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प्रेम और घृणा के बीच मानवता का सफर

04:00 AM Jun 02, 2025 IST
प्रेम और घृणा के बीच मानवता का सफर
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यदि हम सामूहिक रूप से घृणा के स्थान पर करुणा, भय के स्थान पर संवाद, और संघर्ष के स्थान पर सहयोग चुनें—तो शायद मानवता की कहानी एक नया, उज्ज्वल, विवेकपूर्ण और अधिक मानवीय मोड़ लेगी।

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श्याम सखा ‘श्याम’

प्रेम और घृणा—हमारे भावनात्मक और सामाजिक ब्रह्मांड की दो सबसे शक्तिशाली शक्तियां—न केवल हमारे व्यक्तिगत जीवन को आकार देती हैं, बल्कि पूरी सभ्यताओं के उदय और पतन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। एक उदाहरण प्रसिद्ध इतिहासकार—युवाल नोआ हरारी, इस्राइली विद्वान और होमो सेपियंस पुस्तक के लेखक—ने साझा किया है।
हरारी कहते हैं कि यदि आप एक इंसान और एक गोरिल्ला को किसी निर्जन द्वीप पर छोड़ दें, तो संभव है कि गोरिल्ला इंसान से अधिक समय तक जीवित रहे—यहां तक कि वह इंसान को मार भी सकता है। लेकिन यदि आप दस इंसानों और सौ गोरिल्लाओं को उसी द्वीप पर छोड़ दें, तो लगभग निश्चित है कि इंसान जीतेंगे। वजह है कि इंसान संगठित हो सकते हैं, संवाद कर सकते हैं, रणनीति बना सकते हैं, और सबसे महत्वपूर्ण कि सामूहिक निर्णय ले सकते हैं। यही सामूहिक निर्णय लेने की क्षमता मानव समाज की नींव बनी ,जो सबसे पहले परिवार के रूप में प्रकट हुई।
कल्पना कीजिए उस क्षण की, जब एक पुरुष और एक स्त्री साथ रहने का निर्णय लेते हैं— बच्चे का पालन-पोषण करते हैं, भोजन, आश्रय और भावनात्मक संबंध साझा करते हैं। यही सह-अस्तित्व मानव इतिहास का पहला सहयोगी निर्णय था। इसी पहले प्रेम और सहयोग की इकाई से कबीले बने, संस्कृतियां विकसित हुईं, धर्मों का उदय हुआ, और राष्ट्रों की नींव पड़ी। हम इस विचार को आदम और हव्वा की प्राचीन कथा में भी प्रतीक रूप में देख सकते हैं—एक ऐसी कहानी जिस चाहे आप धर्म में विश्वास करें या नहीं, एक गहरी मनोवैज्ञानिक सच्चाई को प्रकट करती है। यह प्रेम, प्रलोभन, साथ, गलती और परिणाम की कहानी है।
बीसवीं सदी के दार्शनिक जिद्दु कृष्णमूर्ति ने क्रांतिकारी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उनका कहना था कि आदम और हव्वा का मिलन—या आधुनिक विवाह संस्था—प्रेम पर नहीं, बल्कि आवश्यकता पर आधारित है। पारस्परिक निर्भरता, सुविधा, और यहां तक कि स्वार्थ भी इसमें शामिल हैं।
कृष्णमूर्ति ने कहा, ‘अधिकांश लोगों के लिए प्रेम का अर्थ है : आराम, सुरक्षा और जीवनभर की भावनात्मक संतुष्टि की गारंटी।’ साथ ही, विवाह में भी विश्वास और आपसी संतोष की एक नाज़ुक उम्मीद निहित होती है। यदि हम विवाह संस्था के इतिहास को देखें, तो पता चलता है कि यह एक पवित्र बंधन के रूप में शुरू होकर धीरे-धीरे अनुबंध और फिर कानूनी युद्धभूमि बन गई। तलाक—जो कुछ आदिम समाजों में भी मौजूद था—सबसे पहले यूनानी-रोमनों ने कानून में दर्ज किया। बाद में, ईसाई और हिंदू धर्म ने इसे पाप माना, जबकि इस्लाम ने तलाक को स्वीकार किया, लेकिन अंतिम उपाय माना। दिलचस्प बात यह है कि इस्लाम ने पुरुषों के लिए तलाक की प्रक्रिया को सरल भी बनाया।
समय के साथ, नवीनता, परिवर्तन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की इच्छा आजीवन प्रतिबद्धता के आदर्श से अधिक बलवती हो गई। और आज तलाक एक वैश्विक वास्तविकता बन चुका है—लगभग सामान्य। विवाह संस्था का पतन इसलिए नहीं हुआ कि मनुष्यों ने प्रेम करना बंद कर दिया, बल्कि इसलिए कि प्रेम की परिभाषा बदल गई है। अब हम प्रेम को केवल एक कर्तव्य के रूप में स्वीकार नहीं करते। हम चाहते हैं कि प्रेम मुक्त करे, न कि बंधन में डाले; समृद्ध करे, न कि दास बनाए।
व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो परिवार, जो प्रेम और विश्वास से जन्मा था, वही बीज बना जिससे कबीले, समाज, धर्म और राष्ट्र विकसित हुए। विश्वास ने कानूनों को जन्म दिया, और मानव अधिकारों की अवधारणा का आधार रखा। लेकिन याद रखें—प्रकृति और जीवन द्वैत के सिद्धांत पर चलते हैं। रात के बाद दिन आता है, प्रकाश अंधकार में बदलता है, और जहां प्रेम होता है, वहां उसकी छाया भी होती है। वह छाया है : ईर्ष्या, भय, और अंततः घृणा। इसी तरह, विश्वास से शंका उत्पन्न होती है, फिर अविश्वास, और अंततः भय। ये तीनों—घृणा, भय और अविश्वास—मानव सभ्यता के सबसे बड़े शत्रु हैं। इन्होंने परिवारों को तोड़ा, समाजों को चकनाचूर किया, और सदियों तक युद्ध कराए।
अब्राहमिक धर्मों—यहूदी, ईसाई और इस्लाम—को देखें। तीनों एक ही आध्यात्मिक पूर्वज, मिलते-जुलते ग्रंथ और समान भविष्यवक्ताओं को मानते हैं। फिर भी सदियों से वे ईश्वर के नाम पर युद्धरत रहे। क्या यह विडंबना नहीं है? कि वे धर्म जो विश्वास, प्रेम और शांति पर आधारित हैं, वही युद्ध, विभाजन और असहिष्णुता का कारण बने? यही है मानव विकास की दुखद विडंबना। हम करुणा कर सकते हैं, फिर भी घृणा पालते हैं। हम संबंध चाहते हैं, फिर भी भय की दीवारें खड़ी करते हैं। हम विश्वास बनाते हैं, पर अविश्वास करने में जल्दबाज़ी करते हैं।
तो फिर समाधान क्या है? उत्तर प्रेम को अस्वीकार करने में नहीं, बल्कि उसे नए सिरे से परिभाषित करने में है। संस्थाओं जैसे परिवार और विवाह को नष्ट करने में नहीं, बल्कि उन्हें ईमानदारी, स्वतंत्रता और भावनात्मक बुद्धिमत्ता से पुनर्जीवित करने में है। यह हमारे बच्चों को यह सिखाने में है कि प्रेम के उजाले और उसकी छाया—दोनों को समझें। विश्वास को महत्व दें, लेकिन जब वह टूटे, तो माफ करने का साहस रखें। दूसरों को शत्रु नहीं, बल्कि जीवन यात्रा के सहयात्री समझें।

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