For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

बदलते रंग होली के

04:00 AM Mar 09, 2025 IST
बदलते रंग होली के
Advertisement

हमारे जमाने में तो लोग गुलाल और रंग से नहा जाते थे। पीले, वसन्ती, लाल, गुलाबी, हरे, नीले न जाने कितने-कितने हल्के-गाढ़े रंगों में सब सराबोर हो जाते थे। बालों में भरा रंग-गुलाल हफ्तों तक नहीं निकलता था। कपड़े टेसू के फूलों से बने रंग में रंगे जाते थे। उन्होंने अपने भीतर ही भीतर अपने आप से ही कहा। न अब वैसी होली रही, न वैसे लोग। महीने भर तक कैसी बैठकें जमती थीं। ढोल और ढप की थाप पर कैसी होली गाई जाती थी।

Advertisement

हरिमोहन

दूर-दूर तक सरसों के फूल खिले-खिले दिख रहे हैं। अंधकार-घुले हरे रंग के गेहूं-जौ के खेत हरी-पोखर जैसे खुले पसरे पड़े हैं। यह सिलसिला दूर क्षितिज तक चलता चला गया था जिसके बीचों-बीच कहीं-कहीं बतखों की तरह तैरते आस-पास के छोटे-छोटे गांव थे। धूप इस समूचे परिदृश्य पर धीरे-धीरे उतर रही थी। इसलिए परिदृश्य में ताजगी और प्रसन्नता थी। ज्ञानेश जी इस सब को ऐसे मुग्ध-भाव से ताक रहे थे, मानो इस चित्र को उन्होंने ही रचा है और इसे अभी-अभी पूरा करके वे थोड़ी दूर खड़े हो उसे देख रहे हैं। ताजे रंग छूट न जाएं, इसलिए अपनी आंखों के अतिरिक्त किसी और को देखने नहीं देना चाहते। क्या पता किसी की दृष्टि छूकर इसमें दाग-धब्बा न लगा दे।
न जाने कब अन्नी एक कोने में आकर खड़ी हो गई है। वह दादूजी को इस तरह मुग्ध-भाव से ताकती देख रही है। दादूजी की आंखों की सीध में वह भी क्षितिज-पार कुछ देखना चाहती है, लेकिन ज्ञानेश जी जो देख रहे हैं, वह उसे नहीं पकड़ पा रही। उसका ध्यान आसमान में उड़ती हुई चिड़ियों पर है। नीम के पेड़ से भगवान रामजी के तीर की तरह छूटे तोतों को देखकर वह जोर से किलक पड़ी। उसकी इस पुलक से ज्ञानेश जी का दूर निकल गया ध्यान लौटा। ‘अरे! अन्नी, तू कब आ गई बच्चा? आ! तुझे एक चीज दिखाऊं।’ एकांत में अचानक मिले अपने उस नन्हे से साथी को उन्होंने अपनी गोदी में बिठाया और उंगली के इशारे से वे उसे दिखाने लगे, ‘वो... देख! कितने सारे फूल... पीले, नीले, लाल...!’ अन्नी चुपचाप देख-भर रही है। न कोई जिज्ञासा, न प्रसन्नता न उत्साह। वे कहीं आहत हो जाते हैं। कितनी बड़ी हो गई अन्नी, पांच-छह साल की तो है ही। अभी इसे रंगों की पहचान नहीं है। न कोई जिज्ञासा है, न प्रकृति से लगाव। क्या हो गया है आजकल के बच्चों को? उन्होंने फिर एक कोशिश की।
‘दादू कौआ!’ अन्नी मिनमिनाई। ज्ञानेश जी में एक नन्हा-सा अंकुर उगा। वे उसे दिखाने लगे। देख वो... बबूल का पेड़। बबूल के फूल देखे हैं तूने? छोटे-छोटे होते हैं। गोल। पीले रंग के। और वो... देख, सरसों का खूब बड़ा खेत। उन्हें लगा कि वे अन्नी की उंगली पकड़ कर अपने बचपन में उतर गए हैं और उसके साथ दूर सरसों के खेतों में निकल गए हैं। भीनी-भीनी गीली सुगन्ध में दौड़ रहे हैं। फूलों का पराग उनके कपड़ों पर और बालों में चिपक गया है। वे अपने खेतों की मेड़ पर नंगे पांवों दौड़ रहे हैं। और लुकाछिपी खेल रहे हैं।
‘चाय पी लीजिए।’
दो बार तो उन्होंने सुना नहीं। जब जोर से कहा गया, तो लौटे। जैसे पराए खेतों में पौधे कुचलते हुए पकड़ लिए गए हों। ‘क्या देख रहे हो? अब ये खेत हमारे नहीं हैं। चकबन्दी में प्रधान के पास चले गए हैं।’ पत्नी जैसे समझाना चाह रही है। वे जानते हैं। पर वे तो सारे खेतों को देख रहे हैं। उनके लिए अपना-पराया कोई खेत नहीं है। ऐसे देखने में तो सब के सब खेत एक जैसे हैं; सुन्दर, समृद्ध, अपनत्व-भरे।
चाय का गिलास देखकर उनके भीतर बचपन का ही एक विचार उछला। चाय नहीं पीनी। छाछ पीने का मन है। उन्होंने सोचा, बिल्कुल अभी रूठ जाएं और चाय का गिलास जमीन पर लुढ़का दें, ‘नहीं मैं तो छाछ पीऊंगा, चाय नहीं पीता।’ पर वे अब कैसे रूठें? मां रही नहीं। पिता रहे नहीं। भाई भी कहीं के कहीं पहुंच गए।
वे अन्नी की ओर देखने लगे। अपने घर गाय-भैंस भी तो नहीं है। यह नन्ही पोती गांव में रहती है। इसके लिए भी दूध-दही कहां हो पाता है। यह भी चाय मांगती है। वे बच्चों को चाय पिलाने के खिलाफ हैं लेकिन बच्चे मानें तब न? और फिर बेचारे बच्चे भी क्या करें? गांवों में भी दूध-दही अब रहा कहां? लोगों के यहां गाय-भैंस अब रहती ही नहीं। सब नौकरी वाले हो गए। किसी के घर में दूध होता भी है, तो बेच दिया जाता है। गांव के पास ही डेयरी खुल गई है। दूधिए गांवों से दूध इकट्ठा कर ले जाते हैं। सोचते-सोचते उन्होंने चाय सुड़की। विचार चाय के गिलास से उठती भाप में तैर कर उड़ गए।
सुबह से ही होली का उत्साह उनके मन में है। साफ कपड़े पहनकर वे जैसे तैयार बैठे हैं। लेकिन अभी तक कोई उनसे मिलने नहीं आया। उन्होंने फिर एक बार घड़ी देखी। ग्यारह से ऊपर हो गए। उन्होंने एक कोने में ऊंघती पड़ी अपनी चप्पलों में पैर डाले। नीचे उतर आए। एक बार फिर आंगन में खड़े होकर बाहर की आहट ली। कहीं कोई हलचल नहीं थी। पत्नी ने टोक ही दिया, ‘फिर निकलकर कहीं चल दिए। होली वाले मिलने आएंगे तो किससे मिलेंगे।’ ‘अरी, भागवान कोई नहीं आ रहा अभी!’ कहने को कह तो दिया उन्होंने, लेकिन पत्नी की बात उन्हें उचित ही लगी। फिर भी उनकी बात अनसुनी कर वे दरवाजा पार कर गए। गली सूनी पड़ी थी। कुछ बच्चे एक-दूसरे पर रेत-मिट्टी फेंक रहे थे। उनको आता देखा तो दौड़कर दुबक गए। उन्होंने बड़े प्यार से एक बच्चे को आवाज दी। उनके मन में आया कि ये बच्चे उन पर धूल-मिट्टी फेंकें। फिर वे झूठ-मूठ को उन पर नाराज हो जाएं। उन्हें डांटें- डपटें। बच्चे उनको चिढ़ाएं। चिढ़ाकर ताली पीटें। हल्ला मचाएं। वे उनके पीछे दौड़ें लेकिन उनके इन विचारों के बाहर खड़े बच्चे चुपचाप छिपे रहे।
‘बाबूजी राम-राम।’ बच्चों की भगदड़ सुनकर गोपालू अपने घर से बाहर निकल आया। बच्चों को डपटता हुआ अपराध-भाव से क्षमा-याचना के स्वर में बोला, ‘बच्चा ऐं, मैंने फटकारि दए हैं...।’ ‘अरे! नहीं रे! मैंने तो इन्हें अपने पास बुलाया था। आए ही नहीं।’ उन्होंने कहा और कुछ रुककर बोले, ‘आज होली है। तुम लोग बाहर नहीं निकल रहे क्या?’ कुछ मुस्कुराकर उन्होंने अपने शब्दों में खनक लाने की कोशिश की। फिर जैसे स्वयं ही अपने कहे पर आश्चर्य करने लगे। ‘अरे, बाबूजी, कहा होरी, का दिवारी...।’गोपालू बड़े उदास मन से बोला और हंसिया-बोरी लेकर अपने खेतों की ओर चल दिया। उनके भीतर कुछ टूटा, पर अगले ही क्षण उन्हें लगा कि गोपालू शायद संकोच कर रहा है। गोपालू ही क्यों, गांव के सब लोग उनसे ऐसा पराया-सा व्यवहार कर रहे हैं। पता नहीं क्यों? वे और आगे नहीं गए। लौट आए और फिर अपनी छत पर टंग गए।
वे छह साल पहले रिटायर हो गए हैं। वर्षों से गांव छूट गया था। गाजियाबाद में अपना मकान बनवा लिया था। वहीं रहे। ज्ञानेश जी पिछले महीने ही गांव आए हैं। इस बार की होली गांव में ही मनाने का निश्चय किया था। गांव के लोगों के मन में उनके प्रति सम्मान है। पढ़े-लिखे कुछ लोगों में से वे ही ऐसे हैं, जो आज गांव में हैं। उनके साथ के और बाद के लोग या तो शहरों में जाकर बस गए हैं, या अपने बच्चों के साथ उनकी नौकरी वाले शहरों में रह रहे हैं। कई तो अब इस दुनिया में ही नहीं रहे। सोचते हैं तो एक लम्बा काला सन्नाटा खिंच जाता है उनकी आंखों के सामने। अब वे बैठें भी किसके साथ। कोई उनके पास आता-जाता नहीं। वे अक्सर बाहर अपने चबूतरे पर बैठे रहते हैं। आते-जाते लोगों का हालचाल पूछ लेते हैं लेकिन हर कोई राम-राम, राधे-राधे कहता हुआ निकल जाता है। सब को अपने-अपने काम हैं। खेत-खलिहान के। घर-गांव के। बाजार के। वे ही खाली बैठे हैं। गांव के कुछ बच्चे शहर के कॉलेजों में पढ़ने जाते हैं। वे उनसे अखबार मंगा लेते हैं। कभी कोई पत्रिका या बहुत हुआ तो कोई किताब। अब चिट्ठियां नहीं आतीं। बस यही उनके साथी हैं। वे निश्चय करके आए थे कि अब बाकी ज़िन्दगी अपने गांव में ही बिताएंगे। अपने लोगों के बीच। पर ये लोग! शायद उनके और इन लोगों के बीच एक कठिन गैप है। वे अपनी ओर से बड़े अपनत्व के साथ मिलते हैं। बातें करना चाहते हैं। अपनी नौकरी के अनुभव सुनाना चाहते हैं। उनका सुख-दुख बांटना चाहते हैं लेकिन तार नहीं बैठता।
इस बार चुनाव में झगड़ा हो गया है। इसलिए पार्टीबन्दी और बढ़ गई है। ठाकुरों का गुट एक तरफ हो गया है ब्राह्मणों का एक तरफ। जाटव और हरिजन भी अब एक नहीं रहे, वे भी बंट गए हैं। वे सोचने लगे कि शायद इसी वजह से लोग होली खेलने बाहर नहीं निकले हैं।
बाल्टी में भरा रंग एक कोने में उनके मन की तरह ही उदास रखा था, ज्यों का त्यों। उन्होंने बड़े चाव से उसे घोला था। चौपई आएगी तो छत से ही आंगन में खड़े लोगों पर उड़ेल देंगे। स्वयं शहर गए थे वे और पक्का रंग खरीद कर लाए थे। गुलाल भी लाए थे गुलाबी, पीला, हरा, लाल... कई रंगों का। गुलाल में सेन्ट भी था। वे मायूस होकर थाल में रखे गुलाल को देखने लगे। नीचे आंगन से धुआं उठ रहा है। पत्नी पकवान तल रही है। उसने गुझिया तो दो-तीन दिन पहले ही बना ली थी। पत्नी का मन तो नहीं था। कहती है दो जनों के लिए क्या बनाएं गुझिया और लड्डू! ऐसा करना बाजार से ही लेते आना। सुनकर वे बमक गए थे, ‘लो! ये जमाना भी आ गया।’ उन्होंने ढेर सारा सामान लाकर रख दिया था। मावा, मैदा, सूजी, मेवे, घी। उन्हें लगा बेचारी को बेकार ही तकलीफ दी। बहू अपने मायके गई है। रामे भी गया है अपनी ससुराल। बस अन्नी है उनके पास। हालांकि रामे उनका भतीजा है, लेकिन पिता समान ही आदर देता है। उनका अपना बेटा तो मुम्बई रहता है। साल में कभी आ जाता है। वे उसके पास जाना नहीं चाहते। भीड़-भाड़ में उनका मन उकता जाता है। सारी ज़िन्दगी दिल्ली, कलकत्ता, गाजियाबाद, मद्रास में ही निकल गई। सारे शहर एक जैसे हैं। इसीलिए तो उन्होंने गांव में रहने का फैसला किया।
रात से गई बिजली अचानक आ गई। बेमन से उन्होंने टी.वी. खोल लिया। दोपहर का कार्यक्रम चल रहा है। महिलाएं होली गीत गा रही हैं। उन्हें देखकर लगा कि ये महिलाएं भी बस रस्म आदयगी के लिए स्टूडियो में आ गई हैं। उनके चेहरे पर न उत्साह है, न उमंग। ...थोड़ी देर तक तो वे टी.वी. के सामने बैठे, पर उनका मन बंध नहीं पाया। उठ गए।
बाहर आ खड़े हुए। दोपहर अपनी आभा छोड़ रही थी और ढलान के करीब आ गई थी सहसा गांव के एक कोने से शोर की हल्की-सी धूल उठी। वे जैसे सपने से जागे। उनकी सारी चेतना एक पुलक के साथ उसी ओर केन्द्रित हो गई। वे उत्साह के साथ सीढ़ियां उतरकर नीचे आए, ‘देख! सुरेश की मां शायद लोग आने वाले हैं। तू जल्दी काम निपटा ले। अपने कपड़े भी बदल ले।’ पत्नी को सुनाते हुए-से वे बोले। लेकिन पत्नी वैसे ही बैठी कचोड़ियां तलती रहीं। उन्हें झुंझलाहट हुई। यही सब करती रहेगी। अभी तक इसका काम ही नहीं निपटा। शाम हो आई। ‘चौपई’ आ गई तो? वे भिन्नाते से फिर ऊपर छत पर आ गए। रंग की बाल्टी को उठाकर एक कोने में रख दिया। ठीक छज्जे के पास कुर्सी खिसकाकर अलग रख दी। चलकर एक कोने से उस ओर देखने लगे, जिधर से शोर उठ रहा था। नई उम्र के कुछ छोकरे उछल-उछलकर एक-दूसरे पर गोबर- कीचड़ फेंक रहे थे। एक-दो लड़के नाली में लुढ़के पड़े थे। कीचड़ और काले रंग से उनके चेहरे इतने पुते हुए थे कि पहचान में नहीं आ रहे थे। उनके हाव-भाव देखकर लग रहा था कि जरूर इन्होंने शराब पी रखी है। घृणा हो आई उन्हें। रंग-गुलाल का नाम नहीं है। नशे में धुत ये लड़के कैसी होली खेल रहे हैं। हमारे जमाने में तो लोग गुलाल और रंग से नहा जाते थे। पीले, वसन्ती, लाल, गुलाबी, हरे, नीले न जाने कितने-कितने हल्के-गाढ़े रंगों में सब सराबोर हो जाते थे। बालों में भरा रंग-गुलाल हफ्तों तक नहीं निकलता था। कपड़े टेसू के फूलों से बने रंग में रंगे जाते थे। उन्होंने अपने भीतर ही भीतर अपने आप से ही कहा। न अब वैसी होली रही, न वैसे लोग। महीने भर तक कैसी बैठकें जमती थीं। ढोल और ढप की थाप पर कैसी होली गाई जाती थी। पर लोग भी क्या करें? न इतनी सुख-समृद्धि रही, न हर्षोल्लास। महंगाई से जूझते-जीते लोग क्या खेलें होली? इससे तो शहर अच्छे। वहां लोग कम से कम एक-दूसरे पर गुलाल तो मल लेते हैं। रंग भी डाल लेते हैं। मिलने आ जाते हैं। महंगाई तो उनके लिए भी है। भीतर से कुछ भी हो, होली का त्योहार तो त्योहार की तरह मना ही लेते हैं। और सबसे अच्छे तो वे मजदूर हैं जो हजारीबाग, बलिया, गोरखपुर जैसी दूर-दराज जगहों से आकर शहरों में मजदूरी करते हैं। होली पर महीनों तक रात-रात भर होली गाई जाती है उनके समाज में। सब मिलकर मस्ती से होली खेलते हैं। नाचते-गाते हैं। उनमें समृद्धता हो न हो, मन में जो उत्साह है, जो मस्ती है, जो लय है, उत्साह का जो सागर है वह अपने आप छलक पड़ता है।
सांझ उतरने लगी। धूप भी अब विस्तार छोड़कर एक ओर सिमटकर बैठ गई थी। वे भारी पैरों से नीचे उतरे। उनके हाथ में रंग की बाल्टी लगी थी। सहसा उनके मन में उत्साह का एक झोंका उठा। वे पत्नी की ओर झपटे और ‘होली है!’ कहकर पूरी बाल्टी उनके ऊपर उड़ेल दी। ‘ये क्या कर रहे हो, तबीयत खराब हो जाएगी।’ पत्नी ने इतना ही कहा। झुर्रियों-भरे उनके गोरे चेहरे पर लाल रंग इस तरह फैल गया मानो आकाश में सूरज डूबते-डूबते अपनी आभा बिखेर गया हो। उनको लगा वे भीड़ में घिरे होली खेल रहे हैं। उनके साथ पूरा गांव खेल रहा है। लोगों पर वे बाल्टी भर-भर कर रंग डाल रहे हैं। ढोलक और ढप के साथ लोग गा रहे हैं, ‘आज बिरज में होरी रे रसिया... होरी रे रसिया, बरजोरी रे रसिया...। कौन के हाथ कनक पिचकारी, कौन के हाथ कमोरी रे रसिया? कृष्ण के हाथ कनक पिचकारी, राधा के हाथ कमोरी रे रसिया...!’ और वे थिरक रहे हैं। रंग में डूबे हुए, गाते हुए। उनको देखकर अन्नी सहमी हुई अपनी दादी की साड़ी पकड़कर उनके पीछे छिप गई है। वे ठगे-से अपने किए को सिर्फ देख रहे हैं बहुत शर्मिन्दगी से, थके-से और बेजान-से।

Advertisement

Advertisement
Advertisement