बढ़ती आबादी को ताकत बनाने की जरूरत
उन्नत देशों की बुजुर्ग आबादी के अनुभवों के आधार पर हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि वृद्धों की बढ़ती संख्या के लिए हमें कराधान, सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य देखभाल संबंधित अपनी नीतियों में समुचित योजनाएं बनाने की आवश्यकता पड़ेगी। वृद्धों की संभाल पर खर्चा अधिक होता है।
मोहन गुरुस्वामी
चिंता की बात है कि देश में जनसंख्या की विशालता से मिलने वाला लाभ कहीं आबादी से बना दुःस्वप्न बनकर न रह जाए। लंबे समय से जनसंख्या के आंकड़ों के हिसाब से मिलने वाले फायदे-नुकसानों के बारे में बोलता-लिखता आया हूं। राजनेता और उनके दलाल यह जाने बिना कि शब्दों का अर्थ क्या है, इसको लपक कर दोहराने लगते हैं। चुनौतियां हमारे सामने हैं।
वह भारत, जिसकी जनसंख्या 134 करोड़ है, अब विश्व में सबसे अधिक आबादी वाला राष्ट्र है। लेकिन भारत हमेशा इतना बड़ा नहीं था, जितना कि आज है, चाहे यह जनसंख्या हो या अर्थव्यवस्था। वर्ष 1921, जिसे ‘विभाजन का बड़ा साल’ कहा जाता है, भारत के जनसांख्यिकीय इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। इस साल मृत्यु दर में काफी गिरावट आई और जनसंख्या वृद्धि की दर अपेक्षाकृत स्थिर रहने वाली लीक से हटकर तेजी से बढ़ने होने की शुरुआत हुई। वर्ष 1801-1921 के बीच जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार काफी धीमी रही, लगभग 20 करोड़ से 22 करोड़ होना। लेकिन 1921 के बाद से हमारी जनसंख्या बढ़ोतरी वास्तव में आज आकाश को छूने की कगार पर है।
जनसंख्या में वृद्धि 1981 में 2.22 प्रतिशत की उच्चतम दर को छू गई थी, उसके बाद से बढ़ोतरी दर घटने की ओर है। एक सदी की अवधि के अंदर, भारत की जनसंख्या में छह गुना इजाफा हुआ। अनुमान बताते हैं कि भारत में पिछले सौ वर्षों में लगभग 200 मिलियन लोग जुड़े और वर्तमान सदी के मध्य तक 200 मिलियन और लोग जुड़ने की उम्मीद है। भिन्न अनुमानों का मध्य आंकड़ा बताता है कि वर्ष 2005-50 के बीच, भारत की जनसंख्या में लगभग 45 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी। वृद्ध जनसंख्या (65 वर्ष से अधिक उम्र वाले) का अनुपात 2050 में 5 प्रतिशत से बढ़कर 14.5 प्रतिशत हो जाएगा, संख्या के मुताबिक कहें तो इनकी गिनती 5.7 करोड़ से बढ़कर 24 करोड़ हो जाएगी। उन्नत देशों की बुजुर्ग आबादी के अनुभवों के आधार पर हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि वृद्धों की बढ़ती संख्या के लिए हमें कराधान, सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य देखभाल संबंधित अपनी नीतियों में समुचित योजनाएं बनाने की आवश्यकता पड़ेगी। वृद्धों की संभाल पर खर्चा अधिक होता है।
चिंता का एक अन्य बड़ा पहलू है बढ़ता जनसंख्या घनत्व। अनुमान है कि जहां यह 2005 में 345 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर था, 2050 में बढ़कर 504 प्रति वर्ग किलोमीटर हो जाएगा। बढ़ते शहरीकरण के चलन के साथ इसे जोड़कर देखने पर, आने वाले सालों में समस्याओं में इजाफे का संकेत मिलता है। साल 2000 में, कुल आबादी का केवल 28.7 प्रतिशत या लगभग 30 करोड़ लोग शहरी क्षेत्रों में बसे हुए थे; अब अनुमान है कि 2030 तक यह संख्या कुल आबादी की 40.7 प्रतिशत या लगभग 60 करोड़ हो जाएगी।
इस भारी वृद्धि में विशेष रूप से मध्यम और कामकाजी वर्ग की बढ़ती आर्थिक शक्ति की भूमिका है। इसके मद्देनजर, पर्याप्त रूप से उन्नत आवास एवं शहरी बुनियादी ढांचा, मसलन, जल, सीवरेज, जन सुविधाएं, तीव्र गति परिवहन, यातायात प्रबंधन एवं पार्किंग, ऊर्जा और दूध एवं दुग्ध उत्पाद, प्रसंस्कृत खाद्य व बागवानी उत्पाद जैसे भोज्य पदार्थों की अधिक खपत और उनके कुशल वितरण के लिए प्रावधान करने की आवश्यकता पड़ेगी।
अनुमान है कि 15-64 वर्ष आयु वर्ग की गिनती जो कि 2005 में कुल आबादी का 62 प्रतिशत थी, 2050 में बढ़कर लगभग 67.3 प्रतिशत हो जाएगी, संख्या के हिसाब से कहें, तो 70 करोड़ से 112 करोड़ होना। फिलहाल भारत में हर साल कामकाजी वर्ग में 1 करोड़ 20 लाख लोग जुड़ रहे हैं। इस आयु वर्ग में वृद्धि 2030 तक तेज रहेगी, जिसके बाद से इसमें शुरू हुई गिरावट इस स्तर पर पहुंच जाएगी कि 2045-50 के बीच शायद ही कोई वृद्धि हो, जो कि 15-64 जनसंख्या समूह की संख्या में स्थिरीकरण और उसके बाद से इसके बुढ़ाते जाने का संकेत है।
यह चक्र प्राकृतिक है क्योंकि जनसंख्या वृद्धि में ठहराव आता रहता है। अगले तीन दशकों की तात्कालिक चुनौती है, पहले करोड़ों नौकरियों का सृजन करना और फिर श्रमिकों की उपलब्धता में तेज गिरावट से निपटना। जैसा कि हाल-फिलहाल चीन को अनुभव करना पड़ रहा है।
जनसांख्यिकीय परिभाषा में जनसंख्या स्थिरीकरण का अर्थ है एक निश्चित समयावधि में जन्म और मृत्यु दर एक समान रहना। अधिक बारीकी से कहें तो, यदि किसी आबादी की प्रजनन दर 2.1 हो जाए, तो उसे जनसंख्या स्थिर होने की संज्ञा दी जाती है। एनपीपी 2000 में परिकल्पना की गई थी कि वर्ष 2045 तक भारत को जनसंख्या स्थिरीकरण बनाना पड़ेगा। यह लक्ष्य इस धारणा पर आधारित है कि देश को वर्ष 2010 तक जनसंख्या का प्रतिस्थापन स्तर टीएफआर 2.1 तक ले आना चाहिए था। हम यह पाने में चूक गए। हालांकि टीएफआर के हालिया आंकड़े 2045 तक भी इस लक्ष्य की प्राप्ति न हो पाने का संकेत दे रहे हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय अब जनसंख्या स्थिरीकरण पाने के वास्ते वर्ष 2060 को एक संभावित लक्ष्य के रूप में देखने लगा है। यहां पर यह उल्लेख करना उचित होगा कि जनसंख्या स्थिरीकरण, प्रतिस्थापन प्रजनन क्षमता (यानी जितने मरें, उतने पैदा हों) बनने के बहुत बाद जाकर बनता है।
वर्ष 1996 में योजना आयोग द्वारा गठित ‘जनसंख्या पर तकनीकी समिति’ द्वारा किए गए एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया था कि भारत 2026 तक प्रतिस्थापन स्तर की प्रजनन दर प्राप्त कर पाएगा। लेकिन, हिंदी भाषी राज्यों में यह बिहार में 2039 तक, राजस्थान 2048 तक, मध्य प्रदेश 2060 से आगे और उत्तर प्रदेश में 2100 के बाद ही संभव होगा। हमें 2060 या 2070 से पहले राष्ट्रीय जनसंख्या स्थिरीकरण पाने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। ये क्षेत्रीय असमानताएं इन राज्यों में अनुमानित जनसंख्या में खतरनाक वृद्धि के रूप में फलीभूत होंगी। 1991-2050 के दौरान भारत की जनसंख्या में होने वाली 77.3 करोड़ की वृद्धि में अकेले उत्तर प्रदेश का हिस्सा 19.8 करोड़ रहेगा। जोकि सकल राष्ट्रीय जनसंख्या वृद्धि का लगभग एक-चौथाई बनता है।
आइए एक नजर डालते हैं कि आने वाले वर्षों में प्रति व्यक्ति आय कितनी रहेगी। साल 2005 में एक शोधपत्र आया था ‘क्या भारत एक आर्थिक महाशक्ति बन पाएगा, क्या वास्तव में और इसमें क्या-क्या रूकावट बन सकता है।’ विश्व बैंक में भारत के लिएइसके प्रमुख अर्थशास्त्री स्टीफन होवेस ने ऐतिहासिक विकास दरों के आधार पर 2050 तक प्रति व्यक्ति आय का अनुमान लगाया था। यह दर्शाता है कि बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में 2050 में प्रति व्यक्ति आय 1000 अमेरिकी डॉलर सालाना से कम रहेगी, जो कि वर्तमान प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद से कम है। निश्चित तौर पर 2050 में होने वाली आय से तो और भी कम। कोई हैरानी नहीं कि ये सूबे वही हैं, जिनकी जनसंख्या वृद्धि दर बहुत ज्यादा है।
वर्ष 2020 में, भारत में 15-24 आयु वर्ग के लोगों की गिनती 24.5 करोड़ से अधिक थी। यदि बचत दरें आज जितनी बनी रहें और 2020 वाली उच्च उत्पादन क्षमता कायम रहे, तब जाकर 2050 तक हमारे पासभारत को एक विकसित और समृद्ध अर्थव्यवस्था बनाने का एक बड़ा अवसर बनेगा। यह तभी संभव होगा यदि हम लोगों को शिक्षित और सशक्त बना पाएंगे। जनसांख्यिकीय आंकड़ों का ऐसा समुच्च्य फिर कभी देखने को नहीं मिलेगा। अगर हमें अगली आधी सदी में गरीबी के मकड़जाल से बाहर निकलना है, तो मानव और आर्थिक विकास में बड़े निवेश करने का समय अभी है।
दुर्भाग्य से, ऐसा कोई संकेत मिल नहीं रहा।
लेखक एक जनबुद्धिजीवी हैं।