बड़ी कीमत चुकानी होती है युद्ध की
कुछ टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर मुहिम चल रही है कि भारत पाक पर हमला करके सबक सिखाए। लेकिन क्या युद्ध करना इतना आसान है? आम आदमी को महंगाई व युद्ध व्यय में भागीदारी के रूप में बड़ी कीमत चुकानी होती है। वहीं अंतर्राष्ट्रीय शक्तियां भी अपने हितों के अनुरूप खेलना शुरू कर देती हैं।
क्षमा शर्मा
पहलगाम में जिस तरह से धर्म पूछ-पूछकर, एक समुदाय के आतंकवादियों ने दूसरे समुदाय के लोगों की हत्या की, वह बेहद निंदनीय है। वह स्त्री जिसकी एक महीने पहले शादी हुई, वह जिसकी एक हफ्ते पहले शादी हुई और जान गंवाने वाले बाकी के लोग, उन्होंने किसका क्या बिगाड़ा था। कश्मीर में अरसे से इस तरह के हत्याकांडों को अंजाम दिया जा रहा है।
जब से यह हत्याकांड हुआ है, केंद्र की सरकार ने बहुत से कूटनीतिक कदम भी उठाए हैं, जिनमें सिंधु जल समझौते को रोकना, पाकिस्तानियों को देश से निकालना, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को इस बारे में आगाह करना आदि बातें शामिल हैं। हालांकि, बहुत से दल और लोग सरकार की देरी पर सवाल उठा रहे हैं, उकसा रहे हैं। सरकार अगर सोच-समझकर निर्णय लेना चाहती है तो इसमें गलत क्या है।
इस घटना के बाद सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एक तरफ तो कहा जा रहा है कि अभी के अभी फौरन युद्ध चाहिए। दूसरी तरफ लोग हर बात के लिए सरकार को दोषी ठहरा रहे हैं। ये चाहते हैं कि सरकार इनकी मांग पर युद्ध शुरू कर दे। पाकिस्तान और भारत के बयानवीर तरह-तरह के बयान दे रहे हैं। इस कठिनाई के समय किसी के भी द्वारा राजनीति की रोटियां सेकना बंद किया जाना चाहिए।
जब से इराक, अमेरिका युद्ध का लाइव प्रसारण शुरू हुआ, तब से मीडिया के लिए युद्ध बहुत आकर्षक हो चला है। आखिर जो देश युद्ध में फंसे होते हैं, उनके घरेलू मोर्चे पर क्या होता है। पहली बात तो महंगाई इतनी बढ़ जाती है कि उसकी कल्पना करना मुश्किल है। काले बाजारियों की बन आती है। जरूरी चीजें रातों-रात बाजार से गायब हो जाती हैं। उन्हें मनमाने दामों पर बेचा जाता है। दवाइयों की बहुत किल्लत हो जाती है। आवागमन पर इसका बहुत प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के तौर पर जैसे ही पहलगाम में लोगों को मारा गया, एयरलाइंस ने अपने किराए छह गुने बढ़ा दिए। सरकार ने उनसे किराया कम करने को कहा भी लेकिन एयरलाइंस कम्पनियां नहीं मानीं। जबकि कश्मीर की घटना के बाद कोई युद्ध नहीं शुरू हो गया था। ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि लोग इस डर से कि कहीं युद्ध हुआ अगर वक्त पर कोई सामान लड़ाई के कारण नहीं मिला तो भारी मात्रा में खरीददारी कर रहे हैं। लेकिन ऐसा वे ही कर सकते हैं, जिनकी जेब में अतिरिक्त पैसा है। जो रोजमर्रा की कमाई पर निर्भर हैं, वे क्या करेंगे। कोरोना के वक्त भी ऐसा ही हुआ था। महंगाई की मार हर वर्ग को झेलनी पड़ती है। उस मध्यवर्ग को तो ज्यादा ही जो इन दिनों फौरन युद्ध का समर्थन कर रहा है। आखिर युद्ध के वक्त सरकारों के पास पैसा कहां से आएगा, टैक्स के रूप में हमारी जेब से ही। सरकारों के पास अपनी आय तो होते नहीं। लोगों पर टैक्स लगाकर ही वह अपनी आय बढ़ाती है।
जो देश भी युद्ध में फंसते हैं, उनकी आर्थिकी तबाह हो जाती है। तमाम दुनिया के देश और संस्थाएं सक्रिय हो जाती हैं। वे हर तरह से अपने लाभ-हानि का गणित बैठाते हैं। हथियारों के सौदागरों के लिए कोई भी लड़ाई, अपने मुनाफे का स्वर्णिम अवसर होता है। पश्चिमी देशों का दोमुखी रवैया जगजाहिर है। पाकिस्तान के संदर्भ में अक्सर हमने यह होते देखा है, जहां पाकिस्तान को वे खुद आतंकवाद से पीड़ित बताते रहे हैं। अब वे अभी उकसा रहे हैं, बाद में गायब भी हो जाएंगे। आपकी आफत है, आप खुद निपटिए। विदेशों में शांति फैलाने वाली संस्थाओं के एक हाथ में शांति का फूल होता है तो दूसरे में हथियार। यकीन न हो तो नोबेल पीस प्राइज देने वालों को देख लीजिए। उनकी कम्पनियां दुनिया के मारक हथियार बनाती हैं। इतनी ही शांति की चिंता है तो हथियार बनाना बंद क्यों नहीं कर देते।
वर्ष 1965, 1971, 1999 में हमने पकिस्तान से तीन युद्ध लड़े हैं। हर बार जीते हैं। बल्कि बांग्लादेश बनवाकर अक्सर हम अपनी पीठ थपथपाते रहे हैं कि पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए। लेकिन अब बांग्लादेश क्या कर रहा है, यह देखा जाना चाहिए। एक बार मशहूर लेखक सलमान रुश्दी ने कहा था कि आप चाहे पाकिस्तान के कितने भी टुकड़े कर दें लेकिन वे एक विशेष विचारधारा से संचालित होते हैं, इसलिए रहेंगे आपके शत्रु ही।
इन तीनों युद्धों में विजय पाकर भी अखिर हमने क्या पाया। सिवाय इसके कि समझौते करने पड़े। करगिल युद्ध के दौरान एक बार बताया गया था कि इसे जीतने में बोफोर्स तोपों की बड़ी भूमिका थी। उसी में पढ़ा था कि तोप के एक गोले की कीमत सत्तर हजार रुपये थी। बताइए कि आज क्या होगी। जिन मिसाइलों को हम हवा में उड़ते देखकर रोमांचित होते हैं, उनमें से एक-एक मिसाइल की कीमत कितनी होती है, जरा पता कर लीजिए। आज के दौर में किसी युद्ध को आसानी से जीता नहीं जा सकता, जीत भी लें तो अक्सर जीते हुए स्थान उस देश को वापस लौटाने पड़ते हैं, जैसे कि हमें 1965 में करना पड़ा था। तमाम देश भारी दबाव डालते हैं। आज के युग में कोई भी लड़ाई स्थानीय नहीं है। उसमें तमाम वैश्विक शक्तियों की भागीदारी होती है। यह भी सच है कि किसी को भी धरती के नक्शे से मिटाया नहीं जा सकता। अगर ऐसा होता तो रूस ने यूक्रेन को निगल लिया होता। हर बार लड़ाई में अपने-अपने हितों के आधार पर तमाम देश पक्ष-विपक्ष चुनते हैं। तुर्किए को ही देख लीजिए। जैसे ही भारत-पाकिस्तान युद्ध की बात चली, वहां के विमान युद्ध की सामग्री लेकर पाकिस्तान आ पहुंचे। ये पश्चिमी देश भी दो देशों को युद्ध में फंसाकर, अपने हित साधने के लिए आ जाएंगे। इसी आधार पर समर्थन और विरोध करेंगे।
आज कोई दो ध्रुवीय दुनिया भी नहीं है। वर्ष 1971 में अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद के लिए अपना मशहूर सैवेंथ फ्लीट भेजा था तो रूस ने भी हमारी मदद के लिए अपने युद्धपोत भेज दिए थे।
यहां यह कहने की कोई कोशिश नहीं की जा रही कि पाकिस्तान को आतंकवाद को प्रायोजित करने का सबक न सिखाया जाए। लेकिन युद्ध में कूदने से पहले इसका वास्तविक आकलन करना जरूरी है। चैनल्स का या सोशल मीडिया का युद्ध उन्माद भी भरोसे लायक नहीं है। इनमें से किसी को वास्तविक लड़ाई नहीं लड़नी है। इनके लिए लड़ाई भी एक बड़ा इवेंट है।
सरकार सोच-समझकर निर्णय कर रही है, जो बिल्कुल ठीक है। आतंकवादियों को सबक सिखाना जरूरी है, जिसके लिए पुख्ता रणनीति चाहिए। यह भी जरूरी है कि देश एक सुर में बोले, एक रहे। युद्ध कोई स्वादिष्ट परांठा नहीं है, जिसे चटनी, अचार, रायते के साथ खाकर आप चैन की नींद सो सकते हैं।
अगर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कोई देश युद्ध करता है, निरपराध लोगों को मारता है तो जवाब देने का अधिकार दूसरे देश को है। आतंकवाद को सख्ती से निपटाना होगा, जिससे कि फिर कोई निरपराध जान न गंवाए।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।