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बिना अहिंसा के योग सम्भव नहीं

04:00 AM Jun 21, 2025 IST
बिना अहिंसा के योग सम्भव नहीं
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अहिंसा को पतंजलि योगदर्शन की अष्टांग योग साधना के यम का पहला अंग माना गया है। अर्थात अष्टांग योग साधना का आरम्भ अहिंसा के पालन करने से ही होता है।

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डॉ. सोमवीर आर्य

आज विश्व ग्यारहवां योग दिवस मना रहा है। योग के इस व्यापक प्रचार को देखकर मन आनन्दित तो होता है, लेकिन साथ ही मन इस बात को लेकर भी शंकित होता है कि क्या हम सही मायने में योग दिवस को आत्मसात कर रहे हैं?
अष्टांग योग को सबसे उत्तम योग माना गया है। जिसमें महर्षि पतंजलि ने आठ अंगों के पालन की बात कही है। जिसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि शामिल हैं। इनमें सबसे पहले अंग यम के पांच उपांग होते हैं, जिनमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आते हैं। आज योग के जिस अंग का सबसे अधिक प्रचार हो रहा है, वह आसन है। जो कि अष्टांग योग साधना के क्रम में तीसरा अंग है। अब विचार इस बात का है कि क्या हम योग के प्रथम अंग के पहले भाग अर्थात अहिंसा का पालन करते हैं? तब जिस बात को लेकर मन में शंका पैदा हुई थी कि क्या हम योग के वास्तविक स्वरूप को आत्मसात करने में सफल हुए हैं?
अहिंसा का सामान्य अर्थ होता है, किसी भी प्राणी को अपने मन, वचन व कर्म द्वारा पीड़ा, तकलीफ़, परेशानी, हानि, चोट अथवा कष्ट न पहुंचाना। इसे हिंसा का सर्वथा त्याग कहा जाता है। अहिंसा को पतंजलि योगदर्शन की अष्टांग योग साधना के यम का पहला अंग माना गया है। अर्थात अष्टांग योग साधना का आरम्भ अहिंसा के पालन करने से ही होता है।
इस प्रकार अहिंसा को अष्टांग योग साधना में सबसे पहले धारण करने का निर्देश दिया गया है। जब हम अहिंसा की बात करते हैं तो इसका मतलब-मानसिक, वाचिक व कायिक अहिंसा से होता है। अपने मन में किसी भी प्राणी के प्रति वैरभाव, उसके बारे में बुरी भावना या उसे मन ही मन हानि अथवा नुक़सान पहुंचाने का भाव भी अपने मन में न रखना मानसिक अहिंसा कहलाती है।
मानसिक अहिंसा के सिद्ध होने पर वाचिक अहिंसा बड़ी आसानी से सिद्ध होती है। किसी भी प्राणी को अपने वचनों से पीड़ा पहुंचाना, किसी का अपमान करना, किसी को गन्दी गालियां देना या किसी को कड़वे प्रवचन बोलना, ये सभी वाचिक हिंसा कहलाती है। वहीं अपने शरीर द्वारा किसी भी प्राणी को शारीरिक रूप से पीड़ा, तकलीफ़, चोट व हानि न पहुंचाना ही कायिक अहिंसा कहलाती है। इसे शारीरिक अहिंसा भी कहा जाता है।
इस प्रकार साधक को अहिंसा के इन सभी प्रकारों को अपने जीवन में धारण करना अति आवश्यक है। वास्तव में इन तीनों के क्रम में पूरी वैज्ञानिकता है। सबसे पहले कोई भी अच्छा अथवा बुरा विचार हमारे मन में ही आता है, उसके बाद वो विचार हमारी वाणी में आता है और वाणी में आया विचार ही अन्त में क्रियात्मक रूप से किया जाता है। सभी मनुष्य इसी युक्ति द्वारा अपने कर्मों का सम्पादन करते हैं।
अहिंसा को वेदों में भी प्रमुख रूप से प्रचारित किया गया है। अहिंसा के सन्दर्भ में यजुर्वेद कहता है कि मुझे आप अंधकार रूपी अविद्या से बाहर निकाल कर विद्या रूपी प्रकाश की तरफ़ अग्रसर करो, जिससे मैं सभी प्राणियों को मित्रवत देख सकूं और सभी प्राणी भी मुझसे मित्रवत व्यवहार कर सकें। ऋग्वेद तो द्वेष को हिंसा का आधार मानते हुए इसके निवारण पर बल देता है। वेद हिंसा का साथ देने वालों की भी अनदेखी करने का निर्देश देता है। आगे कहा गया है कि जिस प्रकार से विद्वान व्यक्ति केवल अहिंसा का पालन करने वालों के घर पर ही आना जाना रखते हैं, ठीक उसी प्रकार मेरा भी अहिंसा पालन करने वालों के घर पर ही आना-जाना हो। हिंसक व्यक्ति के विषय में कहा है कि हिंसा करने वाला व्यक्ति कभी भी परमात्मा को प्राप्त नहीं कर पाता है। इसलिए साधक को हिंसा से बचकर अहिंसा वृत्ति को धारण करना चाहिए।
मनुष्य में हिंसा प्रवृत्ति क्यों? इसका उत्तर हमें योगदर्शन से ही मिलता है, जहां पर हिंसा के पीछे लोभ, क्रोध और मोह को कारण बताया गया है। जब व्यक्ति लोभ, क्रोध और मोह का त्याग कर देता है, तब स्वाभाविक रूप से वह अहिंसा का पालन करता है। इसके विपरीत जब तक व्यक्ति में लोभ, क्रोध और मोह रूपी अवगुण मौजूद होंगे, तब तक अहिंसा सिद्ध नहीं हो सकती। और जब तक अहिंसा सिद्ध नहीं होगी, तब तक आगे की योग साधना में बाधा आएगी। योगदर्शन कहता है कि यदि व्यक्ति हिंसा आदि वितर्कों को नहीं छोड़ता है, तो उसे दुःख और अज्ञानता अनंत काल तक मिलते रहेंगे।
अब हमें यह तय करना होगा कि हम योग के प्रथम अंग अहिंसा को अपनाकर, स्वयं को दुखों और अज्ञानता से मुक्त करें या फिर जीवन पर्यंत दुखों से ग्रस्त होकर जीवन काटें। इस प्रकार हम देखते हैं कि योग का वास्तविक अर्थ अहिंसा से ही परिपूर्ण होता है।
विचार करें कि क्या हम अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के इस पावन पर्व पर अहिंसा का पालन करने का संकल्प लेकर अपने और दूसरों के जीवन को सुखमय बनाने के प्रयास का शुभारंभ कर सकते हैं?

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लेखक सूरीनाम में भारत के सांस्कृतिक राजदूत हैं।

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