बिना हाथ सोना-चांदी साधती तीरंदाज शीतल
शीतल की कहानी एक अविश्वसनीय संघर्ष और आत्मबल की मिसाल है, जिसने बिना हाथ के भी तीरंदाजी में अंतर्राष्ट्रीय सफलता प्राप्त की। उसकी प्रेरणादायक यात्रा ने यह साबित कर दिया कि दृढ़ संकल्प और कठिन साधना से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है।
अरुण नैथानी
यह कल्पना से भी परे है कि एक बेटी, जिसे कुदरत ने हाथ न दिए हों, वह आत्मबल व सतत साधना से अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तीरंदाजी करने लगे। समाज का हेय दृष्टि से देखना उसकी ताकत बन जाए। निस्संदेह, सुबह जिसकी स्वर्णिम हुई सचमुच साधना में वह सारी रात जागा होगा। इस बात को सिद्ध करती है एशियायी पैरा खेलों में स्वर्ण, विश्व स्पर्धा में रजत और पेरिस पैरालंपिक में कांस्य पदक जीतने वाली शीतल। जम्मू की शीतल के तीर विजय की अग्नि बरसाते हैं। बिना हाथ के वह सोने-चांदी के तमगे बटोरती है। कल तक जो लोग उस पर व उसके परिवार पर हिकारत के फिक्रे कसते थे, वे आज वाह-वाह कहते नहीं थकते। हाल में उनकी चर्चा ब्रिटिश ब्रॉड कास्टिंग सर्विस के इमर्जिंग प्लेयर अवार्ड जीतने के रूप में हो रही है। उन्हें हाल में बीबीसी इंडियन स्पोर्ट्स वुमन ऑफ द ईयर 2024 श्रेणी में यह सम्मान दिया गया। दरअसल, उन्हें यह सम्मान भारत की सबसे कम उम्र पैरालंपिक पदक विजेता की उपलब्धि हासिल करने पर दिया गया।
यह कल्पना करते हुए रोमांच होता है कि कैसे बिना हाथ की एक लड़की ने तीरंदाजी जैसे धैर्य व साधना वाले खेल में भविष्य तलाशने का मन बनाया। बिना हाथ के तीरंदाजी का अभ्यास करना एक दुष्कर कार्य ही है। कैसे वह धनुष उठाती होगी और कैसे सधे निशाने लगाती होगी, आम आदमी को यह समझने के लिये माथापच्ची करनी पड़ती है। लेकिन यह हकीकत है कि कुछ ही वर्षों में शीतल ने बड़ी कामयाबी हासिल की है। वर्ष 2022 में एशियायी पैरा खेलों में उन्होंने दो स्वर्ण व एक रजत पदक जीतकर तहलका मचाया। फिर वर्ल्ड पैरा आर्चरी चैंपियनशिप में चांदी का पदक जीता। फिर तो ये सोने-चांदी के पदक उसकी प्रेरणा बन गये। उसके मन में देश के लिये पैरालंपिक में पदक जीतने का जज्बा जगा। उसने जमकर पसीना बहाया। हासिल पदकों ने उसे नई ऊर्जा दी। कहते हैं दृढ़ संकल्प से इंसान असंभव को भी संभव बना लेता है। यही हुआ। शीतल ने पेरिस पैरालंपिक 2024 में कांस्य पदक जीत तिरंगा लहरा कर हर भारतीय को गर्व से भर दिया। निस्संदेह, शीतल की कामयाबी उस हर व्यक्ति के लिए प्रेरणादायी है जिसके साथ कुदरत ने शारीरिक रूप से न्याय नहीं किया। उन लोगों के लिये भी जो जरा-जरा सी नाकामी से आत्मघात की राह चुनते हैं। बहरहाल, शीतल की सफलता के अग्निबाण सतत साधना के ही सुफल हैं। उसकी मेहनत तब पता चलती है जब शीतल कुर्सी पर बैठकर अपने दाहिने पैर से धनुष उठाती है। उसके बाद अपने कंधे का प्रयोग स्ट्रिंग को पीछे खींचने में करती है। फिर जबड़े की ताकत के इस्तेमाल से तीर को छोड़ती है। ऐसी मुश्किल में निशाने साधने वाली इस बेटी की मुक्तकंठ से प्रशंसा ही की जानी चाहिए।
दरअसल, जम्मू की रहने वाली अठारह वर्षीय का जन्म असाध्य रोग फोकोमेलिया के साथ हुआ। जिसकी वजह से उसकी बांह विकसित नहीं हो पायी। जब वह पैदा हुई तो स्वाभाविक रूप से उसके मां-बाप उसके भविष्य को लेकर आशंकित हुए। लोग-बागों के तानों ने उनकी मुश्किलों को बढ़ाया। लेकिन किसी को नहीं पता था कि बिना हाथ के भी वह अपने दृढ़ संकल्प व परिश्रम से सोने-चांदी की इबारत लिखेगी।
निस्संदेह, शीतल की यह राह इतनी भी आसान नहीं थी। एक अनाम से गांव में एक साधारण किसान के घर जन्मी शीतल ने पंद्रह साल तक तो धनुष-कमान देखी भी नहीं थी। ईश्वरीय संयोग से उसका जीवन बदलने वाले धैर्यवान कोच कुलदीप वेदवान से उनकी मुलाकात श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड खेल परिसर में हुई। फिर उनकी तैयारी कटरा में एक प्रशिक्षण शिविर में हुई। सही मायनों में शीतल के धैर्य व क्षमता को देखते हुए तीरंदाजी में कामयाबी के सपने उन्हें कोच कुलदीप वेदवान ने ही दिखाए। वे जानते थे कि शीतल के पैरों में अपार क्षमता है क्योंकि वह सभी काम इनकी मदद से ही करती थी। फिर उन्होंने पैरों व ऊपरी शरीर की ताकत से निशाने साधने का प्रशिक्षण शीतल को दिया। लेकिन इस ताकत को संतुलित करके लक्ष्य में बदलने का रास्ता आसान भी नहीं था। शुरुआत में शीतल को कष्ट हुआ तो हौसला कमजोर हुआ। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। उसकी प्रेरणा विदेशी खिलाड़ी थे, लेकिन उनके जैसे साधन भारत जैसे देश में नहीं थे। विदेशों में प्रशिक्षण दिलाने की क्षमता उनके सामान्य माली हालत वाले परिवार में नहीं थी। उनकी क्षमता के अनुसार धनुष-बाण बनाने से लेकर निशाने साधने में दक्षता हासिल करना एक श्रमसाध्य मार्ग था। फिर मुंह की मदद से तीर छोड़ने के उपकरण तैयार किए गए, जो उनकी जटिल शारीरिक स्थिति में मददगार हो सकें। उसकी कोच अभिलाषा चौधरी ने उसकी कमियों, ताकत व उपकरणों में साम्य स्थापित करने में खासी मदद की। शीतल के लिये विशिष्ट प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार किया गया। कठिन प्रशिक्षण से शीतल के तीर निशानों को बेधने लगे। लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय मानकों का भी रखा गया। जिससे धीरे-धीरे उनका आत्मबल बढ़ा। उन्हें विभिन्न दूरी के लक्ष्यों के लिये प्रशिक्षण दिया गया। छोटे लक्ष्यों से बड़ी सफलता का मार्ग प्रशस्त हुआ। शीतल में सोने-चांदी के तमगे जीतने की भूख पैदा हुई। फिर दुनिया के सामने शीतल के द्वारा एशियाई खेलों में स्वर्ण, वर्ल्ड पैरा आर्चरी चैंपियनशिप में चांदी का पदक और पेरिस पैरालंपिक में कांस्य जीतने की कहानी सामने आई। निस्संदेह, शीतल की साधना करोड़ों भारतीयों के लिये प्रेरणापुंज ही है।