बोनसाई
बोनसाई और उनकी जड़ों को जी भरकर अपने पैर पसारने और हाथ फैलाकर आकाश को समेट लेने का मौका भी नही दिया जाता। वे जी भर कर सांस लेने की कोशिश करते हैं तो उनकी डालियां छांट दी जाती, पैर फैलाने का प्रयास करते हैं तो उनकी जड़े छांट दी जाती हैं। खाद, पानी और केमिकल के बोझ से उनके कन्धे लाद दिए जाते हैं। उसके फूलों और फलों से लदे शरीर आंखों को सुकून मन को तसल्ली देते हैं पर कभी सोचा है। उसके फूलों और फलों से लदे शरीर उसे खुद को भी बोझिल कर देती हैं।
डॉ. रंजना जायसवाल
‘किस बात की कमी है तुम्हें, पति अच्छा-खासा कमाता है।’
कमी! सच ही तो कहा था मम्मी ने... उनके हिसाब से एक लड़की को जीवन में चाहिए ही क्या होता है। कमाने वाला पति, प्यार करने वाला परिवार और दो प्यारे बच्चे और उसके पास ये सब थे। फिर भी...
‘मम्मी जी आइए आपको अपना बगीचा दिखाऊं।’
साहिल ने बड़े उत्साह से कहा, साहिल को बागवानी का बेहद शौक था। हर महीने कोई न कोई नया पेड़-पौधा उसके खजाने में शामिल होता रहता। फूल-पौधों के मामले में सौम्या की जनरल नॉलेज थोड़ी कम ही थी, वहीं साहिल को पेड़-पौधों के नाम जुबानी याद थे।
हरी-हरी मखमली दूब से सजा लॉन इतना मुलायम कि पैर रखने में संकोच होता था। क्यारियों में लगे एक ऊंचाई के गेंदे के फूल एक जैसे यूनिफॉर्म में स्कूली बच्चों की तरह लग रहे थे, मानो अभी स्कूल की घंटी बजेगी और वे सब एक-दूसरे से धक्का-मुक्की करते अभी कहीं दूर भाग जाएंगे। वहीं पास सेरेमिक के गमले में लगा अल्हड़ गुलाब हवाओं से बातें करता झूम रहा था। काश! बगीचे की तरह जिंदगी भी इतनी रंगीन और खूबसूरत होती। साहिल और मम्मी टहलते-टहलते बरामदे की एक ओर आ गए।
‘मम्मी! मेरे बगीचे का सब से खूबसूरत हिस्सा... मेरे ये बोनसाई।’
बड़े से चपटे गमले एक जैसे रंग में रंगे नए रंगरूटों की तरह सावधान की मुद्रा में रखे हुए थे। किसी में अनार, किसी में चीकू तो किसी में बारहमासी आम लगे थे। मां को भी पेड़-पौधों का बेहद शौक था। मां के मायके में अच्छी-खासी खेती-बाड़ी और आम-अमरूद के बगीचे लगे हुए थे। हम जब भी ननिहाल जाते, नाना जी आम के पेड़ों पर झूले डलवा देते। माली बाबा बड़े से बांस में लग्गी लगाकर चुन-चुन कर आम तोड़ते और नाना जी झट से उन्हें चाकू से काटकर नमक-मिर्च मल देते। हम आम की कैरियों के खट्टे-तीखे स्वाद में आकंठ डूब जाते। मां पेड़ की छांव में चादर बिछाकर घंटों लेटी पत्तियों को देखती रहती। पेड़ों के बीच से लुका-छिपी करती सूरज की किरणों से खेलना उन्हें कितना पसन्द था। वह कभी उन्हें अपनी मुट्ठियों में समेट लेती तो कभी पूरे चेहरे पर पसर जाने देती। हरे-भरे पेड़ों को देख मां के अंदर का बच्चा जाग उठता। ये बात सौम्या ने कितनी बार साहिल को बताई थी। शायद साहिल इसी वजह से मां को बड़े उत्साह से अपनी बगिया को दिखा रहे थे पर मां... मां तो किसी और ही दुनिया में थी। सौम्या उनके चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही थी पर उस चेहरे पर कुछ भी नहीं था। एकदम सपाट एकदम भावहीन... क्यों? मां के चेहरे की एक-एक लकीर को पढ़ लेनी वाली सौम्या आज न जाने क्यों अपने आपको एकदम लाचार महसूस कर रही थी। तभी मोबाइल की घंटी बजी और साहिल बात करते-करते अंदर चले गए।
‘लगता है कोई जरूरी फोन था?’
मां के स्वर में एक उदासी पसरी हुई थी,
‘हम्म शायद! लगता है ऑफिस से आया है?’
सौम्या ने कहा
‘हम्म!’
मां वैसे ही चुपचाप खड़ी, चुपचाप उन बोनसाई पेड़ों को देखती रही।
‘मां आपको हमारा बगीचा कैसा लगा? पुराने घर में तो जगह भी कम थी और बंदर भी बहुत आते थे। साहिल का बहुत शौक है पर जगह और बंदरों की वजह से कुछ कर ही नहीं पाते थे। बस कसमसा कर रह जाते।’
‘और तुझे?’
मां ने सवालिया निगाह से पूछा, सौम्या एकटक उन्हें देखती रही मानों कहना चाहती हो क्या आप नहीं जानती उसकी पसन्द-नापसंद? सौम्या ने वितृष्णा से अपनी आंखें फेर ली और बोनसाई आम में लटके आमों को देखने लगी।
‘कैसे लगे आपको साहिल के ये बोनसाई?’
मां की आंखों में एक अजीब-सा भाव था।
‘साहिल जी से कहना नहीं, उन्हें अच्छा नहीं लगेगा पर मुझे बोनसाई पेड़ बिल्कुल पसंद नहीं!’
मां को बोनसाई पसन्द नहीं यह सुनकर उसे बेहद आश्चर्य हुआ। सौम्या की आंखों में सवाल अभी भी तैर रहे थे।
‘क्यों मां! आपको तो पेड़-पौधे बहुत पसन्द है न... फिर बोनसाई क्यों नहीं!’
‘तुम सही कहती हो मुझे पेड़-पौधेे बहुत पसन्द हैं पर मुझे बोनसाई बिल्कुल पसंद नहीं है।’
‘क्यों मां?’
उसने फिर से अपना प्रश्न दोहराया, मां को बोनसाई पसन्द नहीं यह सुनकर उसे बेहद आश्चर्य हुआ। सौम्या की आंखों में सवाल अभी भी तैर रहे थे।
‘कभी किसी सर्कस में किसी बौने को देखा है। कुदरत ने उनके साथ कितना भद्दा मज़ाक किया है। सब कुछ होकर भी कुछ भी नहीं होता उनके पास... आज भी हम बगल से गुजरते किसी बौने व्यक्ति को पलट कर जरूर देखते हैं। उसके प्रति एक बेचारगी का भाव सहज ही उभर आता है। हम क्यों नहीं उसे अपनी तरह स्वीकार कर पाते, जबकि इसमें उनका कोई दोष भी नहीं, कई बार ऐसा भी होता है कि कुछ व्यक्ति बौने तो नहीं होते पर उनकी लम्बाई काफी कम होती है। हम उन्हें संदेह की दृष्टि से देखते हैं, कहीं वे बौने तो नहीं?’
सौम्या चुपचाप मां की बातें सुन रही थी।
‘बोनसाई मुझे कभी अच्छे नहीं लगते, पता नहीं क्यों इन्हें देखकर मुझे हमेशा लगता है जैसे यह इंसानों के मनोरंजन की चीज़ भर बनकर रह गए हैं। इन पर जबरदस्ती उगने का एक बोझ डाल दिया गया है। ऐसा लगता मानों सोने के पिजड़े बंद तोते को चाहे कितना भी अच्छा खाना खिलाओ वह कैदी ही कहलाएगा और पिंजरा एक जेल... हम बोनसाई के साथ भी तो ऐसा ही कर रहे है। जंगलों और सड़कों के किनारे उगने वाले पेड़-पौधों को भला कौन रोपता और सींचता है पर वह पनप जाते हैं, लहलहा जाते है। छांव देते हैं, फल देते, ऑक्सीजन देते हैं पर बोनसाई और उनकी जड़ों को जी भरकर अपने पैर पसारने और हाथ फैलाकर आकाश को समेट लेने का मौका भी नहीं दिया जाता। वे जी भर कर सांस लेने की कोशिश करते हैं तो उनकी डालियां छांट दी जाती, पैर फैलाने का प्रयास करते हैं तो उनकी जड़े छांट दी जाती हैं। खाद, पानी और केमिकल के बोझ से उनके कन्धे लाद दिए जाते हैं। उसके फूलों और फलों से लदे शरीर आंखों को सुकून मन को तसल्ली देते हैं पर कभी सोचा है। उसके फूलों और फलों से लदे शरीर उसे खुद को भी बोझिल कर देती हैं।’
सौम्या चुपचाप उस बोनसाई को देखती रही, वह कहना चाहती थी। मां तुमने इस अनबोलते पेड़ के दर्द को तो समझ लिया पर मां तुम क्यों नहीं समझ पाई मेरी तकलीफ को, क्यों नहीं पढ़ पाई मेरी आंखों में मेरे दर्द को... तुम तो मेरे शौक, मेरी खुशियां, मेरे सपनों को जानती थी फिर भी! क्या एक औरत को जीवन में सिर्फ एक कमाऊं पति, प्यार करने वाला परिवार और दो बच्चे ही चाहिए होते हैं। उसकी डिग्रियां,उसके शौक उसको मुंह चिढ़ाते हैं। मां की इन गमलों में लगे पेड़ों को देखो, इन गमलों में लगे पेड़ों की पहचान सिर्फ़ बोनसाई बनकर ही क्यों रह गई है, वे आम, अनार और नीबू के पेड़ के रूप में क्यों नहीं पहचाने जाते।
वो भी तो सिर्फ़ बोनसाई बनकर ही रह गई थी, बोनसाई सिर्फ बोनसाई...