बयानवीरों की बयानबाज़ी के स्वर्णकाल के बवाल
केदार शर्मा
बयानवीरों के एक के बाद एक सुलगते बयान आ रहे हैं और कानों-कान मीडिया में छा रहे हैं। क्या गज़ब ढा रहे हैं! बयान ही तो बनाते हैं इनकी शान और पहचान।
बयानबाज़ी कोई नई बात नहीं है, बल्कि यह तो एक पुरातन विधा है। यह उतनी ही पुरानी है, जितनी हमारी सभ्यता। याद कीजिए, द्रौपदी का वह एक वाक्य— ‘अंधों के अंधे ही पैदा होते हैं’ और पूरा महाभारत छिड़ गया। युधिष्ठिर के ‘अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो वा’ वाले बयान ने द्रोणाचार्य को मृत्यु तक पहुंचा दिया था। आज बयानवीर बयानों से बबाल और मीडिया टीआरपी भी रच रहे हैं।
इस दौर को अगर बयानबाज़ी का स्वर्णकाल कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इधर बयान दो, उधर चर्चा में आ जाओ। विवादित बयान देना अब रातों-रात प्रसिद्धि पाने का रामबाण उपाय है। न आपको कोई योजना बनानी है, न कोई काम करना है–बस एक चटपटा, चिढ़ाने वाला बयान उछाल दीजिए। बाकी काम मीडिया कर लेता है।
न्यूज़ चैनलों पर पैनलों की बहसें, सोशल मीडिया पर वीडियो-रीलों का तांडव नृत्य, और कमेंट्स की गोलाबारी– जैसे लोकतंत्र कोई कॉकटेल शो बन गया हो। ब्रेकिंग न्यूज़ के फ्लैश से आंखें चुंधिया जाती हैं। न्यायपालिका तक फॉर्म में आ जाती है और इन बयानबाजों को गरियाने की नौबत आ जाती है।
वैसे विवादित बयान देना मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ने के बराबर है। छत्ता छिड़ा नहीं कि मधुमक्खियां चारों ओर से आक्रमण करने लगती हैं। परंतु एक-दो डंक लगने के बाद भी हमने बयानवीरों को मुक्तदंत से हंसते देखा है। चारों ओर आक्रमण से घिरने पर यह कहते सुना है कि एक बार नहीं दस बार माफी मांग लेता हूं। शायद बयानवीरों की खाल बेशर्मी की ढाल जैसी मोटी होती है। शायद किसी भी डंक से इनको बहुत फर्क नहीं पड़ता हो।
वैसे बयानवीर घडि़यालों के पक्के चेले होते है। जैसे घडि़याल शिकार को खाता जाता है और आंसू भी बहाता जाता है! कहता है ‘हे शिकार, जैसा भी था, तू था तो बहुत अच्छा! मैं तो तुझे भाई-बहन जैसा मानता हूं। लोग मेरी बात का गलत अर्थ निकालते हैं।’ वास्तव में अगर ये उल्टी-सीधी बयानबाजी नहीं करेंगे तो यह लोक और तंत्र कैसे जानेगा कि ये जनता के कच्चे प्रतिनिधि ही नहीं, बल्कि इससे भी आगे बढ़कर कोई लोकतंत्र के मूर्त नमूने हैं। आखिर जनता ने वोट देकर इनको सिर-आंखों पर बिठाया है!
बयानवीरों का उतावलापन देखकर यही प्रतीत होता है मानो किसी पुराने, दबे हुए अजीर्ण से इन्होंने मुक्ति पा ली हो। और अब वे हल्के होकर उड़ने लगे हों! कैमरों के बीच, बहसों के बीच, और जनता की बेबसी के बीच!