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प्रतीक्षा

04:00 AM Apr 20, 2025 IST
प्रतीक्षा
चित्रांकन : संदीप जोशी
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‘भाभी, चाचा को मैं अपने घर ले जाऊं, कुछ दिन के लिए? बच्चों से मिल लेगा और इसका दिल भी बहल जाएगा।’ बंचित को जैसे बोलने का अवसर मिल गया। ‘ले जा भई... ले जा... हमसे तो ये तंग आए पड़े हैं... हम तो जैसे इनको पूछते ही नहीं।’ बचिंत ने ऊंची आवाज़ में कहा ताकि चाचा भी सुन ले। ‘नहीं भाभी, यह बात नहीं। इस उम्र में बंदा एक जगह बैठा-बैठा उकता जाया करता है। देख लेना भाभी, ये वहां भी ज्यादा दिन नहीं रहने वाला। इसका दिल इधर ही लगा रहेगा।’ जगतार ने हंसते हुए कहा।

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सुभाष नीरव
नवंबर माह के अन्तिम दिन थे। सर्दी धीरे-धीरे अपना ज़ोर दिखाने लगी थी। सुबह जब जगतार 14 नंबर गली के बाज़ार में किसी काम से आया तो काम निपटाकर वापस घर लौटने से पहले उसने सोचा, क्यों ने छोटे भाई बिन्दर के घर होता चले और चाचा को भी देखता चले।
गुनगुनी धूप गली में मकानों के आगे बिछी हुई थी। चाचा बख्तावर, जगतार को घर के बाहर ही धूप में चारपाई डालकर बैठा मिल गया। पास जाकर जब जगतार ने ऊंची आवाज़ में ‘पैरीपैना’ कहा तो बख्तावर ने मुंह ऊपर उठाया और आंखों पर दायें हाथ की छतरी बनाकर देखने लगा। सूरत तो न पहचान सका मगर आवाज़ पहचान ली।
‘जगतार है?’
‘हां चाचा... जगतार। क्या बात है चाचा? कैसे गुमसुम हुआ बैठा है बाहर गली में?’ जगतार ने फिर ऊंची आवाज़ में पूछा।
जगतार जानता था कि चाचा को अब कानों से कम सुनता है और आंखों से कम दिखता है। इसलिए वह चाचा के करीब होकर ऊंची आवाज़ में बोल रहा था।
बख्तावर चाचा के दोनों हाथ ऊपर उठे तो जगतार थोड़ा झुक गया।
‘जीता रह पुत्तर... लम्बी उम्र हो तेरी।’  जगतार के सिर पर हाथ फेरते हुए चाचा बोला, ‘बड़े दिनों बाद दिखाई दिया... आ, बैठ जा दो घड़ी, मेरे पास भी...।’
जगतार चाचा के पास चारपाई के पायताने बैठ गया।
गली सुनसान थी और घर का दरवाज़ा भिड़ा हुआ था।
‘और सुना चाचा, क्या हाल है तेरे?’ पर चाचा को सुना नहीं। वह चुपचाप जगतार की ओर देखता रहा। जगतार ने चाचा के और करीब होकर ऊंची आवाज़ में पूछा, ‘चाचा, मैं पूछता हूं, क्या हाल है तेरा?’
जगतार ने इतनी ऊंची आवाज़ में पूछा था कि गली में से गुज़रता आदमी भी रुककर उनकी ओर देखने लगा था।
‘पुत्तर जगतारे... अब तो हाथ-पांव से ही नहीं, आंख-कान से भी मुथाज (मोहताज) हो गए... पास बैठा बंदा पछाणा नहीं जाता और वो क्या कहता है, ये भी पता नहीं चलता। अब, कुछ नहीं रहा स्वाद जीने में...’ बख्तावर चाचा ने जैसे अपने बुढ़ापे की मार का दुःख साझा किया।
‘दिल क्यों ढाता है चाचा... बहुत ज़िन्दगी देख ली तूने... और फिर बुढ़ापे में सभी के साथ ऐसा ही होता है, चाचा! ज्यादा न सोचा कर... रब्ब का नाम लिया कर...।’ जगतार एक सयाने आदमी की तरह चाचा को समझाने लगा।
‘बेटा, इस उम्र में तो हमारे साथ कोई दो बोल बोलकर भी राज़ी नहीं। अब तो मैं फालतू-सा कबाड़ हूं। घर के एक कोने में फेंका हुआ।’ लगता था, चाचा बख्तावर आज अधिक ही दुखी हुआ पड़ा था।
‘न चाचा, यह क्या बात की तुमने? ...घर के बड़े-बुजुर्ग फालतू का कबाड़ कैसे हो गए... बिन्दर पूछता नहीं?’
जगतार ने देखा, चाचा की आंखें भीग गई थीं। वह चाचा के और करीब सरक आया। उसका दिल किया कि वह आगे बढ़कर चाचा की आंखें पोंछ दे... पर वह ऐसा न कर सका और चाचा का हौसला बढ़ाने के लिए कहने लगा,
‘चाचा, ये ज़िन्दगी के आखि़री समय का सफ़र है, मन पर नहीं लगाते... खुश रहा कर।’
धूप आहिस्ता-आहिस्ता चारपाई पर से सरकती हुई दूर होती जाती थी और मंद-मंद ठंडी हवा भी चलने लगी थी। चाचा ने पतली-सी खेसी लपेट रखी थी। उसने उसको और कसकर लपेट लिया।
जगतार ने देखा, चाचा बार-बार पीछे की तरफ मुंह घुमाकर घर के दरवाज़े की ओर झांकता था। शायद कुछ और कहना चाहता था, पर डरता था कि कहीं बहू न सुन ले।
कुछ देर के लिए दोनों के बीच चुप्पी पसरी रही।
चारपाई पर चाचा के पास बैठा जगतार बहुत पीछे कहीं गुम हो गया।
करमा और बख्तावर दो भाई थे। ज़मीन थोड़ी थी। दोनों भाई साझी खेती करते थे। बहुत मेहनत की दोनों ने मिलकर। करमे के चार बच्चे हुए- तीन लड़कियां और एक लड़का जगतार। बख्तावर के छह बेटियों के बाद एक लड़का हुआ- बिन्दर। बच्चे बड़े हुए तो साझे घर में कलह रहने लगी। गुज़ारा बमुश्किल होता था खेती से।
रोज़-रोज़ की चिक-चिक से बचने के लिए दोनों भाइयों ने अलग होना मंजूर कर लिया। दोनों के चूल्हे अलग हो गए। ज़मीन के दो टुकड़े हो गए। हिस्से आई ज़मीन के सिर पर गुज़ारा कहां होना था, रोटी ही मुश्किल से चलती थी, पर दोनों भाइयों ने हिम्मत न हारी। देहतोड़ काम किया। बख्तावर चाचा तो अपने खेतों के अलावा दूसरों के खेत भी ठेके पर जोतता-बोता था। रात देखता न दिन। बस, कोल्हू के बैल की तरह लगा ही रहता। जगतार का बापू करमा भी खूब मेहनती था। पसीना बहाना दोनों जानते थे। मगर दोनों की मेहनत काम न आई। दोनों की बेटियां जवान हो रही थीं। उनके विवाह पर ज़मीन के टुकड़े होते रहे और सिर पर कर्जा चढ़ता चला गया। जैसे-तैसे दोनों भाइयों ने बेटियां तो ब्याह दी थीं, पर लड़कों को पढ़ने से नहीं हटाया था। बिन्दर आई.टी.आई. करके एक कारखाने में लग गया और जगतार शहर के एक स्कूल में मास्टर हो गया। करमे ने और चाचा बख्तावर ने शेष बची गांव की ज़मीन बेचकर शहर में कटी नई कालोनी में अलग-अलग प्लॉट ले लिए और मकान बना लिए। लड़के ब्याह दिए।
चाची पूरी हुई तो बख्तावर चाचा दुनिया में जैसे बिल्कुल ही अकेला रह गया।
जब बड़ा भाई करमा रब को प्यारा हुआ, बख्तावर तो जैसे अंदर से ही टूट गया। दोनों भाई बेशक अलग हो गए थे, पर दोनों में किसी तरह की फांक नहीं थी पड़ी। बख्तावर चाचा बड़े भाई के घर आता-जाता रहा... सुख-दुख की बात करता रहा। अब बड़े भाई के न रहने पर कहीं भी निकलने को उसका मन नहीं करता।
‘और बेटा जगतार, परिवार कैसा है पुत्तर, बच्चों को और बहू को लेकर आना... बड़ा दिल करता है मिलने को।’
दोनों के बीच फैली चुप्पी को जब चाचा ने यह कहकर तोड़ा तो जगतार जैसे अपनी सोचों और यादों की दीवार फांद कर एकदम बाहर आ गया। उसने देखा, चाचा उसकी तरफ ही एकटक देख रहा था और अपने सवाल के जवाब की प्रतीक्षा कर रहा था।
‘हां चाचा, सब ठीकठाक हैं। बच्चे तुझे याद करते हैं... लेकर आऊंगा तेरे पास।’
‘अब मेरे से चला-फिरा नहीं जाता पुत्तर, नहीं तो मैं खुद दो-चार दिन के लिए तेरे बच्चों के पास आकर रहता।’
चाचा की यह बात सुनकर जगतार को लगा मानो चाचा चाहता हो कि जगतार कहे, ‘चल चाचा, मैं ले चलता हूं, तुझे अपने घर... हफ्ता, दो हफ्ता जब तक तेरा दिल करे, वहीं रहना...’
‘तू ज़रूर आकर रह चाचा, जब तक तेरा दिल हो।’ जब जगतार यह बात कह रहा था, ठीक उसी वक्त घर का दरवाज़ा खुला और बिन्दर की पत्नी बचिंत ने बाहर झांका। ससुर के पास जगतार को बैठा देख वह उलाहना देती हुई बोली, ‘कैसे? याद आ गई बाई की खबर लेने की?’
बिन्दर जगतार से छोटा था, पर बचिंत जगतार से ऐसे बात करती थी जैसे वह उसका जेठ न हो, देवर हो। और जगतार भी जेठ की तरह नहीं, देवरों की तरह ही बिन्दर की घरवाली बचिंत से बात करता था।
‘सत‍् श्री अकाल भाभी... आज इस तरफ आया था। दिल किया चाचा को मिलता जाऊं। चाचा बाहर ही चारपाई डाले बैठा मिल गया तो मैं इसके पास ही बैठ गया, हालचाल पूछने।’ जगतार भाभी की तरफ देखता हुआ बोला।
‘बाहर हवा चल रही है, अंदर आ जाओ। बाई को भी अंदर ले आ। मैं चाय रखती हूं।’ कहकर वह अंदर जाने लगी।
‘न भाभी, चाय-वाय रहने दे... फिर आऊंगा...।’ जगतार ने कहा तो चाचा बख्तावर ने जगतार का हाथ पकड़ लिया।
पहले तो जगतार कुछ समझा नहीं, पर जब उसने चाचा की आंखों में झांका तो उसको सारी बात समझ में आ गई। चाचा की आंखों में एक याचना थी, एक मिन्नत। मानो कह रही हों, ‘बनने दे चाय जगतार... तेरे बहाने मुझे भी मिल जाएगी एक प्याली इस ठंड में...।’
उस घड़ी जगतार के अंदर जैसे कुछ टूटा... बेआवाज़-सा, ‘चाचा एक प्याली चाय को लाचार हुआ पड़ा है!’
जगतार चाचा को चारपाई पर से उठाकर अंदर ले गया। गुसलखाने की बगल में बना छोटा-सा कमरा चाचा का था। जगतार चाचा के साथ ही बैठ गया। कुछ देर दोनों के बीच गहरी चुप पसरी रही। जगतार की हिम्मत नहीं हो रही थी, चाचा के मुंह की तरफ देखने की, उसकी आंखों में झांकने की। वह  कभी कमरे की दीवारों को देखता तो कभी छत को।
तभी, बचिंत दो कपों में चाय ले आई तो चाचा और वह चाय पीने लगे। बचिंत भी अपना कप हाथ में पकड़े समीप आकर खड़ी हो गई।
चाय के घूंट भरते चाचा के चेहरे पर जगतार की आंखें गड़ी थीं। वहां एक सुकून-सा तैर रहा था। उसकी बूढ़ी आंखों में जगतार के प्रति शुक्रिया का भाव भी छलक रहा था।
एकाएक जगतार के मुंह से जाने कैसे निकल गया—
‘भाभी, चाचा को मैं अपने घर ले जाऊं, कुछ दिन के लिए? बच्चों से मिल लेगा और इसका दिल भी बहल जाएगा।’
बंचित को जैसे बोलने का अवसर मिल गया।
‘ले जा भई... ले जा... हमसे तो ये तंग आए पड़े हैं... हम तो जैसे इनको पूछते ही नहीं।’ बचिंत ने ऊंची आवाज़ में कहा ताकि चाचा भी सुन ले।
‘नहीं भाभी, यह बात नहीं। इस उम्र में बंदा एक जगह बैठा-बैठा उकता जाया करता है। देख लेना भाभी, ये वहां भी ज्यादा दिन नहीं रहने वाला। इसका दिल इधर ही लगा रहेगा।’ जगतार ने हंसते हुए कहा।
‘बाई जी, जाना है आपने? आपके कपड़े डाल दूं झोले में?’ बचिंत ने ससुर के कान के करीब मुंह को ले जाकर ऊंची आवाज़ में पूछा।
एक पल बख्तावर चाचा ने पहले बहू की ओर देखा, फिर जगतार की ओर, और बोल उठा, ‘रख दे बहू... रख दे, दो लीड़े मेरे... मैं आ जूं... जल्दी आ जूं... बच्चों का ख़याल रखना।’
और चाचा फुर्ती से यूं उठ खड़ा हुआ मानो वह इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा था। उसकी आंखों में जैसे एक चमक आ गई थी।
बचिंत और जगतार अपनी हंसी नहीं रोक पाए।
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