्रीनाथजी की उपासना को केन्द्र बनाकर इस पंथ की स्थापना की। उनके प्रमुख ग्रंथों में ‘सिद्धांत रहस्य’, ‘भागवत लीला रहस्य’, ‘एकांत रहस्य’, ‘सुबोधिनी’ आदि शामिल हैं। भागवत के गूढ़ रहस्यों की सरल व्याख्या द्वारा उन्होंने आमजन को ईश्वर की लीला से जोड़ने का कार्य किया। मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने भक्त वल्लभाचार्य को गोकुल में एवं गोवर्धन पर्वत पर प्रत्यक्ष दर्शन दिया था।
अग्नि की लौ से सुरक्षा
संत वल्लभाचार्य का जन्म वाराणसी में रहने वाले एक साधारण तेलुगु परिवार में हुआ था। कहा जाता है कि उन्हें मृत समझ जंगल में छोड़ दिया गया था, परंतु स्वप्न में माता को दर्शन देकर श्रीनाथजी ने कहा कि बालक स्वयं उनका अंश है। जब माता-पिता लौटे तो देखा कि शिशु अग्नि की लौ से सुरक्षित था—इसलिए उन्हें ‘अग्नि के अवतार’ भी कहा गया।
ज्योति-शिखा संग महाप्रयाण
शास्त्रों में विवरण मिलता है कि जीवन के महत्वपूर्ण कार्यों को पूर्ण करने के बाद वल्लभाचार्य काशी यानी वाराणसी आकर रहने लगे। एक दिन जब वे हनुमान घाट पर स्नान कर रहे थे, तब वहां उपस्थित उनके शिष्यों एवं अन्य लोगों ने देखा कि जिस स्थान पर खड़े होकर वे स्नान कर रहे थे, वहां से एक उज्ज्वल ज्योति-शिखा ऊपर की ओर उठी और वल्लभाचार्य जी उस ज्योति-शिखा के साथ ही सदेह ऊपर उठने लगे। बताया जाता है कि देखते-ही-देखते वे आकाश में विलीन हो गए। इस प्रकार, वल्लभाचार्य ने 52 वर्ष की आयु में आषाढ़ शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को महाप्रयाण किया था। बता दें कि काशी के हनुमान घाट पर उनकी एक बैठक बनी हुई है, जहां उनके भक्त और अनुयायी उनका दर्शन का अहसास करने आज भी जाते हैं।
सूरदास पर कृपा
एक बार वल्लभाचार्य जी यमुना के किनारे-किनारे वृंदावन की ओर पैदल यात्रा कर रहे थे। रास्ते में उन्हें एक दृष्टिहीन व्यक्ति बिलखता हुआ दिखाई दिया। उन्होंने उस व्यक्ति से पूछ लिया, ‘तुम इस प्रकार बिलख क्यों रहे हो? भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का गायन क्यों नहीं करते?’ उसने कहा, ‘मैं अंधा, क्या जानूं कि लीला क्या होती है?’ यह सुनते ही वल्लभाचार्य की करुणा जाग गई। जनश्रुति है कि उन्होंने उस दृष्टिहीन व्यक्ति के माथे पर जैसे ही अपना हाथ रखा, पांच हजार वर्ष पूर्व ब्रज की भूमि पर भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रची गईं सभी लीलाएं उसकी बंद आंखों के पटल पर तैर गईं। उसके बाद वल्लभाचार्य उस व्यक्ति को अपने साथ वृंदावन स्थित श्रीनाथ जी के मंदिर ले गए और वहां होने वाली आरती के समय प्रतिदिन एक नया पद की रचना कर गाने का सुझाव दिया। वह परम सौभाग्यशाली दृष्टिहीन व्यक्ति कोई और नहीं सूरदास जी थे।