बिजली का खेल
सही मायनों में हमें हर किसी मुफ्त चीज की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। यही सिद्धांत किसी देश व राज्य की अर्थव्यवस्था पर भी लागू होता है। लोकलुभावन राजनीति के चलते वोट जुटाने के लिये जिन मुफ्त की योजनाओं को पंजाब में लागू किया गया, उसने राज्य की तरक्की की गति को कुंद ही बना दिया है। वैसे भी देखा जाए तो किसानों को लुभाने के लिये पंजाब में जो मुफ्त बिजली का खेल खेला गया था, वह कृषि के विकास में सहायक साबित नहीं हो रहा है। सही मायनों में यह लोकलुभावन दांव जड़ता का प्रतीक बनकर रह गया है। वर्ष 1997 में छोटे किसानों के लिये लिए शुरू किया गया बिजली सब्सिडी खेल, महज वोट बटोरने का साधन बनकर रह गया है। सच बात तो यह है कि कोई भी राजनीतिक दल ऐसी मुफ्त की सुविधाओं को, वोट कटने की आशंका के चलते बंद करने का जोखिम भी नहीं उठाता। यह विडंबना ही है कि जिस धन को कृषि की तरक्की, ऊर्जा के बेहतर उपयोग तथा सार्वजनिक जवाबदेही से जुड़े संरचनात्मक विकास के लिये खर्च किया जाना चाहिए था, उसे सब्सिडी के रूप में व्यय किया जा रहा है। चिंता की बात यह है कि यह सब्सिडी राज्य की वित्तीय सेहत के लिये घातक साबित हो रही है। विडंबना यह है कि इस वित्तीय वर्ष में बिजली सब्सिडी पर होने वाला व्यय करीब साढ़े बीस हजार करोड़ रुपये से अधिक होने वाला है। चिंता की बात यह भी है कि यह धनराशि पंजाब के पूरे बजट का दस फीसदी के करीब बैठती है। इस सब्सिडी की राशि में से दस हजार करोड़ रुपये कृषि क्षेत्र के लिये और सात हजार छह सौ करोड़ रुपये घरेलू उपयोगकर्ताओं के लिये निर्धारित हैं। आश्चर्य की बात यह है कि लोगों को लुभाने के लिये दी जा रही सब्सिडी की यह राशि अब राज्य के राजस्व घाटे के बराबर हो गई है।
इसके बावजूद यह स्थिति यदि राज्य के नीति-नियंताओं को विचलित नहीं करती है, तो इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। विडंबना यह है कि राज्य में मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का काम सभी राजनीतिक दलों की सरकारों ने पार्टी लाइन से हटकर हर दौर में किया। घाटे की अर्थव्यवस्था को प्रश्रय देने वाली इस नीति को न केवल जारी रखा, बल्कि इसे प्रोत्साहित भी किया । वे मुखर कृषि लॉबी के दबाव में लगातार झुकते रहे। राजनेता दूरगामी व समग्र सुधार के बजाय मुफ्त में पैसे बांटकर चुनावी लाभ हासिल करने की होड़ में जुटे रहे। वहीं आप सरकार द्वारा घरेलू उपभोक्ताओं के लिये तीन सौ यूनिट तक की बिजली मुफ्त करने से सब्सिडी का संकट और गहरा ही हुआ है। करीब नब्बे प्रतिशत तक परिवारों का बिजली बिल शून्य है। ऐसे में बिजली बचत या उपयोग की गई बिजली का भुगतान करने को प्रोत्साहन लगभग समाप्त हो गया है। अब तो पंजाब राज्य विद्युत निगम लिमिटेड यानी पीएसपीसीएल कर्मचारियों के रिक्त पदों को भरने की स्थिति में भी नहीं है। इतना ही नहीं पीएसपीसीएल दो हजार करोड़ रुपये की वार्षिक बिजली चोरी की चुनौती से भी जूझ रहा है। सरकार द्वारा दिए गए करीब चार हजार करोड़ रुपये के बेलआउट के बावजूद पीएसपीसीएल भारी घाटे में चल रहा है। राज्य के विकास में सहायक संस्थानों को मजबूत करने या स्थायी सिंचाई योजनाओं में निवेश के करने के बजाय, राज्य सरकारें वोटों के लालच में मुफ्त की रेवाड़ियां बांटने का उपक्रम करती रही हैं, जिसका खर्चा वहन करना उनके बूते की बात नहीं है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि मुफ्त का चंदन बांटने का यह उपक्रम जितने लंबे समय तक चलेगा, उतने ही समय तक पंजाब की अर्थव्यवस्था में प्राणवायु का संचार करना, नये निवेश को आकर्षित करना तथा नये नौकरियों का सृजन करना और ज्यादा कठिन होता चला जाएगा। इसमें दो राय नहीं कि राज्य नेतृत्व को रियायतें देने के बजाय राज्य में विकास के बुनियादी ढांचे के निर्माण की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। पंजाब को तय करना होगा कि वह बिजली पर सब्सिडी जारी रखेगा या अपने भविष्य को सशक्त बनाने को प्राथमिकता देगा।