बाह्य और आंतरिक चुनौतियों से मुकाबले का वक्त
हमारे प्रधानमंत्री रूस और यूक्रेन के नेतृत्व को समझा चुके हैं, ‘यह युग युद्ध का नहीं है।’ आज के युग में युद्ध का केवल एक ही मतलब है-- विनाश? हम विनाश के पक्ष में नहीं हैं। हमने ‘महाभारत’ से यह सीखा है कि अंतत: युद्ध में सब हारते हैं। लेकिन, वहीं ‘गीता’ ने हमें यह भी सिखाया है कि जब युद्ध कर्तव्य बन जाये तो जीतने के विश्वास के साथ लड़ा जाना चाहिए।
विश्वनाथ सचदेव
पहलगाम में हुए आतंकी हमले की भयावहता और नृशंसता की भर्त्सना दुनिया का हर विवेकशील व्यक्ति कर रहा है। इस तरह की घटनाएं किसी व्यक्ति या समाज के विरुद्ध नहीं होतीं, यह हमला समूची मानवता के विरुद्ध था। पत्नी के सामने पति की हत्या, बेटे के सामने पिता की हत्या, बहन के सामने भाई की हत्या... यह सिर्फ हत्या नहीं है, यह अमानुषिकता का नंगा नाच था। इस काण्ड के विरुद्ध देश भर में क्रोध स्वाभाविक है। जिस तरह इस कृत्य की भर्त्सना हो रही है, और जिस तरह इसका बदला लेने की बात देश कर रहा है, वह किसी भी संवेदनशील समाज की पहचान है। सरकार द्वारा बुलाये गये सर्वदलीय सम्मेलन में देश के सभी राजनीतिक दलों ने एक स्वर से पहलगाम-काण्ड की भर्त्सना की है और इस सम्बन्ध में सरकार द्वारा उठाये जाने वाले हर कदम को सभी राजनीतिक दलों ने समर्थन दिया है। इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री उपस्थित रहते तो और अच्छा होता, फिर भी उन्होंने अन्यत्र यह स्पष्ट कर दिया है कि पहलगाम के अपराधियों को ऐसा दण्ड दिया जायेगा जिसकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते। गृहमंत्री ने आततायियों को ‘चुन-चुन कर’ सज़ा देने की बात कही है, और देश के रक्षामंत्री ने वचन दिया है कि ‘वह अवश्य होगा जो आप (देशवासी) चाहते हैं।’
सवाल उठता है कि इस संदर्भ में आज देश की जनता चाहती क्या है? एक वाक्य में कहें तो कह सकते हैं कि देश पहलगाम के अपराधियों को समुचित सज़ा देना चाहता है। महत्वपूर्ण है यह तथ्य कि देश बदले की बात नहीं कर रहा। अपराधियों को सज़ा देना चाहता है। सज़ा उनको भी जिन्होंने पहलगाम की घाटी में निरपराधों का खून बहाया और उनको भी जो इस सारे काण्ड के पीछे थे।
यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि आतंक की इन सारी घटनाओं के पीछे पाकिस्तान के उन हुक्मरानों का हाथ रहा है, जिन्हें अपनी कुर्सी के लिए भारत के विरुद्ध विष-वमन करना एक अनिवार्यता लगती है। इसलिए, सज़ा के भागीदार वे भी हैं।
हमारे प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कर दिया है कि इस संदर्भ में हर उचित कार्रवाई के लिए देश की सेना को पूरे अधिकार दे दिये गये हैं। कब, क्या और कहां कार्रवाई करनी है, यह तय करने की स्वतंत्रता सेना को मिल गयी है। अपराधियों को सज़ा मिलने में देरी की शिकायत करने वालों को यह याद रखना होगा कि युद्ध लड़ने का निर्णय भले ही सरकार करे, युद्ध कैसे लड़ा जाना है यह तय करने का काम सेना का ही होता है। वर्ष 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने सेनाध्यक्ष जनरल मानेकशाॅ को यह बताया कि वे तत्काल पाकिस्तान पर हमला करना चाहती हैं तो जनरल ने कहा था, ‘मुझे छह महीने का समय चाहिए।’ इंदिरा गांधी ने अपने सेनाध्यक्ष की बात मान ली और उस लड़ाई का परिणाम सारी दुनिया ने देखा! तब लड़ाई कैसे और कब करनी है यह सेना ने तय किया था। आज भी यह निर्णय करने का काम सेना का ही है। हमें अपनी सेना पर भरोसा करना चाहिए। अपनी सेना पर भरोसा करने का मतलब अपने आप पर भरोसा करना है।
एक बात और भी है जो इस देश को समझनी है। आखिर पहलगाम में नरसंहार करने वाले आतंकियों का उद्देश्य क्या था? प्राप्त जानकारी के अनुसार उन आतंकियों को निर्देश था कि वे भारत को ‘अधिकाधिक नुकसान’ पहुंचाएं। इस अधिकाधिक का अर्थ सिर्फ ज़्यादा से ज़्यादा हत्याएं करना नहीं था-- उनका उद्देश्य हमारी एकता को चोट पहुंचाना था। इसीलिए नाम पूछ-पूछ कर गोलियां चलायी थीं उन्होंने! वे मुसलमानों को बचाना नहीं चाहते थे, उनका उद्देश्य हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खाई खोदना और उसे चौड़ा करना था। उन्होंने यही कोशिश की। लेकिन कश्मीर के उस घोड़ेवाले आदिल हुसैन ने अपनी जान देकर यह बता दिया कि भारत के हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खाई खोदने वाले कभी सफल नहीं हो सकते। आदिल अपने मेहमानों की जान बचाने की कोशिश में खुद शहीद हो गया।
यह गलत नहीं है कि आज़ादी मिलने के इन 75 सालों में देश में कई जगह सांप्रदायिक दंगे हुए हैं। लेकिन सही यह भी है कि ऐसे हर दंगे के बाद देश ने सबक सीखने की कोशिश की है। बहुधर्मी देश है हमारा भारत। शायद ही दुनिया के किसी देश में इतने सारे धर्मों के लोग रहते हों। यह बहुधर्मिता, वैविध्य हमारी ताकत है। हमें इस ताकत पर भरोसा भी करना है और इसे मज़बूत भी बनाना है। हमें सभी धर्मों से ऊपर उठकर एक भारतीय होने की अपनी पहचान पर गर्व करने की भावना को मज़बूत बनाना होगा। आज सारा देश एक स्वर में पहलगाम के अपराधियों को सज़ा देने की बात कर रहा है। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि सब यह चाहते हैं, और मांग कर रहे हैं कि अपराधियों को जल्दी से जल्दी सज़ा मिले।
देश पाकिस्तान को भी पाठ पढ़ाना चाहता है। युद्ध की बातें भी हो रही हैं। भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों की सेनाएं युद्ध की तैयारी में लगी हैं। सबको यह समझना होगा कि युद्ध में विजयी चाहे कोई भी हो, नुकसान दोनों पक्षों का होता है। हम युद्ध के पक्ष में नहीं हैं, लेकिन यदि युद्ध हम पर थोपा ही गया तो हम आश्वस्त हैं, हमारी सेना पिछले चार युद्धों की तरह अब भी पाकिस्तान को परास्त करेगी। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री रूस और यूक्रेन के नेतृत्व को समझा चुके हैं, ‘यह युग युद्ध का नहीं है।’ आज के युग में युद्ध का केवल एक ही मतलब है-- विनाश? हम विनाश के पक्ष में नहीं हैं। हमने ‘महाभारत’ से यह सीखा है कि अंतत: युद्ध में सब हारते हैं। लेकिन, वहीं ‘गीता’ ने हमें यह भी सिखाया है कि जब युद्ध कर्तव्य बन जाये तो जीतने के विश्वास के साथ लड़ा जाना चाहिए।
एक बात और जो हमें याद रखनी है, वह यह है कि देश के भीतर भी एक युद्ध लगातार चलता रहता है। दुर्भाग्य से, कभी कहीं और कभी कहीं मवाद वाले फोड़ों की तरह सांप्रदायिकता हमें शिकार बना लेती है। आज जबकि आतंकवादी ताकतें हमारे भारतीय समाज को बांटने की नापाक कोशिशों में लगी हैं, हमें पूरी ताकत के साथ इन कोशिशों को विफल बनाना है। हम यह भी जानते हैं कि अक्सर राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए भारतीय समाज की एकता को कमज़ोर बनाने की कोशिशें होती हैं। इन कोशिशों को भी हमें समझना होगा। इन्हें विफल बनाना होगा।
पहलगाम वाले काण्ड के समय एक घोड़ेवाला नज़ाकत अली भी था। उसके मेहमान ने उसे कहा था, ‘नज़ाकत, मेरे बच्चों को बचा लेना'। उन दो बच्चों के ऊपर लेट गया था नज़ाकत-- गोली चले तो पहली गोली उसे लगे, उसके हिंदू मेहमान के बच्चों को नहीं! यह है हमारी ताकत का रहस्य। बाहर वालों के साथ युद्ध करते समय भी, और अपने भीतर के दुश्मनों के साथ लड़ते समय भी, हमें यह नहीं भूलना है कि झण्डों का रंग भले ही भिन्न हो, खून का रंग लाल ही होता है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।